कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 3 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 3

कन्‍हर पद माल -शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 3

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी

राग – पूर्वी, ताल – त्रिताल

रे मन झूठे भरम भरमाया, लाभु कहा करि आया।।

कौ कूटौ तू कूट वृथा ही, वामैं कह निकसाया।।

आया माया पाय भुलाया, मन संतोष न पाया।।

जग तग कह बौराह निवेरत, मन महं नहिं सकुचाया।।

भूलौ आवागमन भवन महं, देखि‍ - देखि हरषाया।।

कन्‍हर भजन बिना सियावर के, फिरि पीछे पछिताया।।30।।

मन कौं बोध सोध नहिं आवै।।

करम भरम भरमावत जावत, अपनौ ही रंग लगावै।।

जोग जुगति करि कोइ – कोइ, राम ध्‍यान उर ल्‍यावै।।

कन्‍हर हरि जब कृपा करत तब, सुभ मारग लै जावै।।31।।

मुख तू राम नाम क‍हि बोले।।

राम भजै भव पार न पावै, शरण राम की हो ले।।

बिसरौ सुपथ कुपथ पथ लीनौ, या विधि कसि तौले।।

कन्‍हर राम नाम नहिं सुमिरत, कपट झपट वोले।।32।।

मन तूं राम नाम गुन गासी।।

मानुष जोनि वादि दिन खौवे, सेवहु चरन सुपासी।।

वरनत दीन दीन हितकारी, ताहि तकौ मन जासी।।

कन्‍हर धन्‍य धन्‍य नर जोई, ध्‍यान धरत हरषासी।।33।।

मानी नहिं मानी तू मन नहिं मानी।।

माया पाया सठ बौराया, विषय वासना सानी।।

संग कुसंग बंग रिचु मानी, कबहूं न होति गिलानी।।

कन्‍हर राम नाम चिंतामनि, सेवहु तन मन बानी।।34।।

मन या स्‍वारथ बात निपाता, राम कहत अलसाता।।

नाता राता हरषत गाता, संगत दंग न जाता।।

जगमग भ्रमता भ्रमन भ्रमन में, उरझि – उरझि उरझाता।।

कन्‍हर राम नाम संतत हिय, ऐसी भक्ति उपजाता।।35।।

चेत नहीं रे मन भयौ अचेत।।

देस भेस कह तूं नहिं जानत, कस बस परौ दुचेत।।

काम विहाय राम पद परसत, जो जग नहीं तचेत।।

कन्‍हर पार परत सो हरि जन, सो जग भ्रमनि बचेत।।36।।

मैं सरन लियौ रघुवीर अब, जिनि त्‍यागौ प्रभु मोकौ।।

अधम अनेक सरन तुम कीनै, मो कौं क्‍यों टोकौ।।

मेरे अघ औगुन बहु लखि – लखि, जम राजा रोषौ।।

कन्‍हर पतित पार तुम करिहौ, जामै नहिं धोखौ।।37।।

राग – अड़ानौं

रहत मगन प्रभु के गुन गावै।।

विधि नारद संकर सनकादिक, सदा राम गुन भावै।।

कपिलदेव मुनि भूप भये हैं, जनक ध्‍यान उर ल्‍यावै।।

ध्रुव प्रहलाद दधीच भये, बलि सुखदेव हरषावै।।

कन्‍हर कौं भव अगम कृपा बिन, चरन कमल रति पावै।।38।।

राग- झंझौटी, ताल – त्रिताल

मन मानत ना अग्‍यानी।।

मैं तो बरजि – बरजि करि हारौ, अधिक – अधिक उरझानी।।

काम क्रोध मद लोभ लहरि मैं, निसि दिन जात बितानी।।

खबरि न परी भरे सब यौं दिन, नाहक स्‍वांस परानी।।

कन्‍हर राम नाम कौं सुमिरौ, झूठी जग पहिचानी।।39।।

मन अभिमानी म्‍हारी सीख न मानी।।

अबतौ सोचै होत कहा है, काल आइ निअरानी।।

जम के दूत माय तोइ दैहैं, बांधि – बांधि तन तानी।।

