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मेरा भारत लौटा दो - 11 - अंतिम भाग

मेरा भारत लौटा दो 11

काव्‍य संकलन

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण

पूज्‍य पितृवरों के श्री चरणों में सादर

दो शब्‍द-

प्‍यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्‍द के सौन्‍दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्‍य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्‍नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्‍तुत कर, अपने आप को धन्‍य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’ डबरा

शीश घर---

निडर होगा वही, जो निःडर होयेगा-

शीशाघर में रहोगे, तो डर होयेगा।।

झोंपड़ी घर, किले, आज पत्‍थर गढ़े-

जहां पत्‍थर जमाना, वहां डर होयेगा।।

तुम्‍हीं ने किए ढेर पत्‍थर यहां।

पत्‍थरों में कभी, कोई चैन सोयेगा।।

गर बनाया है तुमने नशा घर इसे-

नशा बिन, नशा घर में को होयेगा।।

लगा है यहां, नशा पिए हैं सभी-

हाथ पत्‍थर जो होंगे तो क्‍या होयेगा।।

पत्‍थरों के शहर से रहो दूर ही-

डरोगे नहीं तो, न डर होयेगा।।

ऐसी मनमस्‍त दुनियां बनाले यहां-

वैसा काटेगा, जैसा यहां बोवेगा।।

निश्‍छल हंसी---

बहुत कुछ जो हुआ, अब यहां आइए।

एक निश्‍छल हंसी में ही, हंस जाइए।।

भलां हो, लड़ाई का, मंजर कठिन-

उसी बीच, नया कुछ, गुनगुनाइए।।

कुछ के चेहरे भला-लाले, काले बनैं।

प्रेम प्‍याले यहां पर पिला जाइए।।

जिंदगी तो यही, बासन्‍ती समां-

इसमें जीवन सुनहरा, मिला जाइए।

कई रंगों से भरे हैं, मुखौटे यहां-

एकता के रंगों में, रंगा जाइए।।।

आज मानव बने हो अगर तो यहां।

अपने जीवन को सार्थक बना जाइए।।

कर चलो काम नेकी के कुछ तो जरा-

मस्‍त मनमस्‍त सबको, बना जाइए।।

सिर्फ सीधी लकीरें नहीं जिंदगी--

घर हमारे हैं, ऐहसास का नाम है।

ये हमारे हैं, विश्‍वास का नाम है।।

चुप रहती नहीं, प्‍यास की जिंदगी-

आना, जाना, सुबह-शाम का नाम है।।

कैसे जोड़ों जुड़ा तन-वतन है यहां-

बिना जोड़ों के सब कुछ, बना नाम है।।

सिर्फ सीधी लकीरें, नहीं जिंदगी-

कई मोड़ों से मुड़ना, यही नाम है।।

ठौर उसको कहीं है, जो बेठौर है-

जोड़ करना, तुम्‍हारा, ही काम है।।

खार की कोड़, सिसकीं है कलियां यहां-

कोई सुनने ही वाला, नहीं नाम है।।

कैसी बेरूख हवाएं, वही हैं यहां-

छन्‍द– छलछन्‍द सब कुछ उन्‍हीं नाम है।।।

मां की ममता--

मां है ममतामयी- प्‍यार की लोरियां।

मां है समतामयी, जिंदगी डोरियां।।

जिंदगी जो बनी, मां की रंगत मृदुल-

प्‍यार पितु का पिलाती, सभी ठौरियां।।

जिंदगी ही बड़ा घर मां एक है।

नेह शीतल सुलातीं वर जोरिया।।

दृष्टि में जो सजी कोर, काजल थी मां-

स्‍वप्‍न-खंजन के अंजन सी थी झोरियां।।

महक चंदन सी गंधों का रस रूप मां।

उसके दुलारों प्‍यारों बंधी पोरियां।।

क्षमाशीला घनी, दीप बाती बनी-

