स्वीकृति - 7 GAYATRI THAKUR द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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स्वीकृति - 7

स्वीकृति अध्याय 7


उस बड़े और घने वृक्ष की पतियों के बीच से अस्त होते सूरज की झिलमिलाती रोशनी उसके चेहरे पर गिर रहे थे. संध्या हो रही थी, परंतु शायद सूरज के इन झिलमिलाती किरणों का इस तरह से उसके चेहरे पर गिरना उसे गवारा नहीं हुआ. अतः वह झुंझलाते हुए अपने जेब से रुमाल को निकालता है और अपने चेहरे को उससे ढक कर वापस आंखें मूंदे हुए बेंच पर लेट जाता है .


शहर के बीच में स्थित इस पार्क के बेंच पर लेटा हुआ यह जो शख्स है- वह संदीप ही है .


आज कई दिनों से उसकी यही दिनचर्या बनी हुई है. वह रोज सुबह सुबह घर से ऑफिस के लिए निकलता और सारे दिन ऐसे ही भूखा प्यासा उस बेंच पर पड़ा रहता . वह जो कुछ थोड़ा बहुत घर से खा कर निकलता उसी के बल पर नौकरी की तलाश में यहां से वहां मारा मारा फिरता और जब उसके कदम थक जाते तो वह इसी बेंच पर आकर बेसुध पड़ा रहता था. आज उसकी नौकरी गए हुए पूरे 13 दिन हो गए थे. यानी दिल्ली आने के दूसरे दिन ही उसे नौकरी से निकाला जा चुका था. उसके जैसे और दो चार लड़के थे जिसे बिना किसी ठोस कारण के ही नौकरी से निकाला गया था.


कारण पूछने पर बस इतना सा जवाब कि वे लोग उसके कार्य से संतुष्ट नहीं है और कंपनी की अपनी मजबूरियां है जिसके कारण नौकरियों में कटौती की जा रही है.


संदीप रोज सुबह घर से निकल जाता था और नौकरी की तलाश में यहां-वहां भटकता रहता था और जब थक जाता तो इस बेंच पर आकर घंटों बेसुध पड़ा रहता था. उसकी हिम्मत नहीं होती थी कि वह सुष्मिता को फोन करें . और आखिर फोन पर उससे कहता भी क्या अगर कहीं वह कुछ पूछ बैठती तो उसे क्या बताता..नौकरी जाने की बात बता कर उसे दुखी करना नहीं चाहता था.


कहां तो वह उसे दुनिया की हर खुशीयां देना चाहता था परंतु अब उसकी इतनी औकात भी नहीं रही कि उसे दो जून की रोटी भी ढंग से खिला सके…


परंतु आज उसकी चिंता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी. उसके पास जितने भी जमा पैसे थे वे सभी अब खर्च हो चुके थे. उसे आने वाले कल की चिंता खाए जा रही थी. उसकी चिंता इस कदर बढ़ रही थी कि उसके सोचने समझने की शक्ति मानो क्षीण होती जा थी और एसे ही दूर्बल मन में एक विचार उठता है कि क्यों न वह किसी बहाने से सुष्मिता से उसकी सोने की चेन को माग ले और कुछ दिनों के लिए कही पर गिरवी रखकर उसके बदले में पैसे उठा ले और बाद में जब उसके पास पैसे आएंगे तो वह उसे छुड़वा सकता है ....लेकिन अगले ही पल उसे अपने ऊपर शर्मिंदगी महसूस होती है ...वह ऐसा सोच भी कैसे सकता है. लानत है उस पर यह कैसा निम्न विचार उसके मन में आया है..वह ऐसा कुछ तो सपने में भी नहीं कर सकता...वह मन ही मन खुद को धिक्कारने लगता है. कहां तो वह दुनिया की हर खुशियां उसके दामन में भर देना चाहता था और आज उसे ही छलने की सोच रहा है.. उसे अपनी विवशता पर बहुत दुख हो रहा था. उसकी बेरोजगारी ने उसकी जेब पर ही नहीं उसके प्यार पर भी अपना असर छोड़ना शुरू कर दिया था. नहीं चाहते हुए भी उसे प्रतिदिन सुष्मिता से झूठ बोलना पड़ता था. वह अपने ही नजरों में गिरता जा रहा था .


