मेरा भारत लौटा दो - 5 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा भारत लौटा दो - 5

मेरा भारत लौटा दो 5

काव्‍य संकलन

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’

समर्पण

पूज्‍य पितृवरों के श्री चरणों में सादर

दो शब्‍द-

प्‍यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्‍द के सौन्‍दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्‍य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्‍नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्‍तुत कर, अपने आप को धन्‍य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’ डबरा

करिया सांप--

यथा शांपों की श्रेणी में, बड़ा अभिषाप होता है।

व्‍यवस्‍था दौड़ में त्‍यौंही करिया सांप होता है।।

पता पड़ता नहिं चलता है, कितनी, चाल ये टेढ़ी-

कहां बैठा रहे छिपकर, नहीं आभाष होता है।।

नहीं है दंत ही केवल, इसके अंग सब जहरी-

निगाहैं कहां होती हैं, निशाना कहां होता है।।

इसकी अजब चालों को, अभी तक, लोग नहीं समझे-

व्‍यवस्‍था की सही जड़ में, विषैले बीज बोता है।।

कभी-भी उवर नहीं पाया जिसको डस लिया इसने-

तड़फता जिंदगी भर ही, इतना बड़ा धोखा है।।

जमाना यही कहता है, संभलकर चल सको चल लो-

नहीं अच्‍छा कहे कोई, ये बाचा काट होता है।।

कई हाथों, मेरे भाई, इससे दूर ही रहना-

जहर फुंकार करते ही, सदां मनमस्‍त सोता है।।

सांप के बच्‍चे--

बुरी हो भावना जिनकी, कभी होते नहीं अच्‍छे।

हमेशा सांप ही होते, होते सांप के बचचे।।

उन्‍हें अच्‍छा नहीं लगता, आगे और का बढ़ना-

खुशी से, फूल जाते हैं, पांए और जब गच्‍चे।।

बुरे ही ख्‍वाब देती है, उनके सोच की सीमा-

दुश्‍मन मानते उनको, चलैं जो हमेशां सच्‍चे।।

बिगाड़े काम औरों का, बनाना दूर की कौंड़ी-

उनके मंत्र जब फुंकते, कर दें कान के कच्‍चे।।

बातें इतै की उतमें, माहिल इन्‍हीं को कहते-

चुगली की इबारत को, कहते जो सदां अच्‍छे।।

इनकी चाल ने, देखो अनेकों घर बिगाड़े हैं।

संभाले नहिं संभल पाए, उड़ गए उनके खर पच्‍चे।।

भले जन, आज भी इनको, सदां घरफोर कहते हैं-

इनसे संभलकर रहना, न बनना कान के कच्‍चे।।

नहीं हैं बस्तियां खाली, घर-घर में मिलैं अब तो-

बचो मनमस्‍त अब इनसे, होते ये नहीं सच्‍चे।।

इंशा की हैवानियत--

हाथ का हाथ है दुश्‍मन, भरोसा कैसे कर पाए।

पता नहीं कौन से क्षण में, इंशा हैवान हो जाए।।

जिसे अपना समझ कर के, अमानत सौंपते अपनी-

उसी की चाल कब बदले, नियत में खोट कब आए।।

बना कर घरेलू रिश्‍ता, अनेकों अस्‍मतें लुटतीं-

कहानी ये दरिंदों की, कैसे अब कही जाए।।

कई धोखे भरे किस्‍से, अनेकों मित्रता टूटीं-

ठगा जीवन गया यौं ही, शर्म को हां शर्म आए।।

अगर तुम गौर से देखो, तो पत्‍थर बोलते दिखते-

जमाने की हकीकत को, हवाएं गमभरी गाएं।।

रातें चीखतीं कितनी तारे टूटते दिखते-

कहीं है मौन सन्‍नाटा दादुर भी न टर्राए।।

मानव हो गया बहरा, सुनकर भी नहीं सुनता-

कहां मनमस्‍त खोए हो, जागरण गीत यह गाए।।

शहर की किस्‍मत--

हमारे शहर की किस्‍मत का सुन्‍दर रूप कब होगा।

आईना सामने लाएं, जिसको आज तक भोगा।।

तुम्‍ही ख्‍वाबे सलामत से अनौखे एक मंजर हो-

