स्थानीय बोली का विकास Anand M Mishra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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स्थानीय बोली का विकास

बाजारवाद ने स्थानीय भाषा को करीब-करीब समाप्त कर दिया है। एक बालक जन्म के बाद अपनी माँ से भाषा सीखता था। घर के वातवरण तथा आसपास के वातावरण से प्रभावित होकर बच्चा अपनी मातृभाषा सीख लेता था। यह प्रक्रिया इतनी धीमी होती थी कि किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। बच्चा अपनी मातृभाषा में धाराप्रवाह बोलने की महारत हासिल कर लेता था। धीरे-धीरे समय बदला। बाजारवाद हावी हुआ। भूमंडलीकरण तथा वैश्वीकरण की गति तेज हुई। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा मजबूत हुई। रोजी-रोटी के चक्कर में लोगों का अपने स्थान से पलायन प्रारंभ हुआ। इसी में स्थानीय बोली का ह्रास होने लगा। एक जगह पर यदि कार्य करने के लिए दूसरे जगह से अन्य भाषा बोलनेवाले आयेंगे तो निश्चित ही वहां की भाषा प्रभावित होगी। इसमें मुख्य भाषा तो बनी रहती है लेकिन स्थानीय भाषा की स्थिति दयनीय हो जाती है। प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है। जब बोलियों के व्याकरण का मानकीकरण हो जाता है और उस बोली के बोलने या लिखने वाले इसका ठीक से अनुकरण करते हुए व्यवहार करते हैं तथा वह बोली भावाभ्यक्ति में इतनी सक्षम हो जाती है कि लिखित साहित्य का रूप धारण कर सके तो उसे भाषा का स्तर प्राप्त हो जाता है। किसी बोली का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि समाजिक व्यवहार और शिक्षा व साहित्य में उसका क्या महत्व है। अनेक बोलियाँ मिलकर किसी एक भाषा को समृद्ध करती हैं। इसी प्रकार एक समृद्ध भाषा अपनी बोलियों को समृद्ध करती है। अतः कहा जा सकता है कि भाषा व बोलियाँ परस्पर एक दूसरे को समृद्ध करते हैं। किस प्रकार बड़ों को सम्मान देना है? किस प्रकार की बोली से सम्मान देना है- इतनी-सी बात भी बच्चे नहीं समझ पा रहे हैं। बोली मुख्य है – इसी से सीखने की कला विकसित होती है। इसकी अनदेखी कर हम विकास नहीं कर सकते। बच्चे की बात तो चलिए, एक हद तक ठीक है। लेकिन विवाह आदि कर बाहर से जो बहुएं आती हैं – वे भी वहां की संस्कृति में रच-बस नहीं जाती हैं। वे भी वहां की स्थानीय बोली को विकसित नहीं कर सकती हैं। या उनकी रूचि उस स्थानीय बोली को बोलने में नहीं रहती है। आजकल की बहुएं या तो फर्राटेदार अंग्रेजी या हिंदी बोलती हैं। स्थानीय बोली बोलने में उनके इज्जत जाने का डर रहता है। उनके पति भी आजकल के समय के अनुसार दबाव नहीं बनाते हैं कि स्थानीय बोली को बढ़ावा दिया जाए। अंग्रेजी माध्यमों के विद्यालय ने रही-सही कसर पूरी कर दी है। बच्चा किताबी ज्ञान के जाल में उलझता चला जाता है – शिक्षक, विद्यालय, मित्र आदि के चक्कर में फंसता है तथा अपनी बोली को भूल जाता है। एक अनुमान के अनुसार इस शताब्दी के अंत तक दुनिया से करीब तीस प्रतिशत से अधिक बोलियों का खात्मा हो सकता है। बाजार ने तो स्थानीय बोली की कमर ही तोड़ दी है। ‘धुलाई’ के लिए अब छोटे-छोटे बच्चे भी ‘वाशिंग’ बोलते हैं। ‘सफाई’ के लिए ‘क्लीनिंग’ कहते हैं। एक बच्चे ने ‘धुलाई’ का मतलब पूछा। ऐसी अवस्था को क्या कहेंगे? निश्चित रूप से वैश्वीकरण का प्रभाव है। एक छात्र दो मिनट तक अपनी मातृभाषा में बोल नहीं सकता है। निश्चित रूप से यह बहुत बड़ा खतरा हम सभी के सामने है। पहले यदि याद करते हैं तो किसान फसलों के बीज अपने घर से ही लाते थे। धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन हुआ। अधिक फसल उगाने के चक्कर में किसान बीज बाहर से बहुराष्ट्रीय निगमों से खरीदने लगे। परिणाम क्या हुआ? परंपरागत बीज जो किसान मौसम तथा जलवायु को ध्यान में रखकर रखते थे – समाप्त हो गया। अब किसान को अधिक कीमत देकर हर साल बीज खरीदना पड़ता है। किसान की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी। अब वह बहुराष्ट्रीय निगमों के ऊपर आश्रित हो गया। विकास का अर्थ अपनी जड़ों को काटना नहीं बल्कि उसे मजबूत करना है। यहाँ लोग अपनी जड़ों से ही कटते जा रहे हैं। लोगों के दिन खाली पन्नों की तरह पलटते जा रहे हैं। उन्हें खबर नहीं हो रही है कि ऊपर चढ़ रहे हैं या नीचे जा रहे हैं। अतः अभी भी वक्त है कि अपनी बोलियों को सहेजें तथा अपने बच्चों को स्थानीय बोली में बोलने के लिए प्रेरित करें।