कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 4 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 4

कन्‍हर पद माल -शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 4

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

दिनांक- 16-4-97

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी

राग-झंझौटी-

रघुवर अजब बना बनौ माई।।

ब्‍याह समय के भूषन राजत जन उड़गन छन छाई।।

पीत वसन कोटिनि दुति दामिनि उपमा बहुत लजाई।।

सोभित अधर मकर जुलफिन बिच मंद-मंद मुसिक्‍याई।।

अंजन दृगन लसत मुंदरी नग जावक पगनि सुहाई।।

कन्‍हर छवि अवलोकि माधुरी बिसरत नहिं बिसराई।।103।।

राग-झंझौटी

छिन-छिन आली दृगनि हरि हेरौ।।

अंतरदाह अंतनारै है कहौं पुकारि घनेरौ।।

फिरि-फिरि यह औसर ना मिलिहै कहौ मानि लेउ मेरौ।।

कन्‍हर जनक तनय के कारन राम लला इह फेरौ।।104।।

येरी प्‍यारौ बनरा राम सलौंना।।

मिथिलापुर में आय सखी री सब पर करि मनु टौंना।।

रही न लाज काज तजि आई कहौ कहा अब हौंना।।

कन्‍हर बार-बार अवलोकित मृगपति गति कर दौंना।।105।।

संग सहेली सिया जी की झरो‍खनि झांकैं।।

अवलोकत रघुवीर वदन छवि भाव रहौ जस जांकै।।

बिसर गयी सुधि सदन वदन की वचन न आवत आंकै।।

कन्‍हर कौं मिथिलेस सरिस जग दूल्‍हा बनि हरि तांकै।।106।।

राम रूप अवलोकैं जनकपुर नारी।।

अटा चढ़ा सब छटा निहारैं गावत मंगल चारी।।

दुर्लभ दई सखी हम तुम्‍ह कह धन्‍य मिथिलेस कुमारी।।

कन्‍हर आनंद छाइ रहौ है प्राण करत बलिहारी।।107।।

दूल्‍हा बनौ राम पियारौ।।

अपनै बस करि लिये सकल जन चेटक सौ पढि़ डारौ।।

बिसरत नहीं पलक नैननि ते दसरथ राज दुलारौ।।

कन्‍हर धनि मिथिलेस किसोरी जिहि कारन पग धारौ।108।।।

स्‍याम छबीलौ बना मन भावना।।

वदन कंज जुलफैं वन अलिगन चलित मन हर विल्‍थावना।।

अधर दसन दुति तडि़त विदित मंद हास मुसिक्‍यावना।।

बाजूबंद फंदरति पति के मनि उर माल सुहावना।।

गज आरूढ़ जनक गृह आये दरस हेत सखी धावना।।

कन्‍हर रूप निरखि रघुवर कौ जहं-तहं मंगल गावना।।109।।

अवलोकौ छवि आली सियापति येही।।

लैलेउ री लोचन कह लाहु ये प्रिय परम सनेही।।

मुनि मख राखि अहिल्‍या तारी आये सुनि प्रण तेही।।

कन्‍हर लोक चतुर्दस सेवत प्रगट नृपति हित वेही।।110।।

राग-देस

मुख पर जुलफैं झुकि-झुकि सोहैं।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल कोटि काम छवि जोहैं।।

