मेरा भारत लौटा दो - 7 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा भारत लौटा दो - 7

मेरा भारत लौटा दो 7

काव्‍य संकलन

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण

पूज्‍य पितृवरों के श्री चरणों में सादर

दो शब्‍द-

प्‍यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्‍द के सौन्‍दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्‍य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्‍नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्‍तुत कर, अपने आप को धन्‍य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’ डबरा

लौट आ अपनी जमीं पर—

पदमिले जब कोई- जिसको और हो जाता है वोई।।

मारता अपने ही घर को, सांड़ बन जाता जब बोई।।

नहिं पता उसको कि कैसे, जिंदगी तहरीर लिखती-

और कितनी रूई-पौनी श्रमकणों से बनी लोई।।

चिंतनों को टांग खूंटी, दौड़ कैसी दौड़ता वो-

मानता खुद को विधाता, किन्‍तु नाशक ज्यौं घमोई।।

रही जवानी कब किसी की, छांव सी ढलती रही है-

कब कबीरा चल पड़ेगा, छोड़कर अपनी ये लोई।।

शाम आतीं और जातीं, नियति का सिद्धांत न्‍यारा-

अनसुना, अनजानता-सा, गीत गाता यहां कोई।।

कुछ हकीकत जान अब भी, लौट आ अपनी जमीं पर।

यौं चली मनमस्‍त दुनियां, थिर रहा ना यहां कोई।।

महाते दुबके--

महाते दुबके प्‍यार में, को कहि बैरी होय।

ऊंट, बिलईयां ले गई, हां जू, हां जू होय।।

सांसी जो कोऊ कहै ताको देश निकाल-

साथ न देवे कोई भी, बैठ बाप खौं रोय।।

धनूआं ठाड़ो गैल में, बखरी लई छुड़ाय-

जांगा सब उनकी भई कर्ज न निपटो कोय।।

पाबंदी है बोलबो, उंगली नहीं उठाब-

कक्‍का जू जो कहिदई, होनी होय न होय।।

दिखा रहे आंखें हमें, हमरेई घर में काल-

उनकी सबरी सांच है आम बमूरा होय।।

यही जमाने की ठसक, यही समय की टेर-

भूल न रहे मनमस्‍त तहां, व्‍यर्थ न जीवन खोय।।

बड़ा समझता यारो--

कहानी जब पढ़ी जब उनकी निकले बे-शहूर यारो।

मन से जुहार करता रहा बड़ा समझकर यारो।।

मैं देखता ही रहा, इनके लैशो-लिबास को-

छुपाए ये रहे अंदर तेज शमशीर को यारो।।

इनकी जेबों की डायरी पढ़ने को जब मिली।

कैसे-कैसे लोगों के गहरे दोस्‍त थे यारो।।

इनके नाश्‍तों के बिल का परचा जब कही पाया।

कितने नए, ताजे गोश्‍त के, शौकीन थे यारो।।

शाम की रंगीन मस्‍ती क्‍या लिए आती-

शमां भी जलते-जलते बुझ जाती थी यारो।।

जब भी वे मिले लगते थे पाक-साफ खूब।

लेकिन काली करतूती छाया, गहरी थी यारो।।

एक दिन में, जाने कितने रूप बदल लेते थे।

जाना नहीं है, अब तलक, मनमस्‍त भी यारो।।

पानी नहीं--

पैरों ने कितनी कहानी कही।

आंखों में फिर भी तो पानी नहीं।।

अनगिन तुजुर्बों के छाले, मगर-

अब तक मिटे हैं, निशाने नहीं।।