जिस तरह की जिंदगी उसने सुष्मिता को दे रखी थी उसके पश्चाताप की आग में वह रोज जलता था. परंतु करता भी क्या अपनी हालात किसको सुनाता किसके कंधे पर सिर रखता. उसके लिए तो जैसे एक-एक दिन अब कठिन हुआ जा रहा था. वहां उस बेंच पर लेटे लेटे जहां एक तरफ आने वाले कल को लेकर चिंता मग्न था वही आज अचानक अनायास ही उसके मानस पटल पर अतीत के कुछ पन्ने भी खुद ब खुद पलटने लगे थे. जब इंसान का मन भविष्य की चिंताओं से थक जाता है तो अतीत की ओर अकारण ही दौड़ने लगता है...

विनीता यह सोच कर श्रीकांत के कमरे की ओर चल देती है कि क्यों ना श्रीकांत को भी एक बार मीनाक्षी के यहां आने की सूचना दे दी जाए. शायद वह इस खबर को पाकर खुश हो जाएगा. आखिर है तो वह उसकी दोस्त ही. परंतु फिर वह सोचती है कि..नहीं..,इसकी सूचना उसे पहले से नहीं दी जाए..वह तो एकदम से मीनाक्षी को उसके सामने लाकर खड़ा कर देगी फिर देखेगी कब तक वह एकांतवास मे रहता है ...बहुत हो गया उसका सब से कटकर अलग-थलग रहना....


परंतु फिर वह किसी और ही विचारों में खोई हुई सी अचानक ही श्रीकांत के कमरे का दरवाजा खटखटाने लगती है. उसे लगा जैसे दरवाजा अंदर से बंद है. परंतु उसके हल्के से छूने पर ही दरवाजा खुल जाता है. अंदर जाने पर वह कमरे को खाली पाती है. श्रीकांत कमरे में नहीं था. उसे बहुत आश्चर्य होता है कि वह इस वक्त बिना किसी को कुछ बताएं कहां जा सकता है. तभी उसे कमरे से लगे बालकनी में धुएँ की एक लकीर सी उठती हुयी नजर आती है. बालकनी में अंधेरा पसरा हुआ था कमरे की खिड़की से जो हल्की सी रोशनी बाहर की ओर आ रही थी. उसी हल्के से प्रकाश में उसे श्रीकांत का चेहरा दिखाई पड़ता है. श्रीकांत बाहर रखी उस कुर्सी पर बैठा सिगरेट पी रहा था. उसे देखकर विनीता चौक जाती हैं और हैरान और परेशान उससे पूछ बैठती है, "यह शौक तुमने कबसे पाल लिया ...जहां तक मुझे याद है तुम्हें तो ऐसी कोई बुरी आदत नहीं थी ."


श्रीकांत ने कभी भी शराब या सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाया था . विदेश में रहने के बावजूद भी उसमें इस तरह की कोई भी बुरी आदत कभी भी लग नहीं सकी थी और अब वह अचानक से सिगरेट पीने लगा था.


विनीता को अचानक अपने सामने खड़ा पा कर श्रीकांत हड़बड़ा कर उठ खड़ा होता है और अधजले से उस सिगरेट को बुझाने की कोशिश करने लगता है.


विनीता नाराज होती हुई पूछती है, " तुमने सिगरेट पीना कब से शुरू कर दिया...घर में यह बात किसी को पता चलेगी तो मालूम है क्या होगा.. "

"क्या होगा भाभी!" श्रीकांत ने अनमने ढंग से जवाब दिया, “क्या फर्क पड़ता है.. "

"फर्क कैसे नहीं पड़ता... तुम्हें और किसी की नहीं कम से कम मां बाबूजी का तो ख्याल होगा..मां बाबूजी को इस बात से कितनी ठेस पहुंचेगी..इसका अंदाजा भी है तुम्हें.. '' विनीता ने नाराजगी दिखाते हुए कहा..

परंतु जवाब में श्रीकांत चुपचाप विनीता को देख रहा था.

विनीता आगे बढ़कर बालकोनी की लाइट ऑन कर देती है और फिर शिकायत भरे अन्दाज में श्रीकांत की ओर देखती हुई कहती है, ''तुमने क्या हाल बना लिया है अपना ...अरे , जिसे जाना था वह चली गई तुम कब तक उसके गम में खुद को सजा देते रहोगे तुम्हारे इस हाल से उसे तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ...एक फोन तक तो उसने नहीं किया माफी मांगना तो दूर की बात है ..तुम्हें इन सब से बाहर निकलना ही होगा, जिंदगी कभी किसी के लिए रुकती नहीं ..तुम्हें सब कुछ भुला कर अब आगे बढ़ना चाहिए..एक नई शुरुआत करनी चाहिए ..,जिंदगी किसी एक के चले जाने से खत्म नहीं होती. तुम सभी कुछ एक बुरा सपना समझकर भूल क्यों नहीं जाते..! इस तरह तो तुम अपना ही नुकसान कर रहे हो.." विनीता बोलती जा रही थी और श्रीकांत चुपचाप अपनी भाभी की बातों को सुने जा रहा था उसने उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया बस इतना कहा ,"किसी को भूल जाना इतना आसान होता है क्या भाभी ..! "