रूप सील गुन धाम सखी री गौर स्‍याम वर दो हैं।।

कहत परस्‍पर वचन मनोहर बार-बार उर गोहैं।।

आनंद मगन जनकपुर वासी ये बालक वर को हैं।।

कन्‍हर राम रूप अवलोकत नर-नारी मन मोहैं।। 111 ।।

राम की जुलफैं बसी करैं।।

कुंडल लोल कपोलनि झलकनि मनसिज मनहि हरैं।।

मृदु बोलनि चितवनि चित चोरनि तातन झांकि परैं।।

कन्‍हर कमल वदन पर झुकि-झुकि मानहु भंमर लरैं।। 112।।

राग-अड़ानौं

संग थारे चलिहौं रे बनरे।।

तुम बिन प्रान रहत अब नाहीं छिन पल हूं खन रे।।

भई मगन लखि रूप मनोहर ज्‍यों याचक अनरे।।

कन्‍हर के प्रभु कल न परति है बिना दरस मन रे।।113।।

राग-देस, ताल-त्रिताल

राम बनरे की जाउं बलिहारी।।

अरून चरन अंगुली मनोहर नख दुति जल जड़वारी।।

कंबु कंठ मनि-माल बिराजत मकराकृत कुंडल दुतिकारी।।

जज्ञोपवीत विचित्र हैम मय मनौं जलद मध्‍य धनुचारी।।

कर-कंकन मुंदरी-नग राजत अधर अरून सोभा बहुप्‍यारी।।

माथै मोर गुच्‍छ मुक्‍तनि के चंदन खौरि लसत वर न्‍यारी।।

अंग नील मनि लसत पीत पट भृकुटी धनुस नैन सर मारी।।

कन्‍हर रामरूप लखि सुन्‍दर रतिपति की छवि कोटिनि वारी।।114।।

चितवनि में चित चोरे छबीले बनरे।।

सुंदर रूप मनोहर लखि करि विवस भयौ मन रे।।

मोतिन के गजरा उर सोभित केसरी पजामा तन रे।।

कन्‍हर लखि सियराम मनोहर भये मगन जन रे।।115।।

बना छवि नैननि माझ पगी है।।

डगमगात पग धरत धरनि पर तन मन चोट लगी है।।

विवस भई री खबरि न तन की मोहनी फांसि डरी है।।

कन्‍हर मन बसि गयौ अवधप्रिय पल इक कल न परी है।।116।।

राग-झंझौटी

मिथिलापुर से अब जिनि जाउ जी बनरे।।

सुन्‍दर वदन कमलदल लोचन लखि बस भये जन रे।।

तुम बिन प्रान स्‍याम क्‍यों रहिहैं धीर नहीं मन रे।।

कन्‍हर प्रभु मुसक्‍यान माधुरी मनमथ मद हनरे।।117।।

राग-पीलू कौजिल्‍लौ

सखी री हौ मन न रहौ मेरे हाथ।।

चारौं कुंअर तुरग नचावत छवि सोभित रघुनाथ।।

लखि कर रूप बावरी हो गई लगत नहीं तन साथ।।

कन्‍हर के प्रभु मगन भई लखि गौर स्‍याम छवि गाथ।।118।।

राग-भैरवी, ताल-त्रिताल

राम पद निरखि लेउ सजनी।।

जिनिकौ वेद भेद नहिं पावत त्रिभुवन नाथ धनी।।

प्रबल प्रतापी सुत दसरथ के महिमा उदित घनी।।

कन्‍हर के प्रभु बरनि सकौ किमि रघुकुल तिलक मनी।।119।।

राग-पर्ज

सिया के पिया ने मोपै जादू सा किया रे।।

जबतै भई बावरी डोलौं लागी लगनि हिया रे।।

कहै कोऊ लखि जतन नहिं मानौं तन मन अरपि दिया रे।।

कन्‍हर अब न रहौं मिथिलापुर जैहौं संग सिया रे।।120।।

संग चलौंगी स्‍याम तेरे।।

दरस बिना छिन-छिन जुग भरि हैं बानि परे दृग मेरे।।

कोऊ कहै अब कहौ न मानौं फिरौं नहीं फिरि फेरे।।

कन्‍हर तुम बिन कल न परैगी तलफै प्राण घनेरे।।121।।

मैं छवि स्‍याम माधुरी हेरी।।

सुधि न रही आली तनक वदन की जागति भई सोते री।।

लटपट पांउ परत मारग मैं व्‍याकुल भई मति मेरी।।

कन्‍हर बात कहत सकुचावति मन न फिरै फिरि फेरी।।122।।

राग-सोहनी

स्‍याम लागनै आली नैना।।

अंजन रंजित सुंदर सोभित मारत तकि तन ऐना।।

मुक्‍तनि माल चलित उर उरझी मंद हास मृदु बैना।।

कन्‍हर कल न परति बिन देखै अब कैसे घर रहै ना।।123।।

