कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 27 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 27

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 27

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – पूर्वी, ताल – त्रिताल

महावीर रघुवीर पियारे।।

निस दिन रहत ध्‍यान चर‍ननि मैं, पलक न होत नियारे।।

सदा दयाल रहत दीननि पर, देत प्रेम पद रामसिया रे।।

कन्‍हर सरन भये जे तुम्‍हरे, तिन्‍ह कों निज पद राम दिया रे।।934।।

हनुमत वीर धीर बलि बंका।।

उदधि उलंधि सिया सुधि ल्‍याये, जारि छार करि लंका।।

तेज पुंज रघुवीर पियारे, निसिचर दलि करि हंका।।

कन्‍हर जय – जय भनत तिहूं पुर, मारूति लाल असंका।।935।।

राग – पीलू, ताल – त्रिताल

मन मेरे सुमिरौ सुअन समीर।।

सीय पीय दूत सपूत न दूजौ, उर न रहै भय भीर।।

ऐसौ समरथ और न दीसै, जो हरत पराई पीर।।

कन्‍हर सानुकूल प्रभुता पर, सुंदर सीय रघुवीर।।936।।

राग – विभास

सुमिरन करि हनुमान जती को।।

अभय करत जग भय नहिं राखत, ये सद्बुधि सनमती को।।

सियपिय दूत सपूत पवन सुत, निरभय दानि गती को।।

राम भक्ति वर देत हरषि करि, पाप न रहत रती को।।

मंगल करन अमंगल हारी, दुख मैटन सक्‍ती को।।

कन्‍हर वीर बली नहिं दूजौ, सुत हत लंकपती को।।937।।

राग – भैरौं

सुअन समीर के सुधि लीजौ।।

तुम्‍ह बल बुद्धि निधान राम प्रिय, औगुन माफ करीजौ।।

मैं तो बार – बार विनियो, प्रभु, राम चरन रति दीजौ।।

कन्‍हर ओर कृपा करि हेरहु, भव के भरम हरीजौ।।938।।

अंजनि लाल प्रगट भये आई।।

चैत्र चारू सुक्‍ला तिथि पूरन, उदय भानु कौ पाई।।

सुनि सुभ वार मनोहर सुंदर, लगन जोग समुदाई।।

मुनि गन सुनि अति हर्ष भये हैं, आनंद उर न समाई।।

वरषत पुष्‍प देव मुनि हर्षत, जय – जय कहि गुन गाई।।

कन्‍हर सरन तकौ लखि अवसर, राम चरन रति ल्‍याई।।939।।

राग – कलावती, ताल – त्रिताल

हनुमत राम भक्ति वरदानी।।

दीनदयाल दूत सिय पिय के, राखि लेउ सरनागत जानी।।

सदा कृपाल रहत दासनि पर, निश्‍चर अधम महा भय मानी।।

कन्‍हर भक्ति देत निज जन कौं, परमारथ तुम्‍हरे मन मानी।।940।।

मारूति लाल सरन लयौ तेरौ।।

सदा समीप रहत सिय पिय के, नाम तुम्‍हारौ भव कौ बेरौ।।

दीनदयाल कृपाल दीन पर, दीन जानि अब हेरौ।।

तुम्‍ह समान नहिं कोऊ उपकारी, अधम जानि मो मति कौ फेरो।।

भय भव सागर बहौ जातु हौं, अघ बस नाथ भयौ मन मेरौ।।

कन्‍हर राम चरन रति मांगत, कीजै कृपा करौ काये देरौ।।

941।।

अंजनि लाल सरन लयौ तेरौ।।

जन्‍म अनेक महा भ्रम डोलौं, फिरतु रहौ कर्मनि को पेरौ।।

मैं बहु त्रास त्रसित निसि बासर, झूठ मनोरथ में बहु मेरौ।।

संकट मोचन नाम तुम्‍हारौ, कन्‍हर कों अब क्‍यों न उबेरौ।।942।।

राग – रागश्री , ताल – चौताल

अन्‍जनि लाल विनय सुनि लीजै।।

मेरे मन अभिलाष यही है, राम चरन रति कीजै।।

तुम्‍हरी कृपा होति है जापर, सोई राम रस पीजै।।

कन्‍हर पर अब कृपा करीजै, राम चरन रति दीजै।।943।।

सुअन समीर के रघुवीर पियारे।।

तुम बिन मोह और नहिं सूझत, सदा भक्‍त रखवारे।।

मंगल रूप नाम तुम्‍हरौ, प्रिय सुमिरत जन भय टारे।।

कन्‍हर विरद सुनौ है तुम्‍हरौ, करत अभय भय हारे।।944।।