कन्‍हर हरि बिन कौन छुटावे, कर नहि करी निवारी।।40।।

हरि न हेरे कह की तन मन मेरे।।

भरमत जन्‍म जतन महं खोयौ, लाभु कहा कर तेरे।।

जम के दूत अकूत मारिहैं, बांधि‍ - बांधि तन ऐरे।।

कन्‍हर राम नाम के सुमिरत, आवत नहीं कोऊ नेरे।।41।।

राग- पंचम, ताल धमार

मधुवन के बैरी मोरा मानै नहीं निहोरा।।

स्‍याम बिना हम कौं प्रिय नाहीं क्‍यों अब देत झकोरा।।

आये नहीं खबरि नहिं भेजी निरमोही स्‍याम कठोरा।।

कन्‍हर के प्रभु राखति हौं अब प्रान बहुत बरजोरा।।42।।

राग-भोपाली

पौडिये राम कुमर प्‍यारे।।

आलस भरे नींद नैननि लखि माता वचन उचारे।।

बार-बार मुख चन्‍द्र विलोकत उपमा कोटिनि वारे।।

कन्‍हर हरषि कहत कौसल्‍या जीवन आन हमारे।।43।।

अवध गलिनि खेलत रघुराई।।

भरत लखन रिपुसूदन सुंदर पुरजन जन बलि जाई।।

बैजंति वर माल डुलति उर श्रवन मकर झलकाई।।

सखा संग सब एक उमरि के रूप अनूप सुहाई।।

छवि की छटा राम की तिनि मह कोटि मदन सकुचाई।।

कन्‍हर मुनि मन तृपित होत नहिं अवलोकत हरषाई।।44।।

सामरौ किसोर चोर चित्‍त ले गयौ।।

मैं सरजू जल भरन जाति ही मृदु बोलनि कछु कै गयौ।।

तब तै कल न परति री आली तन मन उन बस है गयौ।।

कन्‍हर गेह नेह नहिं लागै ऐसी लगन लगै गयौ।।45।।

सखी री दृगनि लखे रघुवीर।।

प्राननि की ऐसी गति भई री सुधि नहिं रही सरीर।।

ठाढ़े सरजू तीर वीर दोऊ संग सखनि की भीर।।

कन्‍हर उर वनमाल बान धनु लसत जरकसी चीर।।46।।

राग – पूर्वी, ताल – त्रिताल

तन को बोध शोध नहिं आवै।।

करम भरम भरमावत जावत, अपनो हि रंग रंगावै।।

जोग जुगत करि – करि कोई – कोई, राम ध्‍यान उर लावै।।

कन्‍हर हरि जब कृपा करत तब, शुभ मारग उर भावै।।47।।

मन मति कुमति भ्रमत हरि डोलै।।

ज्ञान ध्‍यान सपने नहिं आवत, कुटिल बचन बोलै।।

बिसरो सुपथ कुपथ पथ लीन्‍हों, या विधि कस तोलै।।

कन्‍हर राम नाम नहिं सुमिरत, कपट झपट ओलै।।48।।

फिर – फिर बिसर गईं वे बातें।।

आवत जात निपात पात ज्‍यों, श्रम भ्रम भयो तातें।।

चार दिना कौ जग कौ मेला, समझि – समझि यातें।।

कन्‍हर काम राम से परिहै, भूलो मति जातें।।49

मन तू राम नाम गुन गासी।।

मानुष जनम बाद दिन खोवे, सेवहु चरन सुपासी।।

बरनत दीन – दीन हितकारी, ता हित को मन जासी।।

कन्‍हर धन्‍य – धन्‍य नर जोई, ध्‍यान धरत हरि खासी।।50।।

राग – काफी, ताल – तितारौ।।

निरखौ री रघुवीर दृगन भर।।

अति विचित्र भूषण तन घन वर,धनुष बान सुंदर कर शुभ धर।।

माल गुलाब के फूलन की उर, लट पट पेच जरकसी झुककर।।

कन्‍हर पलक होउ जनि न्‍यारे,विनय करौं प्रभु पांच परों पर।।51।।

सखी श्‍याम छवि लसत सुहाई।।

बंक बिलोकन लोकन मोहन, बोलिन मृदु मुसक्‍याई।।

अलकें छुटकि रहीं मुख ऊपर लखि मन रहत लुभाई।।

कन्‍हर रैन होत नित बैरिन, जुग सम बीतत नाई।।52।।

