मेरा भारत लौटा दो - 1 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा भारत लौटा दो - 1

मेरा भारत लौटा दो 1

काव्‍य संकलन

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण

पूज्‍य पितृवरों के श्री चरणों में सादर

दो शब्‍द-

प्‍यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्‍द के सौन्‍दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्‍य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्‍नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्‍तुत कर, अपने आप को धन्‍य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’ डबरा

वंदना

(वाणी- विनायक)

गणाधीश, गजबदन विधाता।

बाणी पद में शीश नबाता।

फिर से नब रस गीत सुना दो।

पुरा-बही भारत लौटा दो।।

गौरव गुरू भारत पुरा- पुराना सब लौटा दो।।

युग के कष्ट तुम्‍हीं ने टारे।

प्रथम रेख, सब तुमसे हारे।

एकदन्‍त, निज खड़ग संभारो।

बीणा पर, नब राग सुना दो।।

वेद भेद तब जान न पाए।

शरण आपकी, सबहीं आए।

ओम रूप सब जान न हारे।

मेरा भारत, पुन: जगादो।।

आरत वाणी किसे सुनाऐं।

शरण कौंन की, अब कहां जाऐं।

तुम अनन्‍य हो, विनती सुनलो।

पुन: धरा को, स्‍वर्ग बना दो।।

वैभव की धरा -

भारत‍ सोने की चिडि़या था, सोचा कभी सोचते मन में।

कैसे हो यह सत्‍य सार्थक, उत्‍तर मिला-कभी चिंतन में।

दृश्‍य उभरते देखे हैं क्‍या विश्‍व सभ्‍यता के आंगन में।

आतम में अनुनाद हुआ क्‍या, कौन राग जागैं चिंतन में।

सब कुछ संभावित सा लगता, भव्‍य भावना के दर्शन में।।

स्‍वाभिमान की बहैं बयारैं, ऊंचामस्‍तक किए गगन में।

दीनों के दर्दों को मरहम, और लेप करता सा ब्रण में।

जगत गुरू का रूप कभी था, ऊंचा कर, कर विश्‍व भुवन में।।

संघर्षों में अडि़ग रहा जो, पीर बना, बे-पीर किया जग।

शस्‍य-श्‍यामलम की आभा ले, भाषा-जाति-विहीन किया मग।

एक एकता और अखण्‍डता ले बरसे घन-निर्जन बन में।।

राष्‍ट्र चेतना, नए सृजन की प्रथम पाठशाला था भारत।

सभी तरह, समृद्धवान सब पुरूषोत्‍तम कहलाता भारत।

स्‍वर्ग यहीं था, और कहीं ना, बोल रहा क्षण, कण-कण में।।

ब्रम्‍ह यही, ब्रम्‍हाण्‍ड का नायक, सत्‍य–सनातन रहा पुजारी।

सौर्य-ओज से दीप्‍त रहा जग, राम-कृष्‍ण के रूप हजारी।

संरक्षक था, नहीं था भक्षक, दिव्‍य-अलौकिक अद्भुत रण में।।

आज कहां वो भारत मेरा, जरा खोज कर मुझे बताओ।

