मेरा भारत लौटा दो - 4 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मेरा भारत लौटा दो - 4

मेरा भारत लौटा दो 4

काव्‍य संकलन

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

समर्पण

पूज्‍य पितृवरों के श्री चरणों में सादर

दो शब्‍द-

प्‍यारी मातृभूमि के दर्दों से आहत होकर, यह जनमानस पुन: शान्ति, सुयश और गौरव के उस युग-युगीन आनन्‍द के सौन्‍दर्य की अनुभूति की चाह में अपने खोए हुए अतीत को, पुन: याद करते हुए इस काव्‍य संकलन – ‘’मेरा भारत लौटा दो’’ के पन्‍नों को, आपके चिंतन झरोखों के सामने प्रस्‍तुत कर, अपने आप को धन्‍य मानने का अभिलाषी बनना चाहता है। सादर ।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’ डबरा

कलम की औकाद--

जमाना है बड़ा जालिम, संभलकर के यहां चलना।

बड़ी सूची सवालों की, उतर कोई नहिं मिलना।।

खुशियां हैं बहुत थोड़ी, गमों की राह है लम्‍बी।

जीना तो इन्‍हीं में है, काहे फेर यौं डरना।।

तुम्‍हीं हो गजल की बस्‍ती, हस्‍ती है गजल तेरी-

नया संबंध नहिं कोई, ऐसी कोई भी गल ना।।

चलो औकाद अपनी पर, रखो नहिं कलम को गिरवी-

दुधारी धार है इसकी, मुश्किल है बड़ी, बचना।।

इसके हुश्‍न को आंको, अजब सौगात देकर के-

जमाना उसी ने जीता, जिसका चलन है बढ़ना।।

अदम औकाद होना है, होना है नहीं पशुवत-

जमाना देखता राहैं, तेरा मौन है, छलना।।

जुबां को लफ्ज भी दे दो, सदां मनमस्‍त की अर्जी-

गजल को गजल रहने दो, इससे कोई भी छल ना।।

सहारा दो मुझे अब तो-

सहारा दो मुझे अबतो, सहारा का समय आया।

यहीं है छोर की राहैं, जिनको सभी ने गाया।।

चाहूं खोलना अब तो, तुम्‍हारी याद की परतें-

सिखाया चलन से चलना, देकर नेह की छाया।।

समझना है तुम्‍हें अब तो, हमारी उम्र की राहैं-

किसको क्‍या जरूरत है, कितना है चुका पाया।।

कितनी बार दोहरा कर, तुम्‍हें दी तोतली बोली-

तुम्‍हारे रूठ जाने पर, कैसे ही मना पाया।।

सौ-सौ थे बहाने, जब नहाने बोलती तुमको-

मेरी आज ये हालत-कोई तरस है आया।।

तुमको बड़ा करने में, कितने वर्ष थे बीते-

यादें भूल मत जाना तुम्‍हारी कौन है आया।।

मेरे प्‍यारे बुढ़ापे को, कभी मजबूर मत करना-

तुम्‍हें मनमस्‍त रखना है, मेरी लुढ़कती काया।।

औाकद--

अब चलो साथी चलें उस नए परदेश को।

न्‍याय की औकाद ओछी, छोड़ दो इस देश को।।

कब तलक सहना पड़े संताप यह-

सब सताने को खड़े हैं, शेष को।।

घोंसले बनना यहां अब बंद है-

आग देते नींड के परिवेष को।।

न्‍याय के मुंशिफ यहां बिकने लगे-

न्‍याय अब मिलना नहीं, इस केश को।।

मुंह दिखा, होता यहां इंसाफ है-

बोलते सच्‍चे यहां, लवलेश को।।

बर्ग की राहों चलें, जनतंत्र यहां-

कौन कह सकता यहां, जनतंत्र को।।

शेर को देते चुनौती स्‍यार भी-

छोड़ चल मनमस्‍त, ऐसे तंत्र को।।