नी‍की लगै रघुवर छवि प्‍यारी।।

रवि सम क्रीट शीश पर शशि मुख, मकराकृति दुतिकारी।।।

काछे कटि काछिनी जरकसी, मुक्‍त माल उर चारी।।

कन्‍हर निरख रूप सियावर कौ, उपमा कोटिन वारी।।53।।

आली री बंधन राम न छोरें।।

जनकसुता कंकन नहिं कर ते करते बहुत निहोरे।।

मंगलमय दोउ अंग मनोहर उपमा उन – उन ओरे।।

कन्‍हर आनंद अधिक जनक गृह बार – बार कर जोरे।।54।।

सियाजी बनरे दृगन भरि हेरौ।।

धन्‍य विदेह धन्‍य मिथिलापुर धन सब भाग बड़़ेरौ।।

धन सीता सुख सींव सखी री यह कारण पण फेरौ।।

कन्‍हर सुन्‍दर सीख नीक यह लै लेउ लाभ सबेरौ।।55।।

राग – सोहनी।।

सुनियै अरज रघुवीर पियारे।।

यह मन मूढ़ कहौ नहिं मानत, देत सिखावनि निस दिन हारे।।

भ्रमत रहत यह हारि न मानत, जाते अब तुव सरन पुकारे।।

कन्‍हर राम नाम की महिमा, अजामेल गज गनिका तारे।।56।।

राग – पीलू कौतिल्‍लो

श्‍याम बिना म्‍हारी या गति भई रे।।

कहिय न परत कहों अब कासों, ऐसी उर में ठई रे।।

बिछुरन प्रान प्‍यान न कीनों, मन की मन में रही रे।।

कन्‍हर फेर कहो कब मिलिहौ, हियरा जात दही रे।।57।।

राम भजन बिन हीनो, तन मन धन तीनों।।

चार दिना कौ जग को मेला, सदा न काऊ जीनों।।

को ले गयो संग कह काके, बीन लेउ सो बीनों।।

कन्‍हर कहा मान अब लीजे, नाम सुधा रस पीनों।।58।।

राग – अड़ानौं

अंग – अंग अगम कौन निरवारै, नातर बात बहैगी।।

मानि – मानि मन तोहि समझावत, वा दिन कठिन परैगी।।

कन्‍हर तकौ सरन रघुवर कौ, अनत न विपति छटेगी।।59।।

श्री रघुवर सम नहिं कोर्इ।।

दीनदयाल दीन आरतिहर, करत अभय भय खोई।।

बहु जन्‍मनि की बिगरी सुधरति, चरन सरन जब होई।।

कन्‍हर हरत सकल दुख जन के, करत रहत प्रभु सोई।।60।।

राम बिना दुख कौन हरै रे।।

ऐसी और नहीं कोई जग मंह, मोहि पार करै रे।।

प्रगट प्रभाव नाम कह बरनत, सुनि जमराज डरै रे।।

कन्‍हर दीनदयाल नाम हरि, कहि भव पार परै रे।।61।।

राग – भैरों

बड़ौ है दानी नाह भमानी।।

रहत दयाल सदा दासन पर, सबके उर की जानी।।

कौन भक्ति कीनी गुन निद्धि, द्विज राखौ निज पद आनी।।

सकल लोक जन त्रसित जानि कै, हृदय राखि विषसानी।।

जापर कृपा करत करूणा‍निधि, हरत पाप परानी।।

कन्‍हर विनय करत कर जोरे, देउ राम रति दानी।।62।।

जय – जय सिव सैल सुता सुत, लम्‍बोदर भुज चारी।।

गज आनन लसत मनोहर, उपमा बहुत निवारी।।

तुम सम ओर नहीं कोई जग में, राम भक्‍त दिठकारी।।

कन्‍हर राम चरन रति मांगत, करौ कृपा बलिहारी।।63।।

श्री गननायक हरिजन सुखदायक।।

गवरीनन्‍दन तुम जगवन्‍दन, कृपा दृष्टि देवैं सब लायक।।

तुम्‍हारौ नाम लेत भ्रम भाजत, भ‍क्‍तनि पर तुम रहत सहायक।।

विद्या वारिद मंगल कारक, सरनागत के उर तुम भायक।।

सिद्धि होति तोअ नाम लेय ते, जन सुख दैन दुष्‍ट की घायक।।

कन्‍हर विनयकरत कर जोरो, कीजै कृपा राम गुन गायक।।64।।

राग-चौतारौ (चौताल)

