UJALE KI OR --SANSMARAN books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर---संस्मरण

उजाले की ओर---संस्मरण

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स्नेही मित्रों !

सस्नेह नमस्कार

जीवन कहानियों से भरा पड़ा है --नहीं ,केवल मेरा ही नहीं आपका भी --यानि सबका !

उस दिन की बात है --अरे हाँ, ,आपको कैसे पता भला किस दिन की ?

मैं बताती हूँ न ,ध्यान से सुनना !

कॉलेज में पढ़ाने वाली अम्मा की कितनी सारी मित्र थीं ,अम्मा को सब खूब स्नेह करतीं |

कारण था अम्मा का सरल ,सीधा होना | उनके पास जो कुछ भी हो ,पहले सबका है ,बाद में उनका |

उनकी सहेलियाँ जहाँ उनको प्यार करतीं ,वहीं उनसे दुखी भी हो जातीं |

अम्मा का नाम था दयावती शास्त्री ,प्यार से उन्हे सब दिया-बत्ती कहते |

उत्तर-प्रदेश में उस समय अध्यापिकाओं को मैडम कोई नहीं कहता था ,स्कूल-कॉलेज में सब बहन जी व मास्साब होते ,बाद में सर होने लगे थे ...

हम शैतानों के शैतान ! मुश्किल ये थी कि छोटे से शहर में हमारे परिवार को सब जानते यानि शैतानी करने के बाद पकड़े जाते जो हम क्या कोई नहीं चाहता |

कहते भी हैं न --आप तब तक फन्ने -खाँ हैं जब तक कोई शरारत करते हुए पकड़े न जाएँ ,पकड़े गए कि सिट्टी-पिट्टी गुम ---!!

और अपनी तो अधिकतर गुम ही रहती थी ,क्योंकि अम्मा से नहीं तो अम्मा की सहेलियों से तो हम पकड़े ही जाते |

एक इंटर -कॉलेज था --आर्य कन्या इंटर कॉलेज ,जिसमें अम्मा संस्कृत की अध्यापिका थीं |

दिल्ली से पढ़ने के बाद हमें भी उसी कॉलेज में दसवीं में प्रवेश लेना पड़ा जहाँ अम्मा पढ़ातीं |

दसवीं में पढ़ती थी ,शरारतों में अव्वल !

वो दिन अलग ही थे ,टीचर की बेटी ! वो भी दिल्ली के पब्लिक स्कूल से आई हुई ,फर्राटेदार अँग्रेज़ी बोलती तो लड़कियाँ टुकर -टुकर मुँह ताकतीं |

इतनी सीधी माँ की इतनी तेज़ बिटिया जो ऊपर से कितनी मासूम और भोली !

अब अंदर किसीको क्या पता ?

जो कहती सब प्यार से मान लेते | और सब तो बढ़िया ही था ,लड़कियाँ खूब दावत खिलातीं |हम मौज उड़ाते ! अम्मा को कानोकान खबर भी न पड़ती |

पकड़े तो तब गए जब खूब दावतें उड़ाने के बाद सामने एक बड़ा सवाल आया |

"दिया-बत्ती बहन जी संस्कृत के पेपर सैट करती होंगी ,तुम्हें तो पता ही होगा --"किसी ऐसी ही खिलाने-पिलाने वाली दोस्त ने एक दिन बड़ी मासूमियत से पूछा --"

"करती होंगी ,मुझे क्या पता ---"हमने कंधे उचकाए |

"वैसे तुमने मेरी मम्मी को दिया बत्ती बहन जी क्यों कहा "हम उखड़ गए |

"सभी तो कहते हैं ,हमने कहा तो क्या गुनाह कर दिया ?" उनमें से एक तेज़ तर्रार लड़की ने कहा |

"सभी का क्या मतलब ?उनकी फ्रैंड्स कहती हैं ---तुम उनकी फ्रैंड्स हो या स्टूडेंट्स ?"

"तो क्या हो गया ,हमने कह दिया तो --?"उनमें से एक झगड़ालू लड़की हमारे पीछे ही पड़ गई ---"

"मैं यह बात सबको बताऊंगी --स्टाफ़-रूम में जाकर ---बड़ी इनसल्ट लगी जी --"

"तो चलो ,मैं भी बताऊंगी कि हम तुम्हारे लिए कितना कुछ लेकर आते हैं ,तुम आराम से डकार जाती हो ---"

"कितनी बद्तमीज़ हो तुम,मैं क्या अकेले खाती थी?" इतना दुख हुआ व शरम आई ,हम तो सोचते थे वे लोग हमसे इंप्रेस होकर हमें ट्रीट देती हैं |

बहुत दुख हुआ ,मन में सोचा कि हम उनकी चीज़ों पर क्यों मस्ती करते रहे ?क्या हमें घर पर कोई कमी थी?

"हमने तो सोचा था ,तुम्हारी भी संस्कृत कमज़ोर है ,तुम अपने लिए पेपर चुरा लोगी तो हमारे भी काम आ जाएँगे | आखिर तुम्हें भी तो कुछ करना पड़ेगा ,संस्कृत तो तुम्हारी भी समझ में कहाँ आती है?"

हाय ! तो इसलिए हमसे दोस्ती की थी और हमें खिलाया -पिलाया जा रहा था !

अब तो अम्मा से बताए बिना न रहा गया |

अम्मा ने कहा कि "मैंने पहले ही तुम्हें समझाया था कि किसी से बेकार की दोस्ती मत रखना ,तुम्हें क्या खाना था ,मुझसे क्यों नहीं कहा?"

"मुझे क्या पता था अम्मा कि दोस्ती में ऐसी बात होती है | जब वो आपको इनसल्ट करने लगीं तब मेरा माथा ठनका --"

ऐसे थे हमारे ज़माने ! कितने बड़े स्कूल में पढ़कर लौटने पर भी हमारी समझ में नहीं आया था कि ऐसा कुछ भी हो सकता था !

तब पूरे स्टाफ़ के सामने बात हुई और निष्कर्ष यह निकला कि हम जैसे भौंदू सब जगह मिल जाते हैं !

उन लड़कियों को बुलाया गया ,समझाया गया और उस बात पर विचार करने को भी कहा गया जिसके लिए हमें पटाया जा रहा था |

वैसे कॉलेज का नियम था कि जिस स्टाफ़ की बच्ची स्कूल में थी ,उस फ़ैकल्टी को पेपर बनाने के लिए दिए ही नहीं जाते थे |

हम तो इस बात से भी वाकिफ़ नहीं थे |

बहुत सारी बातें सीखा दीं ,इस घटना ने हमें |

बाद में उन लड़कियों ने अपनी गलती भी मानी और वे हमारी दोस्त भी बन गईं |

लेकिन एक बार तो हम फँस ही गए थे |

अगली बार किसी दूसरे स्मरण के साथ ---

स्नेह

आपकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती

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