कन्हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 28
सन्त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्हर दास जी महाराज कृत
(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)
हस्तलिखित पाण्डुलिपि सन् 1852 ई.
सर्वाधिकार सुरक्षित--
1 परमहंस मस्तराम गौरीशंकर सत्संग समिति
(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)
2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्हर दास जी सार्वजनिक
लोकन्यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्द्री, पिछोर।
सम्पादक- रामगोपाल ‘भावुक’
सह सम्पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’ राधेश्याम पटसारिया राजू
परामर्श- राजनारायण बोहरे
संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)
पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com
प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्ल, श्री रामनवमी सम्वत् 2045
श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)
2 चैत्र शुक्ल, श्री रामनवमी सम्वत् 2054
सम्पादकीय--
परमहंस मस्तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्द विभोर कर रहा है।
पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्दी साहित्य में स्थान दिलाने, संस्कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्हर दास जी महाराज सम्वत् 1831 में ग्वालियर जिले की भाण्डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्मे।
सन्त श्री कन्हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्हर सागर’’ में पर्याप्त स्थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्त संत श्री कन्हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्तुत कर रहे हैं।
कन्हर पदमाल के पदों की संख्या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्या का प्रमाण--
सवा सहस रच दई पदमाला।
कृपा करी दशरथ के लाला।।
के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्त हो पाये हैं। स्व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्द्र उत्सुक के सम्पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्त्रीय संगीत की धरोहर
तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।
गुरू कन्हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्थ।।
विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्तम श्री कृष्ण का जीवन झांकी से साम्य उपस्यित करने में बाबा कन्हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।
डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्त्रीय संगीत की धरोहर कन्हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।
सन्त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्ल, श्री रामनवमी रविवार सम्वत् 1939 को पिछोर में हुआ।
नगर निगम संग्रहालय ग्वालियर में श्री कन्हर दास पदमाल की पाण्डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्वालियर द्वारा पाण्डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्त चन्दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।
पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्हर साहित्य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।
इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।
रामगोपाल भावुक
दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्पादक
राग – काफी
चरनारविन्द बरनौं रघुवर के।।
अंकुस जब के कुलिस मनोहर, कमल धुजा अम्बर के।।
ऋजुंब फल वर स्वस्ति धेनु पद, सोभित संख कलस के।।
ससुधा हद लखि अर्ध चन्द्र , चन्द्र दुति विदित सदा शुभ जस के।।
ऊर्द्ध रेख षट कोण मीन वर, लखि भाजै अघ जन के।।
अष्ट कोण त्रिकोण इन्दु, धनु, हृदै बसै मुनि जन के।।
करि – करि ध्यान धरत जे उर में, दूरि होत भ्रम भव के।।
कन्हर बार – बार जपि निसि दिन, चरन चिन्ह सिय वर के।।966।।
राग – पर्ज
रथ पर त्रिभुअन पति राजै।।
मास अषाढ़ शुक्ल द्वितीया, शुभ भूसन बर साजै।।
सोभित चमर छत्रपति सुंदर, बाजे बहु बाजै।।
ध्वजा केतु फहराति मनोहर, उपमा कहि लाजै।।
छूटत आवागमन दरस करि, भव की भय भाजै।।
कन्हर दीन जानि प्रभु हेरत, सरनागत काजै।।967।।
प्रगटे रूप वराह हरी।।
ब्रम्ह अंग ते निकसि मनोहर, सोभित मनहु करी।।
बैठि पताल खोजि करि वसुधा, दंतहि अग्र धरी।।
गरजि – तरजि हिरनाछिक ठोरा, प्रभुसन रारि परी।।
छल बल करि के बहु जुध कीनौ, मारौ दुष्ट अरी।।
लै करि धरा सीस सिर धारी, देवनि सुमन झरी।।
भयौ आनंद लोक त्रिभुअन में, वेदनि जस उचरी।।
कन्हर जय – जय शब्द भयौ है, लखि कर सुभग घरी।।968।।
राग – रागश्री, ताल – चौतारा।।
भक्त हित नरहरि रूप धरी।।
शुक्ल पक्ष वैसाख मास सुभ, चतुरदसी दिन अस्त घरी।।
हिरनाकुस कौ उदर विदारौ, राखौ प्रन प्रहलाद हरी।।
वरषत पुष्प देव मुनि हर्षत, लोक – लोक जय शब्द करी।।
सिवि सनकादि अमर ब्रम्हादिक, अस्तुति करि मन हर्ष भरी।।
कन्हर प्रभु सेवक करूणा सुनि, पल में विपति मेटि सबरी।।969।।
नरहरि हरि रूप धरौ, अहि महि कौ भार हरी,
त्रिभुवन में है उदित विदित, ऐसी प्रभुताई।।
कीनौ प्रहलाद अभय खंब फारि, प्रगटे गोद लियौ,
मोद कियौ, आनन्द उर छाई।।
हिरनाकुस मारौ प्रभु, गिरा राखी,
सुर नर मुनि सुख दियौ, हरषे गुन गाई।।
कन्हर जय शब्द भयौ, लोक – लोक पूरि रहौ,
संकर सनकादि आदि रहे ध्यान ल्याई।।970।।
नरहरि खंभ कौ फारि प्रकासे।।
हिरनाकुस प्रहलाद सतायौ, बहुतक त्रासनि त्रासे।।
खंभनि परावत खड्ग बतावत, मानत नहिं काल नियरासे।।
कन्हर प्रभु प्रह्लाद सम्हारे, निकसि दुष्ट सब नासे।।971।।
अदिती के गृह में प्रकट भये हरि आई।।
भादौं द्वादसी स्रवन जुत, मध्य भानु बिलमाई।।
वामन रूप बहुत प्रिय शोभित, देवन मन भाई।।
कन्हर जय – जय शब्द भयौ है, त्रिभुवन में छाई।।
राजत सुंदर रूप सुहाई, वामन वलि गृह आई।।
कहि नृप मांगि देउ द्विज सोई, मैं बहु सुख कौं पाई।।
दीजै तीनि पैर महि हमकौं, निकट कुटीर है छाई।।
सुनि कै वचन राउ हर्षानौं, देवराज मन भाई।।
कहत शुक्र जाचिक मति जानौं, आये देव सहाई।।