अबध मनोहरताई बरनी नहिं जाई।।

राजत राम भानु कुल भूषन त्रिभुवन पति सुखदाई।।

सरजू सलिल बहति शुभ निर्मल मज्‍जन करि हरषाई।।

हरष विवस नरनारि अवध के आनंद उर न समाई।।

गृह गृह मंगल बजत बधाये रही अधिक छवि छाई।।

देह गेह की खबरि नहीं है निस दिन आनंदताई।।

सुन्‍दर मुनिगन छारि रहे हैं जन्‍मभूमि मन भाई।।

कन्‍हर आवत रहत सदा सुर हर्षि राम गुन गाई।।65।।

राग- सारंग

भयौ है आनंद आजु जन्‍म लियौ कुंअर चारि,

सुनत राउ हर्षवन्‍त विप्रवर बुलाई।।

गृह-गृह आनंद भयौ सुन्‍दर सुख पूरि रहो।।

हरित मनि निरचित द्वार सोभा वर ल्‍याई।।

लियो जात सुभग थार चलित हृदै मुक्तिहार।।66।।

प्रविसे नृप के दुआर आनंद उर छाई।।

कन्‍हर बहुदान दिये जाचिकी अजाचिकि को

अवनी मनि वसन पाई हरषे गुन गाई।।67।।

राग-सारंग

अवधपुर बाजति आनंद बधाई।।

प्रगटे राम भानुकुल भूषन बरन सकौ किमि गाई।।

मनि तोरन बहु केत पताका पुरी अधिक छवि छाई।।

कन्‍हर दान देत महि देवनि हीरा लाल लुटाई।।68।।

आजु अवध छवि छाई रही है।।

आनंद उमगि चलौ चारौं दिसि मनौं उदधि मरजाद तजी है।।

धन्‍य भाग राजा नृप दशरथ जिहि कारन प्रभु देह धरी है।।

कन्‍हर वेद पार नहिं पावत धनि कौसिल्‍या आजु धनी है।।69।।

राग-रागश्री

प्रगटे अखिल लोक विश्राम।।

सिव सनकादि देव रिषि मुनिगन बिसर गये अपनौं निज धाम।

नृप के द्वार भीर भई भारी जात न जानै निसि दिन जाम।।

मंगल गान करत सब आईं गृह-गृह तै मिलकै पुरवाम।।

कन्‍हर तीनि लोक आनंद लखि भयौ भूप मन पूरन काम।।70।।

कौसलपुर में होति बधाई।।

जन्‍मो कुंअर नृपति गृह सुन्‍दर सब मिलि मोद लहाई।।

जय-जय भनत लोक लोकनि मैं आनंद उर न समाई।।

बीथिनि कुमकुम कीच अरगजा अबिर गुलाल उड़ाई।।

अमित धेनु गज वसन हेममनि विप्रनि दियौ बुलाई।।

कन्‍हर देत असीस मुदित मन सुख बरनौं नहिं जाई।।71।।

राग-पूर्वी

पालनै झूलत राम सही।

तात मात सुख देत हेत करि कापर जात कही।।

कोरनि कोर जवाहर मुक्‍ता हीरा लाल लही।।

कन्‍हर निरखि कौन छवि प्रभु की मन की सुधि न रही।।72।।

सुन्‍दर राम मातु लियै कनियां।।

दुइ-दुइ दसन अधर अरूनारे बाल विभूसन बहु छवि बनियां।।

अंग नील मनि लसत मनोहर मुनि मन हरन सीस चौतनियां।।

कन्‍हर सब रनिवास हर्ष जुत मगन ध्‍यान नारद गुनगनियां।।73।।

भूप भवन खेलैं चारों भाई।।

रघुवर लछिमन भरथ सत्रुहन जानु पानु उठि धाई।।

पीत झीन झगली सिर टोपी नूपुर पगिनि सुहाई।।

कन्‍हर कलि मृदु वचन तोतरे सुनि माता बलि जाई।।74।।

खेलत प्रभु आनंद भरे।।

पग नूपुर पहौंचा कर कमलनि भाल बिंद चित लेति हरे।।

जानु पानु उठि चलत घुटरूअनि ससि कौं झगर परे।।

