अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से - 6 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से - 6

अवधूत बाबा गौरी शंकर के किस्से 6

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कोलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

ई. मेल. tiwariramgopal5@gmail.com

बाबा की सौम्य मुद्राः

बाबा की मुद्रा प्रायः सौम्य ही रहती थी। उनके मुखमण्डल पर एक दिव्यतेज की आभासी प्रतीत होती थी। अंग्रेजी भाषा में एक मुहावरा है जिसका अर्थ है कि ‘‘चेहरा मनुष्य के विचारों का सूचक होताहै’’। सहज ही में समझा जा सकता है कि जिसका मन शान्त और स्थिर होगा उसका मुखमण्डल भी सौम्य और तेजोमय होगा। चित्त की शान्ति को यदि हम और अधिक स्पष्ठ करना चाहें तो इसके लिये हमें तीन उदाहराणों पर विचार करना होगा । पहिला उदाहरण सागर का है जिसमें निरन्तर ऊूची-ऊूची लहरें उठतीं रहतीं हैं जो कभी रुकने का नाम नहीं लेतीं। ज्वार-भाटे के समय तो ये और भी अधिक प्रचण्ड हो जातीं हैं। सागर में यदि एक बडासा पर्वत भी डाल दिया जावे तो वह भी उसकी अतल गहराइयों में डूब जायेगा किन्तु इससे उसकी निरन्तर उठती हुई लहरों की निरन्तरता में कोई वाधा उत्पन्न नहीं होगी।यही स्थिति उन लोगों के मन की है जिनके मन में सदैव कामनाओं और अदम्य इच्छाओं के ज्वार-भाटे ठाठें मारते रहते हैं।इनके चेहरे पर सदैव तनाव की रेखाऐं खिंची रहती हैं।छूसरा उदाहरण हम सरिता का ले सकते हें । सरिता का प्रवाह कभी रुकता नहीं। उसकी धारा सदा अजस्र रूपसे बहती रहती है। उसके मार्ग में यदि कोई पर्वत भी आजाये तो वह उसे काट कर अपना मार्ग बना लेती है। सममतल मैदान में आकर तो उसका आकार और विशाल रुप धारण कर लेता है। बाढ के समय तो जो कुछ भी मार्ग में आजाये वह नष्ट हुए विना नहीं रहता। उसको यदि विश्राम मिलता है तो केवल सागर की गहराइयों में समा जाने के बाद। यह उदाहरण उन लोगों का है जो निरन्तर आगे बढने के प्रयास में दौड लगाते रहते हें।स्वयं को आगे बढाने के लिये कोई भी उचित अनुचित रीति-नीति अपनाने में संकोच नहीं करते।वे तो किसी को धक्का या धोका देकर भी अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने में नहीं हिचकते।ऐसे लोगों के चेहरे पर संघर्श और त्वराके चिन्ह गहरी स्याही से लिखे दिखते हैं।अंत में तीसरा उदाहरण एक ऐसी झील का लिया जासकता है जिसका जल स्थिर और शान्त हो। उसमें एक छोटा सा कंकर भी यदि फेंक दिया जावे तो उसमें गोलाकार जल की सतह पर तरंगें बनने लगतीं हैं जो बिना जल के चलायमान किये हुँए एक तट से दूसरे तट तक चली जातीं हैं। निष्काम संतों के मुखमण्डल पर छाया हुआ सौम्य और शान्त भाव इसी भावदशा को परिलक्षित करता हैं। बाबा महाराज के चेहरे पर इसे सहज ही देखा जाकता था।

आपने महात्मा बुद्ध की पद्मासनमें आसीन और जैन तीर्थकरों की खड्गासन में खडी हुई मुद्रा में अनेकों मूर्तियाँ देखी होंगी। उनके मुखमण्डल की शान्त मुद्राओं को भी निहारा होगा। ऐसी मुद्रा केवल तभी प्रगट होती है जब मनमें भावों का पूर्ण अभाव हो। ऐसी सरलता एक शिशु के मुख पर भी आप पायेंगे क्यों कि शिशु सरल और निश्छल होता है।

बाबा का सान्निध्यः

सन 1970 के पूर्व तक बाबा का घूमना फिरना लगा रहता था। बडी दूर-दूर तक की यात्राओं पर वे निकल जाते तथा महिनों रेल से यात्रा करते रहते। कभी कोई साथ होता तो कभी अकेले ही यात्रा करते रहते। जब डबरा में होते तो आस पास के ग्रामों में भ्रमण करते रहते। इस क्षेत्र का शायद ही कोई गाँव एसा होगा जहाँ बाबा के चरण न पडे हों। चाणक्यनीति में कहा गया है-