पुरा संस्‍कृति, कहां सभ्‍यता, न्‍याय-नीति कहां सब दरसाओ।

दर्द यही मनमस्‍त जिगर में कुम्‍हलाता है सारातन-मन।।

मेरा तिरंगा -

है सही कुर्बानियों का, एक निशां, मेरा तिरंगा।

सियासत मत करो कोई, यही त्रिवेणी-गंगा।

न बांटो इसे मजहब में, त्‍याग का यह तराना है।

इसे उन्‍मुक्‍त रहने दो, काऐ को, ले रहे पंगा।।

इसकी मुक्‍तता की, एक बड़ी-‍लम्‍बी कहानी है।

अनेकों मोड़ ले गुजरा, याद सब कुछ जुबानी है।

अनेकों जेल पा, भुगते न पूंछो, इसी की खातिर।

इसे सिरमोर रहने दो करो नहीं खींचा तानी है।।

सभी मजहब इसे प्‍यारे, जैन या बौद्ध हो कोई।

हिन्‍दू, मुस्लमा, ईशा, पारसी, सिक्‍ख या कोई।

यह है सभी का प्‍यारा, फिर भी सभी से न्‍यारा।

इसे सम्‍मान दें, पूजो, नहीं कोई बात है गोई।।

अनेकों पंथ के झण्‍डे खड़े ले आस्‍था अपनी।

सीमित भावना उनकी, बजाते ढापली अपनी।

अलग हैं रास्‍ते उनके, नहीं हैं, एकसा मंजर।

तिरंगा एक है सबका, सियासी-माल, नहिं जपनी।

मजहबी होय नहीं झगड़े इसके वास्‍ते कोई।

न छेड़ो उन विवादों को, जिनसे मानवी रोई।

सभी का वास्‍ता इससे, सभी को प्राण-प्‍यारा है।

विजय हो इस तिरंगे की, बोलो सभी मिल कोई।।

मृदु-मनुहारों साथ, चांद के गीत सुनादो।

लोरी-भरत सुहाग, मेरा भारत लौटा दो।।

मेरा भारत लौटा दो-

असाढ़ी धरती की वह पुलक, ढुलक के साथ-कामिनी हुलस।

आम की डालिन-झूला भीर, पपीहा-पीउ-पीउ, बे-पीर।

कोयली गीतों का अनुराग, मेरे आंगन में लादो।।

घटाऐं भादौं की, घनघोर, मल्‍हारों का चहुदिसि में शोर।

कृषक के प्‍यारे-अल्‍हड़ गीत बरसती जिसमें गहरी प्रीत।

अश्‍वनी प्‍यारी सी बह धूप, मेरी अबनी फैला दो।।

मेरा भारत लौटा दो।।

जुन्‍हैया कार्तिक नाचत द्वारा, दिवाली सा, घर घर त्‍यौहार।

अगहन का, विमल चांदनी-चांद पूष के जाड़ों का संवाद।

माघ के मदनोत्‍सव का राग, धरनि-अंबर में ला दो।।

मेरा भारत लौटा दो।।

फाल्‍गुन रंगा-रंगी दौर कृष्‍ण-राधा होरी शिरमौर।

चैत की फसलैं अरू खलिहान, कृषक के जीवन के अनुदान।

अनाजों से भरते भण्‍डार, स्‍वर्ग-सा देश बना दो।।

मेरा भारत लौटा दो।।

मनैं जहां बैशाखी त्‍यौहार, महकते महुआ-आम बहार।

ज्‍येष्‍ठ की तपती न्‍यारी धूप, लगैं ज्‍यौं मन्दिर, बनते कूप-

अनूठा बारह मासी प्‍यार, अरे मनमस्‍त बुला दो।।

मेरा भारत लौटा दो।।

‘’कबीर’’