कबहुंक निज प्रतिबिम्‍ब निहारत कबहुंक देख डरे।।

किलकि-किलकि बहु भागि चलत हैं मोद सहित पकरे।।

कन्‍हर प्रभु के वचन तोतरे नृप उर ल्‍याय धरे।।75।।

राग-सारंग

खेलत राम बान लिये धनियां।।

बोलत मधुर तोतरे सोभित चित‍वनि चारू हृदय उरझनियां।।

पद पंकज नख जोति मनोहर भूषन वसन तडि़त दुति दतियां।।

कट किंकिनी लसत वन सुन्‍दर तनधन लसत बाल छवि बनियां।।

पहौंची करनि जटिल मनि राजति मकराकृत कुण्‍डल झलकनियां।।

अलकैं कुटिल भृकुटि वरबांकी केसर तिलक भाल दुति धनियां।।

सुन्‍दर चिबुक अधर वर ग्रीवा ध्‍यान मगन मुनिजन गुन गनियां।।

कन्‍हर बलि बलि जा‍ति कौसिल्‍या बरनि सेस सारद मति ठनियां।।76।।

राग-झंझौटी

त्रिभुअन पति नर देह धरी।।

खेलत फिरत अजिर में धाये काग चहत पकरी।।

जाकौ वेद पार नहिं पावत मोद सहित विचरी।।

कन्‍हर नृप सुत हेत भुलानै पूरव सुधि बिसरी।।77।।

राग-पूर्वी

गावैं दसरथ द्वार बधाई।।

जय-जय सब्‍द भयौ त्रिभुअन में सुख बरनौं नहिं जाई।।

हीरा लाल जवाहर भरि-भरि कोटिन भार लुटाई।।

कन्‍हर भुव कौ भार उतारन प्रगट भये हरि आई।।78।।

राग-कान्‍हरौ

कहि मां टेरत बचन सुहाये।।

कल श्ररू मृदुल मनोहर लागै सुनि सबके मन भाये।।

धाय हरषि उर लेति सुमित्रा आनंद उर न समाये।।

अंचल अगरज झारि चूमि मुख मातु मोद भरि आये।।

सिव सनकादि अमर ब्रम्‍हादिक ध्‍यान मगन मन ल्‍याये।।

कन्‍हर लखि अवधेस सुअन छवि वरषि सुमन हरषाये।।79।।

राग-सारंग

जनक गृह प्रगट भूमि तनया।।

सदन-सदन सोहिलौ सुहायौ वीथिनि कीच अर्ग मचिया।।

देत दान नर थमहि देव निभे न भार भिरिया।।

यह आनंद पूरि रहौ दस दिस दुष्‍ट हृदय उलिया।।

सजि-सजि यान अमर किन्‍नर सब करैं पुष्‍प झरिया।।

कन्‍हर दिन शुभ घरी जानि मिलि देव वधू चलिया।।80।।

रहौ जनकपुर आनंद छायकै।।

जनकसुता कौ जन्‍म भयौ है बरनि सकै को गायकै।

वृंद-वृंद मिलि चलीं भामिनी मंगल थार भरायकै।।

बरषत पुष्‍प देव सब हर्षत नभ दुंदुभी बजायकै।।

हीरा लाल जवाहर हाटिक विप्रन दिये बुलायकै।।

कन्‍हर देत असीस मुदित मन बार-बार सिर नायकै।।81।।

आजु जनकपुर बजत बधाई।।

घर-घर चौक पुराये सुंदर आनंद उर न समाई।।

हरषि दान नृप देत सकल विधि जो जाके मन भाई।।

यह आनंद लोक लोकनि मै देव वधू मिलि कै सब गाई।।

बरसत पुष्‍प देव मुनि हर्षत नभ दुंदुभी बजाई।।

कन्‍हर जगत जननि जन्‍मी है सेस सारदा पार न पाई।।82।।

लखे री मैंने तुरग फिरावत राम।।

क्रीट मुकुट मकराकृत मंडल नूपुर पगनि ललाम।।

धनुष बान कर कंज माल उर सोभा बर सुख धाम।।

कन्‍हर निरखि-निरखि रघुवर छवि लज्ज्ति भयो मन काम।।83।।