कैसी थी, कदमों की वो जिंदगी।

चट्टानी दिल पै, निशाने सही।।

शहरों के उड़ गए थे, साया सभी-

उजड़ों के अब तक, निशाने नहीं।।

चहरे सभी के थे सहमें हुए।

होती थीं, गुपचुप वो बातें कहीं।।

रिश्‍ते वो पाकीजा, क्‍यों ना रहे-

रिश्‍ते भी रिश्‍ते से, क्‍यों ना कहीं।।

हल ना मिला, बहुत खोजा मगर-

मनमस्‍त पाया ठिकाना नहीं।।

पत्‍थर दिल--

कितना था पत्‍थर दिल, तिल ना हिला।

जख्‍मों को कैसे, छुपाएं भला।।

नाजुक थे हालात, गम के शहर-

निकलें तो निकलें, कैसे भला।।

ठिठुरी थीं रातें, कपते थे दिन-

शोले जलाएं तो, कब तक भला।।

सन्‍नाते गोलों की दहशत बड़ी-

जानों के लाले, यौं-जीवन चला।।

होता था मन, गीत गा लैं अमन-

दुश्‍मन निशाना ही, मन में पला।।

बेचैन जीवन था, मुल्‍के अमन।

दीवारैं कैसी उठा दीं भला।।

मौतों के सामां, जुटाते रहे-

अम्‍नों की फसलें, न बोई भला।।

कैसे मिटेगा, ये जीवन कहर,

मनमस्‍त लगता है सब कुछ जला।।

खुदा न मिला--

यादें नहीं, राहों क्‍या-क्‍या मिला।

सब कुछ मिला, पर खुदा ना मिला।।

चलते रहे लोग, अपनी डगर-

समझत रहे, हमें सबकुछ मिला।।

धुंधलाए चेहरे और कांपते शहर-

शर्मायी शामें ले, दीपक जला।।

मस्‍ती की चादर, वे ओढ़े हुए-

आंखों में चेहरा, शराबी पला।।

मंजिल-दर मंजिल छाना सभी-

छलिया मिले हमनवा ना मिला।।

देहरी से लेकर के मंदिर शिखर-

मतवाले लोगो का,मंजर मिला।।

समझाते बहुतेरे न समझे अभी-

पौंगा ही पंडित का, महिफिल मिला।।

अनचाहे मिलते रहे, हर गली-

मनमस्‍त चाहा, वो खुदा ना मिला।।

तहरीरें पढ़ते हैं--

वेद और कुरान क्‍या जान नहीं पाए।

तहरीरें पढ़ते हैं, समझ नहिं पाए।।

रातों-दिना, अच्‍छरों को पढ़ा है-

स्‍वर और व्‍यंजन में, भटके दिखाए।।

अल्‍फाज कोई हो, अल्‍फाज होता बस-

समझे नहीं, ना समझे कहाए।।

देखा करे रोज, चेहरे किताबी-

अन्‍दर की धड़कन को, गिन भी ना पाए।।

आहों की सरगम पै क्‍या-क्‍या सुनाते-

सुनते रहे, किन्‍तु सुन भी ना पाए।।

जाना नहीं रात-दिन का भी होना-

उगता कबै, सूर्य डुबता दिखाए।।

तुमने पढ़ा नहीं, पढ़ते हैं तारे-

घनघोर रातों दिल दीपक जलाएं।।

असली में ये हैं, खुदा की अमानत।

मनमस्‍त पढ़लो, ऐहिं वेदों में पाए।।

समदर्शी न्‍यायालय कैसे--

कितनी छोटी आंखें हो गई, बड़ी चीज भी दिखे नहीं अब।

समदर्शी न्‍यायालय कैसे पाक-साफ भी दिखे नहीं अब।।

वो पिछली बातें बिसरा दो, न्‍याय अहिल्‍या को नहिं मिलता।

चीर हरण तो आम कहानी, रक्षक कोई, दिखे नहीं अब।।

अपने पथ पर, पथिक हारता, मंजिल को भी नहीं रास्‍ता-

कैसे क्‍या परिवर्तन होगा, उगता सूरज दिखे नहीं जब।।

बड़े-बड़े सपने थे, लेकिन वे मौसमी तुषार पड़ा है-

जीवन का हर कदम विखण्डित कोई साधन दिखे नहीं अब।।