राग-पर्ज, ताल-त्रिताल

सामरे संग चलौं मैं तोरे।।

ऐसी बानि परी रघुनंदन कल न परै मन मोरे।।

त्‍यागि दई कुल कानि बानि सब मानत नहीं निहोरे।।

कन्‍हर ऐसी ठान ठनी अब कह कोऊ लाख किरोरे।।124।।

राग-भैरौं

लगौ मन कासौं का कहना।।

रघुवर चलना सुनि-सुनि कलना क्‍यों करि घर रहना।।

बोले बोल न बोल बोलनै कैसे सखि सहना।।

कन्‍हर मिथिलापुर तजि हरि संग अवध वास लहना।।125।।

रामचन्‍द्र छवि चन्‍द्र निहारी।।

तब तै मगन भई री आली तन मन सुधि न सम्‍हारी।।

सिर पर पेच लटपटे लटकत जुलफैं झुकि घुघरारी।।

कुंडल लोल कपोलनि झलकत अधर अरून दुति न्‍यारी।।

भाल तिलक केसरि मृग मद कौ चितवनि चित मृदु प्‍यारी।।

मुक्‍तन माल लसत उर माही धनुष बान कर धारी।।

पीताम्‍बर तन लसत मनोहर घन दामिनि दुतिकारी।।

कन्‍हर रूप अनूप भूप सुत उपमा बहुत निवारी।।126।।

बना छवि लखि सखि सुंदर स्‍याम।।

मन नहिं धीर धरत है मेरौ बीतति नहिं निसि जाम।।

लसै अंग मनि नील मनोहर उपमा बहुत ललाम।।

कन्‍हर प्रभु चितवन मृदु बानी हनत कोटि मद काम।।127।।

राग-भैरौं

मनोहर सिया-राम जोरी।।

रति पति की छवि देखि लगत लघु बरनौं मति थोरी।।

रूप रासि वपु गौर स्‍याम छवि लखि सारद भोरी।।

कन्‍हर धन्य जनकपुर वासी जिनि प्रभु छवि चोरी।।128।।

स्‍याम छबीलौ बनरे।।

भूषन अंग मनिनि जुत राजत मन उड़गन घनेरे।।

रूप रासि सोभित पीताम्‍बर उपमा बहुत हनेरे।।

कन्‍हर राम मनोहर लखि-लखि अटकि रहौ मन रे।।129।।

छवि पर मोही जी बना।।

पनरथ मौर लसत मुंदरी दुति जामा ललित तना।।

अंखिअनि कजरा सोभित सुन्‍दर मोतिनि माल घना।।

कन्‍हर राम रूप अवलोकनि बहु मद मारू हना।।130।।

लाडि़लौ राम बना प्‍यारौ।।

भूषन लसत जटित तन सुन्‍दर केसरि तिलक सम्‍हारौ।।

कमल वदन मुसिक्‍यानी सखी री मन बस कियौ हमारौ।।

कन्‍हर सब मिलि लेत बलइयां लखि दुति तेज तरून हारौ।।131।।

राग-जौंनार

राम बना बनि आयौ री।।

टोरौ सिंभु धनुस कर कमलनि सबही के मन भायौ री।।

रूप मोहिनी डारि दई है चित मृदु चितै चुरायौ री।।

कन्‍हर बार-बार सखियां कहि धनि सीता वर पायौ री।।132।।

दूल्‍हा राम लला बनि आये, अवलोकि सबै सुख पाये।।

मकराकृत कानन झलकै पनरथ मुंदरी दुति ल्‍याये।।

माथै मोर मोहिनी धरि कै काजर भरि दृगन लगाये।।

गजरा गरै मौंतिनि को कर कंकन कलित सुहाये।।

सूहौ जामा सरस जरकसी पग जावक अति छवि छाये।।

कन्‍हर रघुवर बनरा ने सबकौ चित चितै चुराये।।133।।

लखि कुमर-कुमर चारौं जोरी छवि बरनति है मति‍ थोरी हो।।

बहु भूषन अंग विराजै लखि सारद मति‍ भई भोरी हो।।

दोऊ मंगल रूप सुहाये ग्रंथि चूनरि पीत पिछोरी हो।।

रचि विंजन विविध रसोई सब स्‍वाद सुधा रस बोरी हो।।

सुभ कंचन थार परोसे मिलि जेवत सखिनि निहोरी हो।।

कन्‍हर मिथिलापुर नारी हंसि अंजन आंजति चोरी हो।।134।।

राग-जौंनार

चारौं कुंअर जनक गृह आये सब सखियनि मंगल गाये हो।।

शुभ ब्‍याह विभूसन राजै उपमा विधि ढूंढ़ न पाये हो।।

माथे मौर विराजत सुंदर लखि रूप अनंग लजाये हो।।

मोतिनि शुभ माल विराजै कंकन मुंदरी छवि ल्‍याये हो।।