भ्रमन्सम्पूज्यतेराजा भ्रमन्सम्पूज्यते द्विजः

भ्रमन्सम्पूज्यते योगी स्त्रीभ्रमन्तीविनस्यती।।

दोहाः पूज जात हैं भ्रमन ते द्विज योगी अरु भूप।

भ्रमन किये नारी नशै ऐसी नीति अनूप ।।

उनके लिये कोई रोक टोक तो थी ही नहीं और ना ही उनकी चलायमान गति को कोई विराम । इस सम्वन्धमें बाबा के अनेकों भक्तोंने अपने अनुभवों को व्यक्त किया है।श्री रामगोपाल तिवारी ‘भावुक’ जी ने ‘आस्थाके चरण’ में अनेकों ऐसे संस्मरण लिपिवद्ध किये हैं । सन 1970 के ही आस पास बाबा बिलौआ में अपने निवास पर स्थित होगये थे यद्यपि जाना आना तब भी लगा रहता था। इसी समय से मेरा बाबा से सम्पर्क हुआ और जब भी मुझे अवकाश मिलता मैं बाबा के दर्शन कर लिया करता था। बाबा बडे स्नेह से मुझे ‘‘औंसियर’’ कहकर बुलाते थै। मेरा सम्वन्ध उनसे वैसाही था जैसा एक पिता-पुत्र अथवा गुरु-शिष्य में होता है।उनकी मुझ पर सतत निगाह रहती थी । स्थिति यहाँ तक थी कि यदि मैं कहीं भी, किसीसे भी और कभी भी बाबा की चर्चा करता तो बाबा बिलौआ में या जहां कहीं भी होते,मुझे पुकारने लगते । ऐक संस्मरण मैं आपसे बाँटना चाहूँगा । एक बार में डबरा की शासकीय लाइब्रेरी में खडा हुँआ था। लाइब्रेरी सदर बाजार के एक मकान की छत पर स्थित थी । प्रसंगवश लाइब्रेरियन से बाबा के बारे में मेरी चर्चा होने लगी । यहां डबरा में मैं बाबा की चर्चा कर रहा था वहां बिलौआ में बाबा मेरे नाम की आवाज लगाने लगे। जोर जोर से ऐसे पुकारने लगे जैसे अदालतों में मुवक्किलों को पुकारा जाता है-‘‘औंसियरऽ हाजिर होऽऽ’,‘औंसियर हाजिर होऽऽऽऽ। उस समय बाबा के पास कुछ लोग बैठे हुए थे उन्होंने बाबा से पूछा कहाँ है औंसियर । बाबा बोले छत पर खडा हुआ है,छतपर ही तो खडा है। सुनने बाले चिन्तित होने लगे कि न जाने औंसियर पर क्या संकट आ गया है जो वह बाबा को याद कर रहा है।

दूसरे ही दिन बाबा के बडे भाई श्रीयुत श्रीलालजी मेरे घर पधारे। बडी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मुझसे पूछा सब कुशल है। मैंने कहा बाबाके दया से सब कुशल है । उन्होंन फिर प्रश्न किया बाल-बच्चे मजे में हैं तो मैंने कहा आपके आशीर्वाद से सब आनन्द से हैं। किन्तु जब उनने तीसरी बार घुमा फिरा कर वही प्रश्न किया तो मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उनसे कहा कि बारम्बार वे इसी प्रश्न को क्यों पूछ रहे हैं। तब उन्होने मुझसे पूछा कि क्या कल तुम बाबा को याद कर रहे थै?मैंने कहा किस समय। उन्होंने कहा कि जब आँधी चली थी।

क्या तुम उस समय छत पर खडे थे। मैंने कहा, हाँ में छत पर खडा लाइब्रेरियन से बाबा की चर्चा कर रहा था किन्तु आपको कैसे मालूम हुआ । वे बोले उस समय बाबा तुम्हैं बार बार पुकार रहे थे इसलिये हमें बडी चिन्ता हुई और में आपसे मिलने चला आया। ऐसी थी बाबा की कृपा !! इतना ध्यान तो कोई माता अपने ब्र्रच्चे का भी नहीं रख सकती । बच्चे के आँख से ओझल होते ही माता विवश हो जाती है किन्तु बाबा की दृष्टि से तो उनके भक्त कभी ओझल होते ही नहीं । ऐसी सतत चौकीदारी के चलते क्या कोई गलत काम आप कर सकते हैं!! मैं पूछता हूँ कि क्या संसार की आधुनिक से आधुनिक सुरक्षा व्यवस्था बाबा की इस दिव्य दृष्टि का मुकाबिला कर सकती है। निश्चय ही आप कहेंगे कि असम्भव है ।