कितने प्रश्‍न चिन्‍ह ठाड़े हैं, उत्‍तर देता दिखा न कोई-

छिद्रान्‍वेषण की दुनियां है समाधान कोई दिखे नहीं अब।।

कौने ठाड़ीं आशाएं अब, शिशक रहीं कितनी बेताबी।

परिवर्तन के कोई बादल, यहां बरसते दिखे नहीं अब।।

कितने इतर चरित्र को लेकर, नाच रही है यहां व्‍यवस्‍था-

निरावरण है यहां द्रोपदी भीमार्जुन दिखे नहीं अब।।

विदुर नहीं ढूंढ़े मिलता है, धृतराष्‍ट्रों की भीड खड़ी है।

क्‍या होगा मनमस्‍त यहां अब, कोई खेवा दिखे नहीं अब।।

अस्‍मत व्‍यापारी--

कितना घिनौंना और कैसा परिवेश है।

अस्‍मत व्‍यापारियों का, लगता यह देश है।।

हंसते दहेजी, ये दानव हैं, जहां-तहां-

नारी की असमत का, कैसा ये वेश है।।

चिंतन की धरती का, पानी क्‍या सूख गया-

कलियों को मसल रहे, माली क्‍यों शेष है।।

दोषी है इसका को, कैसी लाचारी है-

नारी के क्रन्‍दन का, कैसा परिवेश है।।

ऐसी ही रफ्तार दुनिया की रही गर-

इक दिन बह आएगा-कोई नहिं शेष है।।

ठेका ले रक्षा का, कहां गए ठेकेदार-

सोते जा गहरी नींद, क्‍या उनका ये देश है।।

गुनहगार कोई तो, होगा मनमस्‍त यहां-

उजड़त फुलवारी मेरा क्‍या देश हे।।

क्‍यों देश रो रहा है--

पगला हुआ है क्‍यों तूं क्‍या-बोल रहा है।

सुनता नहीं किसी की, देश रो रहा है।।

डरता नहीं है बिल्‍कुल, वेखौंप खड़ा जालिम-

अपनी ही बस्तियों में, बारूद बो रहा है।।

जख्‍मी हुई है दुनियां खूनी हुआ है मंजर-

कश्‍ती भंवर में डूबै, खेवा तो सो रहा है।।

अटके हो अब वहां पर, परवरदिगार मेरे।

उजड़ा है चमन मेरा, अरू अमन रो रहा है।।

लगता है ज्‍यादा पी गए, होश हवास खोया-

कोई ना फिकर तुमको, ये देश जल रहा है।।

हस्‍ती मिटेगी तो फिर, नौनिहाल कहां रहेंगे-

सपनों की शाम होगी, ये ही तो खल रहा है।।

कब तक जलेगी धरती, आसमां की तरफ देखो।

मनमस्‍त अश्रुजल से, दामन भिंगो रहा है।।

झूठे वादे--

तेरे इतने से झूठे ये वादे, काम आने के काबिल नहिं है।

आसमानी हवाई किले ये कोई अस्तित्‍व काबिल नहीं है।।

मेहरबानी खुदा की रही जो, गौर उस पर किया क्‍या कभी भी

तेरी राहों के साथी वही हैं, भूल जाने के काबिल नहीं हैं।।

गर चला जो गुनाहों की राहों, तेरी अर्जित ही पूंजी घटेगी-

होश, अब भी संभालो ओ साथी कोई राहों का साथी नहीं है।।

तेरे झूठे अहं की कहानी, चल पाएगी कितने दिनों तक-

नेक राहों की राहों पै आओ, जिंदगानी ये लम्‍बी नहीं है।।

मानवी के पथों पर चले जो, उनका डूबा न सूरज कभी भी।

उनकी राहों की राहों पै चल लो, जान जाना ही केवल नहीं है।।

दायरे में ही अपने रहो तुम, डींग हांको न ज्‍यादा कभी भी-

झूंठी तारीफें करते सभी हैं, सच्‍ची कहने ही बाले नहीं हैं।।

इस तरह से तो इकदिन तुम्‍हारी, डूब जाएगी कश्‍ती किनारे।

मस्‍त मनमस्‍त इतना न होना पानी देवा न पाओ कहीं है।।