कुंडल पनरथ उर राजै सिर चंदन खौरि सुहाये हो।।

कन्‍हर सखियां तृन तोरैं धनि तात मात जिनि जाये हो।।135।।

राग-पर्ज

रघुवंसी राज दुलारे तुम मिथिलापुर पग धारे हो।।

तुम स्‍याम गौर चारौं भाई दसरथ कौसिल्‍या वारे हो।।

सब गावति हैं मिलि गारी अब जनक लाडि़ली पयारे हो।।

शुभ भूषन अंग विराजै छवि कोटि अनंग निवारे हो।।

कन्‍हर सखियां बलि जावें तुम हमरी तरफ निहारे हो।।136।।

राग-सोहनी

आली री बंध राम न छोरैं।।

जनक सुत कंकन नहीं करते-करते बहुतनि होरैं।।

मुंगलमय दोऊ अंग मनोहर उपमा उनि-उनि ओरैं।।

कन्‍हर आनंद अधिक जनक गृह बार-बार कर जोरैं।।137।।

राग-पूरियाई, ताल-इकतारा

राम छटा छवि मन में बसी है।।

सुन्‍दर वदन सरोरूह लोचन मुक्‍तन माल लसी है।।

अलकैं कुटिल भृकुटि वर बांकी अलिगनि पाति गसी है।।

कन्‍हर प्रभु कौ रूप मनोहर चितवनि चितहि कसी है।।138।।

राग-झंझौटी

अवधपुर कौं जिनि जाउ रे सामरे।।

विनती सुनौं सिया वर सुंदर कल्‍पवतीतत जामरे।।

रहौ मिथिला कै लै चलि सिय संग सूझै नहिं अब ठांम रे।।

कन्‍हर के प्रभु सत्‍य कहौं मैं मन जैहैं तुअ धाम रे।।139।।

मन बसि गयौ स्‍याम सलोना।।

निस-दिन भई बावरी डोलौं डारि दियौ पढि़ टोना।।

संग फिरौ अवलोकति मुख छवि ठान ठनी सोई होना।।

कन्‍हर लखि प्रभु रूप लुभ्‍यानी हृदय राखि भई मोना।।140।।

राम लला बिछुरौ मति प्‍यारे।।

तुम बिन प्रान कौन विधि रहै हू है दीन मीन जन न्‍यारे।।

निस-दिन ध्‍यान बसौ उर मेरे बिसरौ जिनि तुम पलहू बिसारे।।

कन्‍हर के प्रभु प्रान पियारे छवि पर कोटि अनंग निवारे।।141।।

स्‍याम बिन रहना नाहिं बनै।।

चलना सखी राम सिय के संग हमरे उर में यही ठनै।।

मन नहिं धीर धरत है मेरौ कोऊ कहै अब नाहिं मनै।।

कन्‍हर के प्रभु लाज काज तजि तुम्‍हरोई सरन भनै।।142।।

ध्‍यान करौ री आली राम फिरि आहै जी।।

जब-जब नृपति बुलाई सिया कहत बत दरसन पाइहै जी।।

सुन्‍दर रूप विलोकि नैन भरि आनंद उर न समाइहै जी।।

कन्‍हर मंगल होय जनकपुर चारि वेद जस गाइहै जी।।143।।

क्‍यों राखौं प्रान सखी बिन राम।।

बिसरत नहीं पलक नैननि ते बीतति नहिं बसु जाम।।

हमकौ दरस फेरि कब मिलिहै भयौ विधाता बाम।।

कन्‍हर बिना कृपा रघुवर की जीवन जग कह काम।।144।।

सुनि री सखी री औसो मन समुझाना।।

नहीं होना बावरी वधू तूं राखै री तन प्राना।।

फिरि-फिरि राम जनकपुर आहै कृपा करैं जन जाना।।

कन्‍हर के प्रभु बार-बार नृप राखहि प्रान समाना।।145।।

स्‍याम बिना घर में न रहौंगी।।

बिना दरस पल जुग सम बीतत क्‍यों करि कै निबहौंगी।।

आली सही यही मन मेरौ काके बोल सहौंगी।।

कन्‍हर हरि पद सोच विमोचन सो मैं अबसि गहौंगी।।146।।

मन तूं मानि जपौ रघुवर कौं।।

बार-बार मैं तोहि समझावत कौ चरन रज कर कौं।।

हरि बिन और तोर नहिं कोई नहिं होना घर-घर कौं।।

कन्‍हर राम नाम धनि धरि उर पार करन भव सर कौं।।147।।

मेरी ओर हेरौ सिया रघुवीर।।

काम क्रोध मद लोभ मोह की सबल जुरि तन भीर।।

यह गरजि बरजि नहिं मानत जानति नहिं पर पीर।।

कन्‍हर कौं प्रभु कौन लगावै भव सागर के तीर।।148।।