राग – अलइया, ताल – त्रिताल

हनिमत चरन सरन मन मानी।।

पवन पुत्र की कृपा विलोकनि, बरनत वर मुनि ग्‍यानि ।।

रहत दयाल सदा दासनि पर, हेरत पाप परानी।।

कन्‍हर सरन तकौ है सुनि कै, राम भक्ति के दानी।।945।।

कोऊ कपि सौ नहिं हितकारी।

जन के सकल मनोरथ मन के, करत लगत नहिं बारी।।

मारूत पूत अकूत तेज बल, सुमिरत करत सुखारी।।

अभय करत अरू भय नहिं राखत, ताकी ओर निहारी।।

पर स्‍वारथी जती नहिं दूजौ, द्रोनागिरि कर धारी।।

कन्‍हर राम भक्ति वर मांगत, पुजवहु आस हमारी।।946।।

राग – जौनपुरी टोड़ी

श्री गंगा जग अघ हरनी।।

दरस परस अरू पान करत जो, तिनि कह भव तरनी।।

फंद बंद जन आवत नाहीं, जम डर ना डरनी।।

जो पद जपता न भ्रम भ्रमता, फिरि ना तन धरनी।।

लोक – लोक अवलोकि लहत गति, बिन कर कर करनी।।

पापनि कह तूं अलहरि, असीस भयौ पावक अरनी।।

पावत वेद भेद ना तुम्‍हरौ, महिमा वर बरनी।।

कन्‍हर गंगा नाम जपन, फिरि नहिं भव परनी।।947।।

जय गंगा जग भ्रमहारी।।

चरन कमल ते प्रगट भई है, संकर लै सिर धारी।

मज्‍जन करत देव मुनि सब मिलि, आनंद उर भारी।।

महिमा भनत वेद सुभ सुन्‍दर, उपमा बहु बारी।।

सोभित सलिल मनोहर पावन, परसत अघ टारी।।

कन्‍हर दास त्रसित भव की भय, आयौ सरन पुकारी।।948।।

जय – जय – जय श्री गंगा, सरन लियौ अब तेरौ।।

दीन भयौ सरनागत आयौ, अघ बस लयौ मन मेरौ।।

पतित उधारन नाम विदित है, भव सरिता के बेरौ।।

कन्‍हर की अब अरज यही है, दीन जानि अब हेरौ।।949।।

राग – जौनपुरी टोड़ी

गंगा उदधि मिली छवि सोहै।।

कपिलदेव तप तेज विराजत, ध्‍यान सदा मन मोहै।।

गंगासागर लसत मनोहर, मुनि जन विचरत मोहै।।

कन्‍हर जिनि के पाप पराजये, चरन सरन जोहै।।950।।

सुमिरौ रे माई गंगा होइ सुभ अंगा।।

अष्‍ट सिद्धि नव निद्धि लहत जन, फिरि न रहत कोइ नंगा।।

पाप परायन पलकन लागत, निरखत लहरि तरंगा।।

कन्‍हर पार होत भव निधि ते, दूरि होइ भ्रम संगा।।951।।

राग – रामकली

श्री गंगा जय – जय गंगा।।

वेद विदित पावन जग करनी, छूटत अघ संगा।।

सुंदर रूप मनोहर सोभित, छवि की उठति तरंगा।।

कन्‍हर ध्‍यान धरत जे तुम्‍हरौ, तिनि मन आनंद चंगा।।952।।

जय गंगा जय – जय भव तरनी।।

दरसन होत सकल भ्रम भाजत, अघ समूह पावक जिमि जरनी।।

देव दनुज मनुजादि नाग मुनि, सकल सुखद सबकौ सुख करनी।।

मान दास स्‍वामी के सरनै, कन्‍हर उर तम हरौ सुकरनी।।953।।

सरजू लोक – लोक विख्‍याता।।

राम जन्‍म सुभ तीर भयौ है, निर्भय पद की दाता।।

चारहु वेद पुरान अठारह, बरनत छवि सकुचाता।।

कन्‍हर आस लगी चरनन की, ढुरहु जानि जन माता।।954।।

रहना सरजू तीर सुदेस।।

तजि निंदा अभिमान बड़ाई, कहना वचन सुहेस।।

अरू परद्रोह सम्‍पदा आनि की, जिनिकौ तजि लवलेस।।

कन्‍हर हरि की ओर लगै जब, जग में तजे विसेष।।955।।

राग – खम्‍बाइच, ताल – त्रिताल

सरजू अवध सकल गुनखानी।।

जन्‍मभूमि सुभ पुरी मनोहर, विदित वेद जग जानी।।

मज्‍जन करत सकल भ्रम भाजत, सदा राम गुन गानी।।

संत समाज विराजत सुंदर, रामचरन रति मानी।।

कन्‍हर के मन आस लगी है, करौ कृपा जग दानी।।956।।

राग – कली

श्री सरजू छवि छटा सुहाई।।

रूमि – झूमि – झुकि भूमि लता रह, मोर कूक रव ल्‍याई।।