राग-धानी

सरजू घाट ठाढ़े देखे लाल।।

क्रीट मुकुट मकराकृत मंडल चन्‍दन चर्चित भाल।

छोटी-छोटी बान धनइयां उर बैजंती माल।।

कन्‍हर निरखि कौसला सुत छवि मन उरझौ मनु जाल।।84।।

राग – पूर्वी

भई जनकपुर भूमि सुहाई।।

भूमिसुता कौ जन्‍म भयौ है हरन भार महि आई।।

जगत जननि जानकी नाम कहि निगम अगम कहि गाई।।

भूप भवन की सोभा पुर-पुर प्रति द्वार देखियै जाई।।

मनि तोरन बहु केत पताका पुरी रूचिर छवि छाई।।

देत दान अनुकूल हर्ष जुत सकल सिद्ध गह पाई।।

भयौ दिवस मंगलमय पावन भानु रहे विलगाई।।

कन्‍हर भूमि जटित रत्‍ननि सौं देव पुष्‍प झरि ल्‍याई।।85।।

राग-धनाश्री

मिथिलापुर में होति बधाई।।

प्रगट भई मिथिलेस किसोरी आनंद उर न समाई।।

माधव मास में शुक्‍ला तिथि मध्‍य भानु रहि आई।।

लगन जोग ग्रह भये सुहाये विप्रनि नृपति सुनाई।।

दिये दान नाना विधि सुन्‍दर सुख बरनौ नहिं जाई।।

चोबा चंदन अतर अरगजा वीथिनि पर छिकाई।।

बरषत पुष्‍प देव मुनि हर्षत जय-जय शब्‍द सुहाई।।

कन्‍हर तीनिलोक आनंद भयौ बरनि वेद जस गाई।।86।।

जय-जय-जय मिथिलेस कुमारी।।

दीन भयौ सरणागत आयौ हरौ मोह भ्रम भारी।।

नाम लेत त्रैताप नसत है वरनि वेद वर चारी।।

हरन भार अवतार भयौ है देवनि कौ सुखकारी।।

कंपत रहत सदा भय मानत महा घोर निसचारी।।

कन्‍हर आस लगी चरननि की कीजै कृपा बलिहारी।।87।।

राग-राग ईमन

सिया चरन बिसरौ मति प्रानी।।

जिन चरननि कौ ध्‍यान धरत है रहत मगन मुनि ज्ञानी।।

नाम लेत भव के भ्रम भाजत भनत निगम वर बानी।।

बहु जन्‍मनि की बिगरी सुधरै जो तुम कृपा करौ जन जानी।।

मैं हौं दीन मलीन हीन मति विरद सुनत सुख मानी।।

कन्‍हर त्रास त्रसत निसि वासर तकौ सरन तुव आनी।।88।।

सुनियौ अरज मोरी जनक किसोरी।।

भव सागर की लोभ लहरि मह बहत फिरत बरजोरी।।

किंकर जानि कृपा करि हेरहु मैं बहु करत निहोरी।।

कन्‍हर जुगल चरन रति मांगत समयौ पाय कह मोरी।।89।।

राग- देस

निमि नृप कुल उजियारी मिथिलेस कुमारी।।

रटत वेद अरू भेद न पावत नेति नेति कहि हा‍री।।

हरन भार अवतार सखी री मात-पिता सुखकारी।।

कन्‍हर बार-बार अवलोकित प्राणन ते प्रिय प्‍यारी।।90।।

मुनि संग आये हैं काली।।

गौर श्‍याम वर अंग मनोहर लखे जात आली।।

अलकैं कुटिल क्रीट सिर राजत चितवनि उर साली।।

मोहनि मृदु मुसिक्‍यान हरन मन सिंह ठवनि चाली।।

कटि पट पीत तून दो बांधै अधर रही लाली।।

कन्‍हर देखि बान कर कमलनि दुष्‍टनि उर दाली।।91।।

सखि बिन देखै कल न परै।।

स्‍याम सरोज कमल दल लोचन उपमा बहुत भरै।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडलि मुक्‍तनि माल गरै।।