भुलाती क्‍या मेरी अठखेलियां।।

कैसे-क्‍या कहूं और कितना कहूं-

मां सी कोई नहीं, मेरे दिल खोरियां।।

कुछ करना तुम्‍हें--

तुम हो कैसे कर्ण कैसा वातावरण।

चीर खिंचते यहां, रोज सीता हरण।।

क्‍यों सूनी हुई, आदमी की डगर-

गुनहगार करते हैं नित जागरण।।

कुछ आसपास है, कोई खास बात है-

भूंक चिडि़यां हुई, कैसे कॉपी धरणि।।

कितना डर हो गया-कहां सुकूं खो गया-

चातक कोयल की पी-पी न कूं-कूं करण।।

आदमी कुतर्कू-सुआ, उबासी मौसम हुआ।

कितना होता यहां, आचरण का क्षरण।।

मेरी सुन लीजिए, इसकी तलास कीजिए-

यूं तो हो जाएगा, इस धरा का अपहरण।।

ये बादल विपल्‍वी--

बगुले, कैसे स्‍वरों में, यहां गा रहे।

देखो सारस, यहां से कहां जा रहे।।

लगता तालाब कोई, यहां खो गया-

अथवा अनचाहे चाहे भू-चाल आ रहे।।

उसका मस्‍तक पसीने से क्‍यों तर-बतर।

मीत-पैरों के क्‍या क्‍या जलजले गा रहे।।

जुल्‍फें देखो नहीं, उधर देखो जरा-

वे भूंखे परिन्‍दे, क्‍या खा रहे ।।

डींग हांकी बहुत, कुछ भी कर ना सके-

जाल उलझे पखेरू किधर जा रहे।।।

आदमी क्‍या हुआ, पूंछती है समां-

किसकी सह पर सभी, खूं समर नहा रहे।।

राग बे-सुर हुआ, पांव बहके हैं क्‍यों-

कैसे-कैसे ये अंधड़ यहां आ रहे-

हल समस्‍या करें, आओ मिलकर सभी-

ये बादल विपल्‍वी, यहां छा रहे।।

घड़ों की दर्दशा--

पानी की कमी जब-जब, हमारे बीच आती हैं।

मानव दोष के मध्‍ये, घड़ों की जान जाती है।।

किता विपरीत है मंजर, प्रकृति जल सोखती रहती-

दोषी है कहां घट जन व्‍यर्थ पहिचान जाती हैं।।

झण्‍डे हाथ में लेकर, जमातें दौड़ते देखीं-

प्‍यासे भर रहे हम सब, सियासत मौन राती हैं।।

मानव सोचता क्‍यों ना, घड़ों ने क्‍या बिगाड़ा है।

विचारे शीत जल देते, यही तो उनकी थाथी है।।

किसी ने प्रश्‍न नहीं पूंछा, कला की दुर्दशा क्‍यों कर।

कितने दर्द ले रोती, कलाकारों की छाती है।।

घड़े जब टूट कर रोते-सियासत हंस रही होती-

व्‍यवस्‍था, जिंदगी और मौत के, गीतों नहाती है।।

पानी कही बना बंधक मिटते आ रहे घट-जन-

सियासत के नुमाइंदों की, कितनी बज्‍जुर छाती है।।

खेल रहे खेल यह कैसा, सियासत के ये बाजीगर-

नूरा-गुश्तियां जब जब धरा खूं में नहाती हैं।।

हवा में मत उड़ो इतने, धरा पर लौटकर आओ-

चमन में अमन रहने दो, यही मनमस्‍त पाती है।।

न्‍याय-नीति रोती----

भयी सियासत कैसी, उल्‍टी बदले सब व्‍यवहार।

रोज लड़ाई होती रहती, बंगला अथवा कार।।

मरियादाएं छोड़ जुगाली नयीं-नयीं देखो-

ऊटपटांगी बोल चाल संग, भाषा भी बेकार।।

आजादी क्‍या यही कि, जिसमें न्‍याय-नीति रोती-

बांट रहे अपनों को, अपने, मनमाने उपहार।।

जनता का हित छोड़ खींचते इक-दूजी टांगें-

बेढंगे नाटक के संग में, नग्न—नृत्‍य का कार्य।।

राजतंत्र हो गया, भला कहो, प्रजातंत्र प्‍यारे-

दोषी भए निर्दोष, मर्डरी पहने सुन्‍दर हार।।

नीचे से ऊपर तक देखो, सब हैं गल घौंटे-