और इतना कहते-कहते उसकी आंखें सजल हो जाती हैं और वह अपना चेहरा घुमा कर एक टक सुने आकाश की ओर देखने लगता है. मानो जैसे आकाश का सारा सूनापन उसके हृदय में उतर आया हो ..शाम हो चुकी थी और अंधेरा चारों ओर फैला हुआ था.


विनीता कमरे से बाहर की ओर निकलती हुई श्रीकांत से बोलती है, "मैं तो तुम्हें यह बताने आई थी कि आज मीनाक्षी आ रही है रमन उसे लेने स्टेशन गया है .."परंतु विनीता के यह शब्द जैसे श्रीकांत के कानों तक पहुंच ही न पाए हो वह वैसे ही खड़ा आकाश की ओर देखे जा रहा था.


विनीता श्रीकांत के कमरे से निकलकर सीधे किचन में आती है और रात के खाने की तैयारी में जुट जाती है परंतु उसका मन श्रीकांत की इस हालात पर चिंता ग्रस्त था.


अतीत के वो पन्ने चलचित्र की भाति उसके आखों में तैरने लगे थे.

संदीप को याद आता है कि कैसे वह अपने पिता के घर को छोड़कर अपने बलबूते पर अपनी पढ़ाई की थी . एक ही शहर में रहते हुए भी पिछले कई वर्षों से वह अपने पिता से मिलना तो दूर बातें तक नहीं की थी . हां , वह आखरी दिन था जब वह अपने पिता से अपनी मां के ऑपरेशन के लिए मदद मांगी थी, उन लोगों के आगे हाथ फैलाया था...परंतु मदद तो दूर उन लोगों ने उसकी मां का हाल तक नहीं पूछा था और फिर अपनी मां की मृत्यु के बाद उसने कसम खा ली थी कि अब जिंदगी में चाहे जो कुछ भी हो वह वापस मुड़कर नहीं देखेगा..

उसके मां-बाप का तलाक वर्षों पहले हुआ था और उसकी मां ने ही उसकी परवरिश की थी हालांकि मां के साथ रहने का चुनाव उसने स्वयं किया था .

कोर्ट ने जब उससे उसकी इच्छा जाननी चाही थी तो उसने अपनी मां के साथ रहना पसंद किया था.

उसने अपने पिता के साथ रहने से मना कर दिया था ..

उसे याद आता है कि कैसे वह अपने 12वीं की परीक्षा में अव्वल आने की खबर अपनी मां को देने भागा भागा घर पहुंचा था तो पड़ोस की आंटी ने उसे घर की चाबी पकड़ाते हुए उसे बताया था कि उसकी मां को किसी अस्पताल में एडमिट किया गया है..एक दुर्घटना में उन्हें गंभीर चोटें आई हैं. उसे जल्द से जल्द कुछ पैसों का इंतजाम करना होगा. परंतु उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे और कहां से इतनी जल्दी इतने पैसों का इंतजाम करें और तब वह भागता हुआ अपने पिता के घर पहुंचा था. परंतु वहां उसे पैसे तो क्या उसके पिता से मिलने तक नहीं दिया गया और रमा ने तो उसके मुंह पर ही दरवाजा बंद करते हुए कहा था ," हमने भीखमंगो के लिए दरवाजे नहीं खोल रखे है ...."और साथ ही उससे यहां तक कहा गया कि दोबारा वह यहां आने की हिम्मत ना दिखाएं उसके पिता उनलोगों का चेहरा तक नहीं देखना चाहते . .

रमा संदीप की सौतेली मां है संदीप उसे रमा कह कर ही बुलाता था.

और फिर उस दिन जब वह वहां से भागता हुआ अस्पताल पहुंचा था तो डॉक्टरों ने उसे बताया कि उसने आने में बहुत देर कर दी उसकी मां उसे अब हमेशा के लिए छोड़ कर जा चुकी है ..कितना रोया था वह उस दिन..

उस दिन से लेकर आज तक वह अपनी जिंदगी के बोझ को अकेला ही ढोता चला आ रहा था.