एक बार में बाबा के निकट बैठा था। बाबाने किसी पढनेबाले बच्चे की एक रफ कापी मुझे दे दी। बोले ले इसे लेले। मैंने कहा बाबा क्या करूं इसका तो बोले रखले। आज मेरी समझ में आरहा है कि बाबा का वह प्रशाद मेरे लिये कितना अनमोल था। बाबा के उस आशीर्वाद ने ही मुझे लेखक, सम्पादक, कवि, साहित्यकार, ज्योतिशी और आकाशवाणी का कलाकार बना दिया। यही नहीं मेरी तो काया ही पलट दी वरना एक इन्जीनियर का एक सफल डॉक्टर बनना क्या किसी चमत्कार से कम है।

मै यहाँ एक और घटना आपके सामने रख रहा हूँ जो मेरे एक वन्धुवत् मित्र के छोटे भाई के सम्वन्ध मे है। उस परिवार से मेरा आत्मिक सम्वन्ध है। मित्र की माताजी ने मुझसे कहा कि बेटा,बडे बैटे और छोटे बेटे की नौकरी तो लग गर्इ्र परन्तु बीचबाला बी.ए.पास कर घर बैठा हुआ है। बह बडा दुखी रहता है,उसके लिये कोई नौकरी देखो। मैंने मन में सोचा कि वह बडा रहीसी स्वभाव का है अतः कोई छोटी-मोटी नौकरी तो करेगा नहीं और मैं इतना बडा अधिकारी हूँ नहीं जो उसे कोई बडा पद दिला संकू। मैंने सोचा कि बाबा से ही कहूँगा । ग्वालियर से बिलौआ जाते समय जैसे ही झांसी रोड से मैंने अपनी गाडी बिलौआ की तरफ मोड़ी तो अपने घरके सामने नीम के नीचे चबूतरे पर बैठे बाबाने पुकारना शुरू कर दिया‘-‘‘चले आ रहे हैं रईसों के सुपारती,चले आरहे हैं रईसों के सुपारती(शिफारसी)’’ । लोगों ने पूछा कौन आरहे हैं। हैं एक रईसों के सुपारती। कुछ ही समय में मैं भी वहाँ पहुँच गया। लोगों ने बताया कि बाबा कह रहे थे कि चले आरहे हैं रईसों के सुपारती। मैंने बाबा से निवेदन किया कि बाबा जिस पर आपकी कृपा हो वही तो रईस है । मेरा भाई रहीस है और में उसका सिफारसी हूँ । कहना न होगा कि अगले ही दिन उसके बडे भाई का मित्र, जो बिजली विभाग में अधिकारी था, उसे घर से बुला ले गया और बाबू की नौकरी देदी।

बाबा के सम्वन्ध में ऐसी घटनाओं की कोई गिनती नहीं हो सकती। जैसे समुद्रके पानीका स्वाद जानने के लिये सारे समुद्र का पानी पीना आवश्यक नहीं है, उसका स्वाद तो बस एक बूद चख करही जान लिया जा सकता है, उसी प्रकार बाबा के चरित्रों को भी समझ लेना चाहिये।