जर-जर हो गई काया चिंतन और कब होगा।।

राहैं खास्‍ता हो गईं निशाने गुम हुई नालीं-

मिटी पगडंडियां सारी कहां पर जिंदगी ढोगा।।

लगैं चौराहे भी सूने, न संकेतक हैं राहों के-

किनारे तरू विहीने हैं, नहीं है कोई दारोगा।।

लगा यहां, सो रहा कोई शमशान आकर के-

इसकी दुर्दशा देखत निरा सुनशान भी रोगा।।

शहर कब होयेगा शब्जबाग मेरा, क्‍या बताओगे।

अथवा व्‍यर्थ आश्‍वासनों का, कोरा दौर ही होगा।।

पुराने जरजर किले--

कहने को, क्‍या नहिं कह रहे, मजरूह से किले।

दीवानगी की राह में, जो कभी ना हिले।।

सुनशान सी खड़ी है कंगूरों की शिखाएं।

आकर के आसमान भी, जिससे कभी मिले।।

पत्‍तों की तरह झड़ रही, दरवाजों की लड़ी-

करते जुहार जिनको थे आकर के सभी।।

बुर्जों की ताक-झांख में तोपों की शान थी-

गोलों की आनबान से, दुश्‍मन के उर हिले।।

आंसू से टपक आ रहे, छज्‍जे की कोर से-

कहते ही दास्‍तां रहे, दर्दे नही झिले।।

ऊगी हैं घास हर कहीं, बे-जान से लगें-

अर्रा पड़ी है बीच से, धरती से आ मिले।।

कहती हैं निजी पीर को, सुनशान रात में-

सुन कर जिसे मनमस्‍त के, दिल-हीर भी हिले।।

आंसुओं की रात--

आंसुओं की रात वो, कैसे गुजारे गई होगी।

पलक से ढलके नही जो, जान पाता भुक्‍त भोगी।।

गुजरते मंजर गए सब, जिंदगी दहलीज पर-

रूक गया कैसे जमाना, जानता रोगों को रोगी।।

कैसे गुजारे गई होगी, रतजगे की रात वो-

शहर सन्‍नाटों भरा था, जागता जैसे हो जोगी।।

रात का रोना, सि‍सकना, आसमां सुनता रहा-

अश्रु ही वर्षाऐ जिसने, रज कणों पर, ओस होगी।।

गुम हुई आवज उसकी, झिल्लियों के शोर में-

जानता नादा है कोई, ये समां क्‍या-क्‍या है भोगी।।

शाख पर बैठा वो उललू देखता जलते समंदर-

चाहता था प्‍यार धरती, अरू समां खुशहाल होगी।।

सुबह की पहली किरण की, आस में बैठी जहां है-

है कोई मनमस्‍त अब भी, या बुलंदी खाक होगी।।

वतन के दुश्‍मन--

वतन को नष्‍ट क्‍यों करते, अमन के दुश्‍मन बने।

मगर यह जाना सभी ने, वतन-गद्दारे बने।।

हिम्‍मतें हारे नहीं हम, लहू की बरसात में-

मजहबों बरातों में वतन गुनहगारे बने।।

किस कदर पागल बनाया, इस सियासत चाल ने-

हम निजी यारा वतन के, मूक हत्‍यारे बने।।

छोड़ दी कश्‍ती, न जाना भवंर अरू तूफान को-

झूंठ की सांकल पकड़कर, वतन पतबारे बने।।

खून का पानी बनाया, इस वतन के वास्‍ते-

हो नही पाए उरिण हम, वतन कर्जदारे बने।।

जख्‍म ही देते रहे नहिं दे सके मरहम कोइ-

पूंछ मत, दर्दे दिलों को, वतन-बीमारे बने।।

तुम्‍हीं वो इंशा रहे, जिन खूं भरा दामन-वतन-

क्‍या कहैं मनमस्‍त, नहिं वतन पहरेदारे बने।।

मंदसौरी दौर-

मंदसौर कैसा खून कहीं बहना न चाहिए।

ईश्‍वर मेरे, इस जमी को अमनों नहाइए।।

हक के लिए, हक की गुजारिश सुनो तो अल्‍लाह-

वतन को, इस दौर से निजात दिलाइए।।

पेट की खातिर पायी पीठ पर गोली।

फिर तो आला अफसरों से हवालात न दिलाइए।।

अर्जियां लेकर गए सियासत नहीं कोई-

मजहबों की लाइन में, इसको न लाइए।।

दफन कर सारी हिमाकत यही पर सब कुछ।

इस कदर नई नश्‍ल को आगे न लाइए।।

पाट दें खंदक वतन को सब कहैं अपना।

शाखे वतन ये शाख से बिछुड़ो को लाइए।।

सहम बच्‍चों से गए गमों के इस दौर में सब।

ऐहि वतन, मनमस्‍तीका-दौर आना चाहिए।।