मेरा भारत लौटा दो - 2 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा भारत लौटा दो - 2

मेरा भारत लौटा दो 2

काव्‍य संकलन

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण

पूज्‍य पितृवरों के श्री चरणों में सादर

दो शब्‍द-

प्‍यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्‍द के सौन्‍दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्‍य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्‍नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्‍तुत कर, अपने आप को धन्‍य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’ डबरा

जिंदगी यदि है सफर-

जिंदगी यदि सफर तो, हौंसलों के साथ जी।

गर्दिशों में हारना नहिं, गमों के, हंस घूंट पी।।

दूरियों को पास लाने, कोशिशें लाखों करो।

ता-कयामत हौंसले हों, मस्तियों में सदां जी।।

तंग रस्‍ते हैं अदब की, राह के मेरे सफर-

साथ फिसलन से भरे, पर नहीं, मदहोश जी।।

सलामत तेरी कहानी और अफसाने रहे-

दिल जलों से दूर रह, भलां गम-पैबन्‍द सीं।।

वे सलामत रह सकें, जो भयकसी से दूर हो।

क्‍या कमी मनमस्‍त तोबा भी, सभी से आप की।।

गर नहीं, तो आज भी, बदलाव की गुजाइश है।

होयेगा तूं ही फरिश्‍ता, इस फलक को आज छू।।

वो कहानी कह

जिंदगी गर सच हकीकत फसाना, फूल के संग खार हों।

वो कहानी कह, जिसे, भूलना दुश्‍वार हो।।

इस तरह जीना, क्‍या जीना बह रहा है धार संग।

धार को काटो, तभी यह जिंदगी उपहार हो।।

क्‍या फरिश्‍ते बन सकोगे अर्थियों पर ताप कर।

कह नहीं सकते हकीकत फिर तो तुम बाजार हो।।

शाम ढलने को खड़ी तुमको नहीं है कुछ फिकर।

जो नहीं, जागे अभी-भी तो सभी के भार हो।।

सिर्फ अखबारी बनो ना, चन्‍द टुकड़ों के लिए।

कुछ करिश्‍मा शाज बनलो, बस नहीं दरबार हो।।

यदि नहीं बदले अभी तो बिकजाओगे बाजार में।

सूरतों पर जा कभी ना, सीरतों से प्‍यार हो।।

तूं सफर का, काविलाना सा, नया दस्‍तूर है।

जाग जा मनमस्‍त अब भी, नहिं सभी के खार हो।।

बहारें बे नहीं आतीं-

कितना बख्‍त है नाजुक, बहारैं बे नहीं आतीं।

धरा की गुम हुई रंगत, हवाएं गीत नहिं गातीं।।

तितलियां भी, सुमन से प्‍यार का इजहार नहीं करतीं।

सारस, हंस की पांते, नहिं संदेश कोई लाती।।

मिलो की चिमनियों से, जो धुआं उठता, लिए कालिख।

जिसके कारणों से जिंदगी की स्‍वांस थम जाती।।

दवा है कर्ज में जो आज भी, उस कृषक से पूंछो-

बेटी बयाह नहिं पाता, बारातें लौट तक जातीं।।

बैठकर ए.सी.ओं में जो सुनाते नियम के फतबे।

उन्‍हें ऐहसास नहिं, यारो तपती ध‍रनि कया गाती।।

क्‍या जानें भूंख की तड़फन जिनके महल में सब कुछ।

उनकी जिंदगी क्‍या जो फफूंदी रोटियां खातीं।।

जिनके खून गारे से, खड़ी हैं मंजिलें ऊंची-

वो बस्‍ती है किधर यारो, कभी क्‍या याद है आती।।

कहती आज भी सब कुछ, यहां की कब्र की बस्‍ती।