तुमको नमन हजार-

ओ कबीर। आओ नाविक बन, डगमग नैया धार।

साखी, शब्‍द, रमैनी दाता, तुमको नमन हजार।।

आज धरा भारत की तुमको, पुन: याद करती है।

साम्‍प्रदाय-दंगों से त्रासित, भारत की धरती है।

आकर थाम लेउ नइया को, चलती विषम बयार।।

भटक गए सब सही राह से, मच रही खींचातानी।

सबको याद आ रही रह-रह, एकहि तुम्‍हारी वाणी।

सच्‍चाई के अग्रदूत तुम, करलो यह उपकार।।

आक्रान्‍ता बन नौंच रहे हैं, भारत मां की काया।

सभी तरफ से झांख रही है, भूत पिशाची माया।

आकर पुन: संभालो जनमत, मेरी यही गुहार।।

तुमसे साधक और पुजारी, कोऊ यहां पर नइयां।

डूब रहा है भारत जनमत, पकरि उबारो बहियां।

आप सारिखे आप अकेले, देखे नयन पसार।।

अक्‍खड़ वक्‍ता नहीं यहां कोऊ, ठकुर खोहाती सारे।

अंधड़ मेला नाव चल रही, विन पतवारी प्‍यारे।

नहीं दिखा मनमस्‍त यहां कोऊ, जीवन लगता भार।।

गूंज रही यह वाणी है-

भारत मां की अमर धरा पर, गूंज रही वो कुर्बानी ।

भगत‍ सिंह की अमिट शहादत, जन-जन की है कल्याणी ।

धन्‍य–धन्‍य पंजाब अवनि को, लायलपुर, गांव-बंगा है।

पांच अक्‍टूबर उन्‍नीस-सौ सात में, जन्‍म लिया दिन चंगा है।

ब्रिटिश शासकों का शासन था, चहुदिसो मे दंगा है।

दमन राष्‍ट्रीय आन्‍दोलनहित नांच नचाते नंगा है।

भारत की हर गली-कूंच में थी गोली ही सन्‍नानी।।

पिता किशन सिंह, दोनों चाचा, स्‍वर्ण, अजीत विवेकी थे।

नए समय के, नव पीढ़ी के न्‍याय, नीति-संग नेकी थे।

आर्य समाजी बाबा अर्जुन, भारत मां अभिषेकी थे।

इसी पाठशाला में पढ़कर दृढ़ संकल्‍पी, टेकी थे।

बाबा के विवेक की गाथा, भरत भूमि पर है गानी।।

चाचा स्‍वर्ण सिंह का जीवन जेल यातना पीता था।

भारत मां की आजादी हित, कष्‍टों में ही बीता था।

अभी उम्र कुल तेईस की थी, पढ़ता कर्मन गीता था।

न‍हीं तोड़ पाया जंजीरें, फिर भी जीवन जीता था।

अंति‍म आशा लिए चल बसा, जेल यातना थी कहानी।।

जीत पा गए अजीत चाचा, जलावतन का दण्‍ड सहा।

पर हिम्‍मत नहीं हारे विल्‍कुल, जो कहना था, वही कहा।

वतन हमारा, हमें सौंप दो, स्‍वदेश लौटो बहुत सहा।

आजादी के दिन ही अपने प्राण त्‍यागते हंसत रहा।

चला गया आजाद हो पक्षी, आजादी की थी वाणी।।

भगतसिंह इकलौते पुत्‍तर, पिता बहुत समुझाया था।

दादी मां ने शादी करने भलीभांति ललचाया था।

लिखकर पत्र भगत सिंह ने तब, पिता पास पहुंचाया था।

राष्‍ट्र साधना का अपना प्रण, क्रान्ति अलख जगाया था।

ज्‍योति जलाई ऐसी भारत, अब तक नहीं बुझानी।।

निर्मम हत्‍या लाला जी की, क्रूरता से कर डाली थी।

मदमाते अंग्रेज घूमते, सभी हुकूमत काली थी।

तेरह अप्रैल उन्‍नीस सौ उन्‍नीस, अमृतसर भू लाली थी।

जलियों वाला बाग जहां भू नर संहारौं हाली थी।

चन्‍द्रशेखर आजाद शूलियां है, अल्‍फ्रेड पार्क कहानी।।

सारी घटनाओं ने मिलकर, भगत सिंह पर वार किया।

रूकान रोंके, कूंद समर में, आजादी को प्‍यार किया।

करतार सिंह सराभा फांसी ने हृदय बेजार किया।

आजादी दीवाने आजाद को हृदय में धार लिया।

कई शहीदों से प्रेरणा ले, राह निराली जानी।।

अत्‍याचार असहनीय झेले, भारत मां को प्‍यार किया।

अलग पथिक बन, अपने पथ के जीवन को न्‍यौछार किया।

पा साथी सुखदेव, राजगुरू, जीवन का उद्धार किया।

लाहिड़ी रोशन, असफाक उल्‍ला-संग अपने को तेयार किया।

खेल-खेल ज्‍यौं जिया जेल को, कीनी अपनी मन-मानी।।

इरविन समझौता गांधी का, नहीं कभी स्‍वीकार किया।

कांकोरी का काण्‍ड, देश हित, अपना सुख उपहार किया।

साथ, सा‍थियों का नहिं छोड़ा मेल-जोल, व्‍यवहार किया।

मांग स्‍वतंत्रता की ही करते, फिरंगिन को दुत्‍कार दिया।

यादों में तेईस मार्च जो सन इकतीस निभानी।।

समय शाम अरूसात बजे का, तेईस मार्च याद रहा।

सन इकतीस मिनट तेईस पर, हंसते-हंसते यही कहा।।

हम हैं वो जो डरे कभी नहीं, मौत ही गहना बना रहा।

हम हैं अमर भारती पुत्‍तर, गीत हमारा यही रहा।

ए तैरेगी बिजली ख्‍यालों में मुश्तेखाक यही फानी।।

गए कहीं नहीं, अमर हो गए, कण-कण में वे बोल रहे।

भारत-भू की मंद-गंध में, अमृत का रस घोल रहे।

वीर-जवानों की धरती पर, लिए मुक्‍तता डोल रहे।

गीत गूंजता उनका तन मन, यह मनमस्‍त रवानी।।

हैं कृतज्ञ भारत के जनमन तुम्‍हें भुला नहीं पाएंगे।

धरती से अम्‍बर तक सब मिल, गीत तुम्‍हारे गाएंगे।

क्रान्ति-मसीहा आजादी के, याद हमेशां आएंगे।

भार‍त-भूमि के युग अवतारी, नहीं भुलाए जाएंगे।

ऋणी रहेंगे सभी तुम्‍हारे, जीवन गीता है गानी।।