डबरा में पदस्थ हुए मुझे सात वर्ष हो चुके थे। इस बीच मेरे स्थानान्तर की कई बार चर्चा चली । अब तक बाबा की कृपासे मैं एक सफल होम्योपैथिक डॉक्टर बन चुका था। मेरे पास डॉक्टरी की कोई डिग्री-डिप्लोमा तो था ही नहीं बस अनुभव के आधार पर ही दबाइयाँ बाँटता रहता था। इसके लिये कोई्र शुल्क अथवा दबाइयों का मूल्य भी नहीं लेता था। मरीजों की संख्या इतनी अधिक होने लगी थी कि सायंकाल से पाँच बजे कभी- कभी रात के दो तक बज जाते थे। बाबा की कृपा कुछ ऐसी थी कि जहाँ दो चार पुडियाँ दीं और मरीज को लाभ हुआ । अतः जब भी मेरे स्थानान्तर की चर्चा चलती थी तो जनता अफसरों तक जा पहुँचती और अफसर यातो तबादला करते ही नहीं और कर भी देते निरस्त होजाता। सन 1972 में मेरा स्थानान्तर ग्वालियर हुआ। मैं भी जाना चहता था। विचार यह था कि ग्वालियर में रह कर होम्योपैथिक का डिप्लोमा करलूं जिससे आगे प्रेक्टिस करने मैं कोई कानूनी अड़चन न आये। मैं बाबाके पास गया और उनसे निवेदन किया कि बाबा आपने मुझे यहाँ से तो भगा ही दिया , अब कहाँ ले जाकर पटकोगे। कभी-कभी में बाबा से बच्चों की तरह लढियाने लगता था। बाबा हंसते रहे। फिर उन्होंने मुझे रस्सी का एक टुकडा दिया, कहने लगे ले इसे लेजा। मैंने कहा-‘‘‘ बाबा इसका क्या करुं?’’ बाबा बोले- इसमें घास बाँध लेना और कांस बाँध लेना। मेरे कुछ समझ में तो आया नहीं, मैंने बाबा से कहा कि बाबा आपकी कृपासे में डलियाँ तो डलबा ही रहा हूँ , घास भी खुदवा लूंगा। ग्वालियर में मेरी पदस्थी दो बार ऐसे कार्यों पर हुई जो नगर में ही थे किन्तु निरस्त होते गये और अंत में एक ऐसे नवीन ग्रामीण मार्ग के निर्माण कार्य पर पदस्थी हुई कि जहाँ पहुँचते ही मुझे दस किलोमीटर की लम्बाई में सबसे पहिले जंगल सफाई्र का ही कार्य कराना पड़ा।

बाबाकी कृपाओं की गणना सम्भव नहीं है। उनसे सम्पर्क भी होता रहता था और स्मरण मात्र से ही उनकी कृपा का अनुभव होजाता था। एक बार बाबा ने मुझसे कहा, ‘‘ओंसियर तू मेरा मन्दिर बनबायेगा’’!! मैंने कहा बाबा मुझे तो और कुछ आता नहीं है। आपही बताइये कहाँ क्या करना है। बाबा मुस्कराकर रह गये। आज भी मैं सोचता हूँ तो मन्दिर की कहीं कुछ भूमिका नजर नहीं आती। यदि बाबा मुझसे कुछ सेवा लेना चाहेंगे तो मेरे लिये इससे बडा सौभाग्य और क्या होगा?