जिंदगी के कठिन से कठिन पलों को उसने अकेले ही काटा हर एक मुसीबत का सामना अपने बलबूते पर किया बहुत मजबूरी में भी उसने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए और आज वह इस कदर खुद को बेबस और लाचार महसूस कर रहा है ...बात सिर्फ उसकी होती तो उसे परवाह नहीं थी.. चिंता तो उसे सुष्मिता की हो रही थी उसे तो इन सबों की आदत नहीं है. उसकी जिंदगी तो बेहद सुख सुविधाओं में कटी है ..."कैसे ...! आखिर किस तरह..,वह उसके साथ ऐसी हालात में रह पाएगी.." अंदर ही अंदर वह इतना सभी कुछ सोचता हुआ फिक्र एवं चिंता में घुला जा रहा था .


सुष्मिता को उसके पिता एवं सौतेली मां के विषय में कुछ भी पता नहीं था. संदीप ने उनके विषय में उसे बताना जरूरी नहीं समझा था..और बताता भी क्या जब उसने स्वयं उन लोगो से कोई संबंध नहीं रखा था.

सुष्मिता को तो बस इतना पता था कि संदीप एक अनाथ है जिसकी परवरिश उसके किसी मुंहबोले मामा ने किया है.

संदीप वहां बेंच पर लेटे हुए इतना सभी कुछ सोचे जा रहा था कि उसके कानों में कुछ आवाजें सुनाई पड़ती है शायद कोई किसी से कह रहा था ,"यह देखो आज की यह जनरेशन..! ना तो इन्हें किसी बात की चिंता है ना ही फिक्र..मजे में सोए पड़े हैं .."

तभी दूसरा व्यक्ति .."अरे यह भी कोई सोने की जगह है..., यदि सोना ही है तो घर जाएं ..,

यह जगह सोने के लिए थोड़ी ही है.., हम बुजुर्गों को बैठने तक की जगह नहीं और यह सोया पड़ा है..!

पहला व्यक्ति, " अरे जरूर घर से लड़ झगड़ कर आया होगा . .

वे दोनों ही अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे जो शाम के समय इस पार्क में सैर करने के लिए आए थे और शायद उस बेंच पर थोड़ी देर बैठकर अपनी थकान मिटाना चाहते थे..,परंतु संदीप को वहां इस तरह लेटा हुआ देखकर बेमतलब के अनुमान लगाने लग पड़े थे .


उनकी बातें संदीप के कानों में पड़ती है तो वह चिढ सा जाता है.

और बड़े ही गुस्से में वह अपने चेहरे से रूमाल हटाता है और उठ कर बैठ जाता है..


तभी उन दोनों में से एक बोल पड़ता है ..,"अरे इतनी ही नींद आ रही है तो फिर घर जाकर आराम से सो ना..यह बेंच बैठने के लिए है तुम्हारे सोने के लिए नहीं.., "

संदीप क्रोधपूर्वक उठ खड़ा होता है तो अचानक उसके पैर लड़खड़ा से जाते है .

तभी दूसरा बोल पड़ता है ,"लगता है , इसने नशा कर रखा है . "

इतना सुनते ही संदीप को बहुत गुस्सा आता है. उसका जी करता है कि उन्हें धक्के मार कर वहां गिरा दे, उन पर चीखे चिल्लाए उन्हें खूब बुरा भला कहें ...

वैसे भी वह जब भी किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ति को देखता तो उसके मन में इतना क्रोध इतनी घृणा ना जाने कहां से उत्पन्न हो जाती .

वह संदीप पहले वाला संदीप नहीं रह जाता एक अलग ही तरह का संदीप बन जाता था .

उसे ऐसा लगता जैसे उसके पिता उसके सामने खड़े हो और वह अपना सारा क्रोध सारी नफ़रत उन पर उतार लेना चाहता हो..


दिल्ली आते वक्त ट्रेन में अधेड़ उम्र के उस कुली पर भी वह इसी कारण इतना भड़क पड़ा था.

परंतु आज तो उसका मन दुख के अलग ही सागर में गोते लगा रहा था . आज उसका मन ऐसा कुछ भी करने कहने को राजी नहीं हुआ.

वह चुप चाप बिना कुछ कहें वहां से बाहर की ओर निकल जाता है.

बाहर आकर सड़क के किनारे खड़ा हो कर वह किसी ऑटो रिक्शा की प्रतीक्षा करने लगता है. तभी कोई उसे पीछे से आवाज लगाता है तो वह पलट कर देखता है.


क्रमशः


गायत्री ठाकुर