भूपति कहैं धनि भाग हमारौ, दयौ दान हरषाई।।
बाढ़ौ वपु सोभित त्रिभुअन में, देव पुष्प झर लाई।।
ढाई पैर करी सब वसुधा, दई पीठि अनराई।।
कन्हर जय – जय शब्द भयौ है, पूरौ त्रिभुअन जाई।।972।।
हरि नै कछप रूप धरौ।।
रतन हेत दधि मथन कियौ है, सबकौं हर्ष भरौ।।
फन तन असुर पूंछ तन देवा, ऐसौ मत उचरौ।।
श्रीमन विधु अमृत विष हय गज रंभा रूप खरौ।।
संख धुन समद कल्प धेनु वर, वैद्य अंस औतारौ।।
सुंदर मोहनि रूप धरौ प्रभु, सबकौ मानि हरौ।।
कन्हर सुरहित करूणानिधि , दैत्यनि गर्भ हरौ।।973।।
राग – रागश्री, ताल – चौतारौ
वैनु तनु तै प्रगटे है प्रथु आई।।
जासु प्रताप भयौ त्रिभुअन में, उपमा बहु कवि गाई।।
लखि करि तेज धरा अकुल्यानी, धेनु रूप धरि जाई।।
दुहि करि प्रथी लीये रस, सुंदर आनंद उर न समाई।।
जथा जोग बहु बांटि दिये हैं, तृप्त किये समुदाई।।
सप्त दीप में चक्र फिरत है, सबकौ अभय कराई।।
सोभित उदयभानु मनु दूजौ, मैटि तिमिर हरषाई।।
कन्हर जय – जय भनै देव सब, ब्रम्हा कहि समुझाई।।974।।
प्रगटे हरि कर्दम गृह आई।।
देवहुती उर हर्ष भयौ बहु, मानहु निधि पाई।।
तात मात सुख दियौ कृपा करि, त्रिभुअन जस छाई।।
कपिलदेव शुभ नाम मनोहर, मुनि गन मन भाई।।
मातु ग्यान उपदेश दिया कहि, सुनि करि हरषाई।।
अग्या मांगि चले तपहित वन, हरषि हृदय ल्याई।।
गंगा निकट भूमि अति पावन, धरौ ध्यान जाई।।
कन्हर उग्र कियौ तप सुंदर, वेदनि जस गाई।।975।।
सोभित मछव रूप हरी।।
कस्यप अंजुलि प्रगट मनोहर, सुंदर रूप धरी।।
हरि वेदन लै गयौ पताले विस्मय देव डरी।।
बैठि पताल मारि संखासुर, वेदनि प्रगट करी।।
जय – जय शब्द भयौ त्रिभुअन में, मारौ दुष्ट अरी।।
कन्हर देव पुष्प झर वरषत, आनंद देखि घरी।।
जमदग्नि सुनी गृह में, प्रगटे परसराम आई।।
जय – जय शब्द भयौ त्रिभुअन में, देव पुष्प झर ल्याई।।
मातुबंध वध कियौ हर्षि उर, पितु अग्या कौ पाई।।
भये प्रसन्न मुनि मांगि – मागि वर, तुम्हरे मन जो भाई।।
देउ जियाइ कृपा करि इनकौ, मांगहु नाथ सुहाई।।
छत्रिनि मारि निछत्री करि महि, विप्रनि दै सुखदाई।।
करनी कठिन भेष मुनि सोभित, महिमा वर कवि गाई।।
कन्हर जे कोऊ ध्यान धरत है, भव की भय मिटि जाई।।976।।
बोध रूप प्रगटे हरि आई।।
जगन्नाथ बलभद्र सुभद्रा, तीर महोदधि छाई।।
सिव सनकादि अमर ब्रम्हादिक वेद पार नहिं पाई।।
कन्हर जे कोऊ ध्यान धरत है, ते भव पार कराई।।977।।
जय – जय जगन्नाथ सुखरासी।।
जिनिके नाम निरंतर मुनि गन, बरनै गुन हरषासी।।
छूटत आवागमन दरस करि, भव के भ्रम न सासी।।
अंग विभूषन जटित मनोहर, हीरा मस्तक जासी।।
ओड़ीसा निज पुरी लसति है, निकट महोदधि पासी।।
षट पंचासत भोग लगत है, नाना विधि के आसी।।
नारदादि सनकादिक सुंदर, ध्यान धरत कैलासी।।
कन्हर देव मगन मन हरषत, मंगल आरति गासी।।978।।
राग – सोहनी
भये मौंन काये बोलत नाईं।।
जगन्नाथ बलभद्र सुभद्रा, राजत जन सुखदाई।।
पश्चिम दिसि हनुमान विराजत, ध्यान मगन मन ल्याई।।
दरसन करत मुक्ति फल पावत, वेद कहत शुभ गाई।।
नीलचक्र पर ध्वजा मनोहर, निकट गरूड़ मन भाई।।
अरसठ तीरथ विमला बानी, लोकनाथ छवि छाई।।