चरितमाल का लेखन-

सहायक यंत्री के पद से हमारी सेवा निवृत्ति सन 1995 में होगई थी। आगे के लिये तो कुछ सोचना था ही नहीं क्यों कि बाबा की कृपासे में एक क्वालीफाइड और रजिसटर्ड डॉक्टर बन चुका था अतः प्रेक्टिस के लिये मुरार में मयूर मार्कीट,ठाठी पुर, में एक दुकान ले कर ‘‘कायाकल्प’’के नाम से दवाखाना प्रारम्भ कर दिया। 1996-97 में डबरा के नागरिकों के विशेष अनुरोध पर डबरामें सराफा बाजार में एक दुकान लेकर सुबह के समय वहाँ बैठने लगा। उसी समय अखबार में खबर पढने केा मिली कि श्री राम गोपाल तिवारी ‘भावुक’ ने बाबा के जीवन पर एक पुस्तक लिखी है जिसका विमोचन बाई महाराज द्वारा किया गया है। मुझे बडी प्रसन्नता हुई। अपने एक मरीज से मैंने राम गोपालजी का पता पूछा तो उसने कहा कि आप चिन्ता न करें। मैं अभी जाकर राम गोपाल जी को बता दूंगा तथा वे आपसे स्वयं ही मिल लेंगे। दूसरे ही दिन भावुक जी मुझसे मिलने आगये और उन्होंने मुझे ‘‘आस्थाके चरण’’ नामकी पुस्तक भेंट की। पुस्तक देख कर मन प्रसन्न होगया। आज भी बाबा के जीवन पर यह एक मात्र प्रामाणिक दस्तावेज है। पुस्तक से प्रेरणा पाकर मुझे भी कुछ लिखने की प्रेरणा हुई और मैंने सोचा कि मैं भी बाबाके जीवन पर कुछ लिखूं । बाबाकी कृपासे अगले तीन ही दिन में मैंने 108 दोहे लिख कर भावुकजी को दिखाये। भावुकजी बोले इसे छापना है। मैंने कहा अभी नहीं अभी तो इसे पूरा करना है। पहिले आप उत्सुक जी का कार्य प्रकाशित करें । मेरा सहयोग आपके साथ रहेगा। इसके बाद ‘‘परमहंस संत गौरीशंकर चरितमाल’’ के नाम से उस पुस्तक का प्रकाशन मैंने ग्वालियर से ही किया। इसका विमोचन भी भावुकजी के निवास पर, जो डबरा में बाबाके सत्संगका प्रमुख स्थान है,परमपूज्य बाई महाराज के करकमलों से सम्पन्न हुआ। उत्सुकजी ने बाबा का ‘‘मस्तराम चालीसा’’ लिखा है। इसमें स्तुति इसीसे ली गई है बाबाके भक्त जिसका नित्य पाठ करते हैं। बाबाकी अहेतुकी कृपा का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है? बाबाकी दयादृष्टि का एक और उदाहरण देना चाहूँगा । जब इस पुस्तक की भूमिका लिखने बैठा तो मन में बिचार आया कि बाबाने भावुक जी को पेन दिया मुझे नहीं दिया । मैं अब भूमिका किससे लिखूं। कुछ देर बाद में लघुशंका के लिये बाहर निकला तो क्या देखता हूँ कि सड़क पर एक पायलट पैन पडा हुआ है। मैंने पेन उठा लिया और थेडी देर तक उसे लिये खडा रहा कि जिसका पेन गिरा है वह शायद ढूढ़ता हुआ आयेगा। आया तो कोई नहीं पर मन में विचार आया कि अभी थोडी देर पहिले तुमने बाबा से पैन मांगा था इसलिये यह किसी का नहीं है । यह तो तुम्हैं बाबा ने दियाहै। दुर्भाग्य से वह पैन अब मेरे पास नहीं है। बाबाका अर्न्तध्यान होनाः बख्शी बनकर आते हें जगत में राम के प्यारे ।

लीला है इनकी अद्भुत ,करतब हैं इनके न्यारे ।

बाबा 1976 तक बिलौआ ग्राम में अपने घर पर विराजमान रहे। जब कोई भक्त उन्हें आमन्त्रित करता तो उसकी रुचि को देखते हुए उसे कृतार्थ करने उसके निवास को अपनी चरणरज से पवित्र कर देते। दिनांक 1 जुलाई सन 1976 को कोई पुलिस के दरोगाजी अपने मकान का गृहप्रवेश कराने के लिये बाबा को मोटरसाइकिल पर बैठा कर ग्वालियर ले जाने के लिये रवाना हुए। बाबाजी वहीं से अर्न्तहित होगये। बाबाके बडे भाई श्रीयुत श्री लाल जी के अनुसार दरोगाजी का कहना है कि बाबा उद्घाटन के पूर्व ही वहाँसे कहीं चले गये थे। सन्तों की मौज के वारे में जानना तो क्या अनुमान लगाना भी किसी के लिये सम्भव नहीं है।

दोहाः कवीर हसना छोड दे रोने से कर प्रीत ।

विन रोये किमि पाइये प्रेम पियारा मीत।।

बाबाको जहाँ तक सम्भव हो सका ढूडा गया। बाबाके होने के तो अनेकों प्रमाण मिले किन्तु मिलने के नहीं । बाबा किसी को रेल्वे स्टेशन पर मिले तो किसी को बीच बाजार में लेकिन जब तक मिलनेबाला संभल पाता तब तक बाबा अदृश्य हो जाते । जब उनसे पूछा जाता कि बाबा आप कहाँ हो तो सबको एक ही उत्तर मिलता कि यह में नहीं बता सकता । अनेकों संतों और जानकारों ने उनके होने की पुष्टि की है परन्तु वे कहाँ है इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है।

हमारे सामने एक तथ्य और भी उभरकर सामने आता है कि जिससे अनुमान किया जा सकता है कि बाबा हैं। जैसा कि पूज्य बाई महाराज ने अपने संस्मरण मे व्यक्त किया है, बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दियाथा कि तुम सदा सौभाग्यवती रहोगी तथा आनन्द करोगी। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तक बाई महाराज का सान्निध्य हमारे साथ है तब तक बाबाके होने के किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है!!