वोट-नोट-जी.एस.टी.--

जी.एस.टी. पर हो रहीं चर्चा यहां।

और होती हीं रही हैं नोट की।।

देश के परिवेश की चिंता नहीं।

रोटियां ही सैंकते सब वोट की।।

कहीं पर आलू सड़े, कहीं टमाटर,

आज तो सड़ने लगी है प्‍याज भी।

घोषणाएं हैं समर्थन मूल्‍य की,

पोल खुल गई आज अंदर खोट की।।

देश की सीमाएं कितनी त्रस्‍त हैं।

होलियां खिल रहीं जहां खून की।।

शीश कट गए और शब की दुर्दशा।

हृदय को आहट हुई उस चोट की।।

घुमन्‍तू लोकतंत्र विदेशों घूमता।

जिंदगी की मौज मस्‍ती लेय जो।।

नित्‍य हो रहीं आत्‍म हत्‍याएं यहां,

शहीदों की, शहादत क्‍या नोट की।।

आम जनता, किस कदर, क्‍या भोगती-

एसिओं में बैठ दर्दों की कथा।

बलिदानियों का, क्‍या यही लोकतंत्र है।

मनमस्‍त आई बारी क्‍या रिमोट की।।

मेरा देश--

क्‍या हुआ है आज मेरे देश को।

समझना मुश्किल हुआ, परिवेश को।।

आंख नींकी उसी पर चश्‍मा चढ़ा-

किन्‍तु, फिर भा लख न पाता वेष को।।

हर तरफ ही, खूब चिल्‍ला-चौंट है-

किन्‍तु सुनपाता नहीं क्‍यों, केश को।।

नाक की, उस घ्राण को क्‍या हो गया-

सड़न की लेती नहीं क्‍यों ठेस को।।

आदमी भी दौड़ते और-भागते-

फिर कहैं क्‍यों हृदय पत्‍थर, देश को।।

हो गए, कोरे यहां संवाद भी-

लग गया लकवा क्‍या, चिंतन देश को।।

ऊंट सा मुंह उठा पश्चिम जा रहे।

सुन रहा नहिं कोई, जनादेश को।।

लग रहा, मनमस्‍त कुछ तो हो गया-

दौड़, अंधी दौड़ते सब शेष को।।

मजहब--

कई सौराब के भर कर, इनको क्‍यों दिए प्‍याले।

मेरे आल्‍लाह तूने क्‍यो यहां मजहब बना डाले।।

इतने बहुत सारे, क्‍यों बनाए आदमी तूं ने-

निकले अक्‍ल के उल्‍लू, दिल से बहुत ही काले।।

अपनी कौम में ही, बहुत सारी दूरियां कर दीं-

इतने बुन दए इनने, उलझे, उलझने जाले।।

न रहते चैन से खुद में, अखाड़े, गोड़ते प्रतिदिन।

गाढ़े खूब ही झण्‍डे, लेकर हाथ में भाले।।

चल रहा दौर अब भी है, विकट खूनी खराबी का-

संभालो तुम तभी संभले, पड़ रहे जान के लाले।।

मचा है, खूब ही, भारी, वितण्‍डा आज, मजहब का-

नहीं मनमस्‍त है धरती, हृदय में पड़े हैं छाले।।

कोरे बादल--

न ज्‍यादा और तरसाओ, घटाओ बरस तो जाओ।

उड़ाओ यों न अब इनको हवाओं तरस कुछ खाओ।।

इधर को देखती क्‍यों ना, धरती तरसती कब से-

कितनी मिन्‍नतें करतीं, जीवन दान दे जाओ।।

कृषक की आस है तुमसे, बीजों की रवानी हो।

असाढ़ी गंध कब आवै, पपीहा टेर हो जाओ।।

मयूरी किस अदा नांचे, अपने पंख फैलाकर-

उसकी आस पर बरसो, थोड़ा कुछ तरस खाओ।।

उल्‍लू कोटरों बैठे, कोयल आम की डाली-

कहीं नहीं बोलती झिल्‍ली, दादुर को तो टर्राओ।।

बहिना आस तो बांधो, सावन जा रहा सूखा।

सूनी आम की डाली, मल्‍हारै झूलनी गाओ।।

घुमड़ती पीर विरहिन की, बनो तुम ही सहारे अब-

बरस मनमस्‍त के अंगना, सभी की आस हो जाओ।।