कभी मनमस्‍त नहीं सुनते, जिनकी बज्र की छाती।।

एक समंदर--

जाने और अनजाने में ही, जब भी झांखा अपने अंदर।

अनगिन लहरों को लेकर के, घुमड़ रहा वो एक समंदर।।

बंधा हुआ था वो भंवरों से, तट विहीन था-

फिर भी रिश्‍तों की लहरों सा, था वो अन्‍दर।।

गगन चढ़ा वो पक्षी देखो- ऊंचा-ऊंचा उड़ता जाता।

मोड़े नहीं पंख है उसने, ऐसे लगता कोई सिकंदर।।

सच में वही बहुत कुछ पाता, जो डूबे गहरा सागर में।

अथक, हौंसले उसे बनाते, पा जाता है वो ही मंजर।।

हार गया अपने में बोही, जिसने पीछे मुड़कर देखा-

लक्ष बनाकर जो भी चलता, उसने पाया भाग्‍य कलंदर।।

जो होगा, देखा जाएगा, जिसके मन हो, यही तमन्‍ना-

वो होगा साहस का पुतला, लांघे सागर डरे न कंदर।।

कैसा है संसार यहां का, क्‍या सोचे मनमस्‍त अभी भी-

संभल, खड़ा हो जीवन पथ पर, नहिं खाएगा ठोकर दर-दर।।

श्रम के साथी हो—

छूना मना गर फूल को,फिर मीड़ना कैसा,

चाहिए था जोड़ना,फिर तोड़ना कैसा।।

दूसरों के दर्द का ऐहसास नहिं जिनको,

दण्‍ड उनको है जरूरी, छोड़ना कैसा।।

धूप भी शर्मा रही है देख कर जिनको-

उस पसीने पर कहो, व्‍यवहार यह कैसा।।

क्‍या नहीं स्‍पन्‍द होता, दिल तुम्‍हारे में-

खा गए उसका नेवाला, प्‍यार यह कैसा।।

वे वही तुम सी वही फिर दूरियां कैसी।

आंख के आंसू छली उपहार यह कैसा।।

स्‍वप्‍न जो बोए, बिखंडित हो गए कैसे-

कार्य और कर्तव्‍य का, यह भेद फिर कैसा।।

छोड़ दो अठखेलियां, मनमस्‍त ये अपनी-

काट पाओगे वही तुम बाओगे जैसा।।

हुरियारे गीत--

बौरा गए, अधिकार का उन्‍याद पा कर।

भूल रहे खुद को, हुरियारे गीत, गा कर।।

गर, नहीं देखा यहां, इतिहास अपना-

क्‍या मिलेगा, थोथला संवाद पा कर।।

ये नहीं फरियाद सच में जागरण है-

संभलना तुमको पड़े अवसाद पा कर।।

सुनो तो, औलाद को जल्‍लाद मत कर-

पीढि़यां पछताएगी, ऐसा न कुछ कर।।

बीतता पल, फिर कभी लौटाता नहीं है।

सार्थक करलो इसे, बरबाद मत कर।।

लग रहा, तकरार ज्‍यादा ही बढ़ेगी।

दोस्‍ती के हाथ को, खूंखार मत कर।।

काम आएंगे नहीं, शकुनी के पांसे -

शान्ति की अवधारणा, महाभारत मत कर।।

क्‍यों रचो यहां तोड़-मोड़ो की कहानी-

मनमस्‍त जो, कुछ भी हुआ, अब और मत कर।।

बेटियां घटी तो—

कम हुई गर बेटियां, नि‍श्‍चय कहर होगा।

द्रोपदी की तरह से ही, फिर समर होगा।।

मानवी खूंखार होगी, संतुलन बिगड़े-

दानवों का फिर बसेरा, धरनि पर होगा।।

कूंख में उनको संभालो, भ्रूण को पालो-

नहीं तो मानव जहां में, मूड़ धर रोगा।।

भ्रूणहत्‍या नहीं होबै, आत्‍म हत्‍या भी।

बेटियां नहीं फिकैं खंदक, चैन तब होगा।।

गर नहीं सोचा अभी-भी संक्रमण फैले-

धरा से चल गगन तक हाल क्‍या होगा।।

कर रहे हो जब बगावत, बाग के माली।

खार बोयी क्‍यारियों का रूप क्‍या होगा।।

नहिं बचा पाए धरा की, आनि इज्‍जत तो।

समझ लो मनमस्‍त, युग का हाल क्‍या होगा।।