बिगसे सुमन विविध विधि सोभित, लोभित भ्रमर भ्रमाई।।

कोकिल कीर तीर रव सब मिलि, सीतापति गुन गाई।।

यह सुख लहत रहत नित पुरजन, तन मन आनंदताई।।

कन्‍हर सरजू नाम कहत तन, आतप जात पराई।।957।।

जमुना जम भय दूरि करै।।

महिमा जासु लोक लोकिनि में, अघ समूह सब देखि डरै।।

जमदुतिया अस्‍नान करत ही, जम फंदनि कबहूं न परै।।

मान दास स्‍वामी के सरनै, कन्‍हर जपि भव पार तरै।।958।।

सलिल सुभ पैसरनी सोहै।।।

अनसुइया वर ल्‍याय प्रगट करि, उपरत बहु जोहै।।

सुन्‍दर रूप मनोहर लखि कर, देवनि मन मोहै।।

कन्‍हर मुनि गन बसैं निकट ही, ध्‍यान सदा उर गोहै।।959।।

सलिल जल निर्मल गोदावरी।।

दरस परस करि पान करत जे, तिनि उर सुद्ध करी।।

रहे छाइ धरि ध्‍यान निकट मुनि, चितत चरन हरी।।

कन्‍हर राम चरन रति मांगत, मो सुधि क्‍यों बिसरी।960।।।

राग – झंझौटी

नर्मदा सोभित सलिल सुहाई, वेदनि जस गाई।।

प्राची दिसि ते चली मनोहर, पच्छिम कौ बरजाई।।

कंकर सब संकर सम जानौ, महिमा बहु मन भाई।।

मज्‍जन करि भव की भय भागत, दरसन पाप पराई।।

कन्‍हर राम चरन रति मांगत, तुअ सरनागत आई।।961।।

सिंधु तेरी लहरैं परसि अघ टारै।।

घाट सुढार वारि वर सुंदर, निरमल मति अनुसारै।।

मन – रंजन सज्‍जन सुख दैनी, भव बाधा जात निरवारै।।

कन्‍हर बहुत प्रवाह धरति तब, परबत फोरि तोरि द्रुम डारै।।962।।

राग – भैरवी

नीकी लागैं सिंधु तेरी घटियां।।

निकटहिं पारवती पति राजत, मांझधार भैरव बट हटियां।।

निर्मल नीर देखि मन भावन, रहैं संत हरि नामहिं रटियां।।

पावन भूमि मनोहर सुंदर, मारूति लसत सिंधु के तटियां।।

दोऊ कूल द्रुम लता सुहाये, सोभित मोर कूक धुनि ठठियां।।

कन्‍हर राम भक्ति वर मांगत, करौ कृपा भव के भ्रम हटियां।।963।।

मन मेरे रघुवीर कहौ रे।।

मीन बराह कमठ नरहरि बल, वामन रूप लहौ रे।।

परसराम वर वोध कृष्‍न पृथु, कीरति उदय भयौ रे।।

कलकी अरू हरिहंस मन्‍वंतर, हय ग्रीवधु रूप ठयो रे।।

जग्‍य रिषभ वर धेनु धन्‍वंतर, बद्रीपति तप पुंज करौ रे।।

कपिलदेव सनकादिक सोभित, व्‍यास रूप सुंदर प्रगट करौ रे।।

दत्‍तात्रय प्रगट होकरि के, बार – बार प्रभु नाम जपौ रे।।

कन्‍हर हरि गुन रूप मनोहर, जप ते भव उदधि तरौ रे।।964।।

श्री सरजू पावन श्री सुरसा, श्री जमुना सुखदाई।।

तापी कह त्रोतापन सति है, वैन्‍या पाप पराई।।

सरस्‍वती गोमती मति दैनी, रेवा वर मन धाई।।

गोदावरी करति तन पावन, कृष्‍णा सुन्‍दरताई।।

भीमरथी नर्मदा मनोहर, महानदी छवि छाई।।

निर्बिधा कौसिकी सर्करा, श्रीसामा सम आई।।

मंदाकिनी बनी वर वेणी, सिंधु रंध दुति ल्‍याई।।

ऋषि कुल्‍या पयस्विनी, सुखौमा सप्‍तवती वर गाई।।

कावेरी सोभित ऋतमाला, वेद स्‍मृत कौं धाई।।

चरमन्‍वती वर सिंधु पयोधी, अबटो दातै ठाई।।

तुंगभद्र अरू इषतक्‍ती कह, ओघवती निरखाई।।

ताम्रपर्णी सुन्‍दर करनी,वैहायसी सुहाई।।

मानुत वृद्धा अरू सोणा वितस्‍ता, चन्‍द्रवसा छवि पाई।।

विश्‍वताकरि विश्‍वास असि की‍नी, वार्ता लहरि निकाई।।

चन्‍द्र भाग अरू लसत सत, दुर्मिली उदधि सब जाई।।

सुर नर मुनि मज्‍जन करि सुंदर, गावत गुन गरवाई।।

कन्‍हर नाम लेत भ्रम भाजत, मन न रहति मलिनाई।।965।।