कुम्‍भकर्ण, अरू कंश, प्रगट भए रावण से सरदार।।।

सूर्पणखाएं यहां देखलो। ऊंची नांक करें-

घर फोरू आ गयीं मंथरा, कैकयी नकली प्‍यार।।।

पर्यावरण जहां घट होगा, क्‍या होगा सोचो-

लगता है मनमस्‍त न कोई, जीवन ढोता भार।

न्‍याय का महल--

ऐसा क्‍या हो गया, जो ग्रहण ये लगा।

न्‍याय का ये महल, कांपता यहां लगा।।

चाल उल्‍टी चलोगे, ये सोचा नहीं-

आप आए यहां-क्‍या मुखौटा लगा।।

हमने समझी नहीं थी तुम्‍हारी शकल-

चांदनी रात में भी क्‍यों काली घटा।।

ये अमानत मिली तो, बदल क्‍यों गए-

छोड़ के चल पड़े हो, जो अपनी जगा।।

मोह ममता में इतने बंधे आज क्‍यों।

होता यहां पै नहीं कोई, किसी का सगा।।

ये जमीं भी खिसकती लगै आपसे-

भूल होगी, नहीं जो जगाए जगा।।

आसमां पे जो थूंका, उसी मुंह गिरा-

है सच जो सदां क्‍यों फलसफा सा लगा।।

इस तरह तो जनाजा उठे न्‍याय का-

होगा मनमस्‍त कैसा जो अभी ना जागा।।

बचपन जब मचलता है--

बहुत आनन्‍द मिलता है बचपन जब मचलता है।

चलो अपने घरै दादा, सुनत हृदय पिघलता है।।

कभी उंगली पकड़कर के, कभी कंधा चढ़त बोले-

कभी मम्‍मी की गोदों, में नहीं संभले संभलता है।।

बोली तोतली बोलत, चिढ़ाता जब कभी, बचपन-

बिना समझे, समझ हंसती, दुखों का ज्‍वार गलता है।।

समस्‍या तब बड़ी होती, अजूबा चीज जब मांगत-

चांद गोदी मेरी लाओ क्‍यों कर दूर चलता है।।

अनूठे प्रश्‍न कर देता, ये तारे क्‍यों चमकते हैं-

पहेली कठिन हो जाती, समझ पाराबार हिलता है।।

स्‍वर्ग यदि है कहीं तो, खेलता बचपन के खेलों में।

हठीले प्‍यार की डाली पकड़ खुद में मचलता है।।

सीधे चलन की कहते, तो उल्‍टे पांव चल जाता।

इन्‍हीं अठखेलियों में हर समय मनमस्‍त पलता है।।

कभी योगेन्‍द्र के संग में, माधुरी मचल जाती है-

काजल रीतिमा छाया, पकड़ उत्‍कर्ष चलता है।।

रोकर हंस रहा बचपन, कभी दादा की थप्‍पड़ पर-

दुलारों की अमिट छाया मे यौ ही बचपन चलता है।।

चिंतन के साए में—

ढोलपुर के ढोल भाजन, निपट त्‍यागीन रंगराजे।

सुनो नहिं राम-राजे की, दूर महावीर से भाजे।।

तुम्‍हारे परिश्रम-धन को, उजाड़-सांड सब चर रऐ।

कहो चटशाल कैसी थी, गए जहां पढ़न के काजे।।

गुरू क्‍या तुम्‍हीं जैसे थे, अल्‍हड़ आलसी घोंघे-

कुरान या बाइबिल होगी, जिसके साज से साजे।।

तुम्‍हारी शक्‍ल को गढ़ के, खुदा लौटा नहीं अब तक-

अकल से काठ के उल्‍लू, किसके बजाए से बाजे।।

बुढ़ापा आ रहा आगे, ये कोई काम नहिं आए-

पौंछे हाथ, खा करके, फेर देखैं न, दरवाजे।।

जो आएं काम जीवन में, जरा संतान को देखो-

किस तरह ताकते तुमको, मरे तुम पत्‍थरों काजे।।

पड़े होंगे जब खटिया में, पढ़ोगे कहानी अपनी-

खुदी की खुदी पर रोगे-खुदा के राग नहिं राजे।।

अगर अन्‍तस में सोचोगे, अभी-भी संभल सकते हो-

मिलो मनमस्‍त से मन से, बजेंगे ज्ञान के बाजे।।।

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