भृकुटी कुटिल मनोहर बांकी केसरि तिलक करै।।

जल बिनु मीन दर्स बिनु जैसे नैननि ते न टरै।।

कन्‍हर प्रभु मुसक्‍यानी माधुरी चित कौं लेति हरै।।92।।

राग-गौरी

नयन सखि अब नहिं धीर धरें।।

बिन देखैं रघुनाथ गाथ मृदु पल-पल कल्‍प भरें।।

कठिन पिनाक पिता प्रन कीनौं कहि अति सोच करें।।

सैल सुता उर ल्‍याय जानुकी बहु विधि चरन परें।।

हर गिरजा अनकूल हौंइ तौ हमरौ दुख हरें।।

कन्‍हर विकल भई वैदेही गुरजन लाज डरें।।93।।

ये दोऊ आली अवध पति ढोटा।।

मुनि मख राखि ताड़का मारी हनौ निसाचर खोटा।।

वय किसोर सुकुमार मनोहर श्‍याम गौर भल जोटा।।

कन्‍हर इक टक निरखि नारि नर करैं पलक नहिं ओटा।।94।।

धनुस कब टोरैंगे रघुवीर।।

वय किसोर देखत मृदु लागत तेज पुंज बलवीर।।

सोच छांडि़ अब जनक लाडि़ली हरै सकल भय भीर।।

गरभ नृपनि के दूरि करैंगे दसरथ के रन धीर।।

जिनि मारीच निसाचर मारे मख राखौ मुनि तीर।।

कन्‍हर प्रन राखहि रघुनंदन मेटहि उर की पीर।।95।।

राग- भैरों

कठिन प्रन कीनौं री माई।।

बार-बार अवलोकि सुनयना सीतहि उर ल्‍याई।।

भयौ बैरी त्रिपुरारि धुनस अब कैसे दुख जाई।।

कोमल कर रघुनाथ गात मृदु लखि कर पछिताई।।

यह मतु कौन कहत समुझाई विधि गति‍ भई बाई।।

क|न्‍हर के प्रभु भंजहि सिव धनु तिहूं पुर जस गाई।।96।।

राग-रागश्री, ताल-कव्‍वाली

कमल नयन रतनारे सुंदर बांके हैं।।

टोरौ धनुस नृपति प्रन राखौ सिया ओर प्रभु ताके हैं।।

गरब नृपनि के दूरि करे हैं परसराम बल थाके हैं।।

कन्‍हर के प्रभु दियौ सबहिं सुख भनत वेद गुन जाके हैं।।97।।

भयौ है आनंद आजु बाजे ब्‍यौम बाजही।।

जय-जय तिहूं लोक भयौ जय सबद पूरि रहौ,

जानकी जयमाला रघुनाथ उर पहिरावही।।

किन्‍नर मिलि गान करत देव पुष्‍प वृष्टि करत,

धन्‍य जनक भाग आजु और कौन कौ सही।।

सामरे किसोर प्‍यारे अंग पर अरंग वारे,

देखि-देखि सुन्‍दर छवि कन्‍हर सुख कौं लही।।98।।

राम नृपति मन भाये सुन्‍दर सखियनि मंगल गाये री।।

सब उर भावत सुख उपजावत छवि कवि कहत लजाये री।।

अंग विभूषन ललित मनोहर बरनत पार न पाये री।।

कन्‍हर चहुं दिस आनंद पूरन सबहि प्रान प्रिय भाये री।।99।।

राम बना बनि आयौ, सखी मन भायौ।।

नील जलद तन लसत मनोहर भूषन तडि़त छिपायौ।।

कुंडल लोल कपोलनि झलकत चितवनि चितहि चुरायौ।।

उर मनि माल उदर त्रै रेखा कंबु कंठ दुति ल्‍यायौ।।

अधर अरून दुति आनन सोभित बरनत विधि सकुचायौ।।

माथै मौर जटित नग राजत जगमग लसत सुहायौ।।

अवलोकत नर-नारि जनकपुर आनंद उर न समायौ।।

देह गेह सुधि रह न नेह बस सबकौ मन उरझायौ।।

राउ सहित रनिवास हर्षजुत पुलकि गर भरि आयौ।।

या विधि पूरि रहौ सुख पूरन भुवन चारि दिस छायौ।।

बरसत पुष्‍प देव मुनि हर्षत नारदादि गुन गायौ।।

कन्‍हर धन्‍य घरी जह अवसर दूलहा प्रभु बनि आयौ।। 100।।

नीकौ लागै बना सिया जी कौ।।

बोलनि मृदु मुसिक्‍यानि माधुरी मन सुनि होत अली कौ।।

देह गेह बस नेह भुलानौ चलित भयौ प्रन पी कौ।।

कन्‍हर भूलि गयौ सबकौ सब धर्म अचल चल त्री कौ।। 101 ।।

सियाजी नै आली सुघर बना पायौ।।

सुन्‍दर वदन दिखाई मनोहर सबकौ मन भरमायौ।।

रही न लाज कान गुरजन की पतिव्रत धर्म चलायौ।।

लटपट होति जाति गति गलिअनि तातन मृदु मुसिक्‍यायौ।।

बिसरत सुरति खबरि नहिं तन की ऐसौ मंत्र पढ़ायौ।।

कन्‍हर निरखि निरखि रघुवर छवि नैन जाल उरझायौ।।102।।