मंडप सभा अछैवट सोभित, निकट महोदधि पाई।।
कन्हर सिंध पौरि दुति राजति, बरनत मति सकुचाई।।979।।
बोध रूप जगदीस ईस हरि, नीलांचल पर राजै।।
जगन्नाथ बलभद्र सुभद्रा, नाम लेत अघ भाजै।।
संखाकृत शुभ पुरी लसति है, निकट महोदधि गाजै।।
कन्हर प्रभु कौ नाम लेत ही, सुफल होत सब काजै।।980।।
हरीह निहि कलकि रूप धरिहैं।।
दुष्टनि मारि अभय करि निज जन, लीला वर करिहैं।।
भुवि कौ भार उतारि कृपा करि, अघ समूह टरिहैं।।
कन्हर आनंद होय तिहूं पुर, सबकी भय हरिहैं।।981।।
हरि ने हंस सरूप मनोहर धारौ।।
सनकादिक कौ करि उपदेसहि, मन कौ भ्रम टारौ।।
जिनि कौ नाम लेत अघ भाजत, तन दुति ससि वारौ।।
कन्हर भये अनंद देव लखि, जय – जय शब्द उचारौ।।
अंस कला करि प्रगट भये हरि, रूप धन्वतर धारे।।
वैद्यक ग्रंथ सोधि कर सुंदर, जग कारन विस्तारे।।
ओषध नाम पृथक कहि – कहि कै, रोगादिक सब टारे।।
कन्हर प्रभु कौ नाम जपत ही, भव बाधा निरवारे।।982।।
राग – सारंग
बद्रीनाथ नारायन के गुन, भनत वेद वर बांनी।।
जग उपदेस हेत तप कीनौ, मुनि सनि मति हरषानी।।
मन क्रम वचन करंत जो सेवा, राखत निज पद आंनी।।।
कन्हर प्रभु कौ नाम जपत ही, अघ के पुंज नसानी।।983।।
नारायण बद्रीनाथ सुहाये।।
निकट हिमालय सोभित सुंदर, मुक्तिद्वार वेदनि जस गाये।।
प्रगटी गंग चरन कमलनि ते, नाम अलखनंदा शुभ पाये।।
तपत कुंड तप तेज विराजत, भूमि पवित्र सदा मन भाये।।
जोग ध्यान जुग जुगनि उग्र करि, मुनि मन बहु सुख पाये।।
आसन पद्म जोग उर धारै, मुनि मन मगन देखि हरषाये।।
पूजन करत देव मुनि नारद, चरन सरन लौ ल्याये।।
कन्हर जे कोऊ सरन तकत है, तिनिकौं भवते पार कराये।।984।।
राग – भैरौं
हरि धरि व्यास रूप प्रगटे हैं।।
पर उपकार पुरान अठारह, सुंदर कहि बरने हैं।।
अर्थ धर्म शुभ काम मोक्ष फल, ध्यान धरत ही पैहैं।।
कन्हर प्रभु के चरित्र मनोहर, सुनि – सुनि भव तरि जैहैं।।985।।
बलिदाऊ की सुंदर महिमा, कहि न सकत कवि गाई।।
तन धन स्याम सरोरूह लोचन, सेस रहे छवि लयाई।।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, मुक्तनि माल सुहाई।।
कन्हर प्रभु कौ नाम जपत ही, भव बाधा मिटि जाई।।
वासुदेव वसुदेव भवन में, जन्म लियौ हैं आई।।
भादौ वदी बुधवार अष्टमी, लगन जोग समुदाई।।
आधी रैन मेघ बहु छाये, चपला चमकि सुहाई।।
लै वसुदेव चले गोकुल कौं, लखि जमुना हरषई।।
धरौ प्रवाह चरन छूवे कौं, तात देखि अकुलाई।।
पित भययुक्त जानि त्रिभुअन पति, चरन परसि सुख पाई।।
माया रचित मोहि करि सबकौ, प्रगटे गोकुल जाई।।
कन्हर जय – जय शब्द भयौ है, आनन्द उर न समाई।।986।।
गोकुल कौं, लखि जमुना हरषाई।।
धरौ प्रवाह चरन छूवै कौं, तात देखि अकुलाई।।
पित भययुक्त जानि त्रिभुअन पति, चरन परसि सुख पाई।।
माया रचित मोहि करि सबकौ, प्रगटे गोकुल जाई।।
कन्हर जय – जय शब्द भयौ है, आनन्द उर न समाई।।
987।।
गोकुल आनंद आजु छाइ रहौ माई।।
मंगल भरि थार नारि, सजि – सजि सब ल्याई,
करैं गान हरषवान सुंदर मन भाई।।
बाजे बहु बजत ताल सोभित नंद के दुआर,
पूरि रहौ त्रिभुअन में छाई।।
संकर सनकादि आदि नर तन धरि आये,
कन्हर सब भूलि रहे, लखि आनंदताई।।988।।
बधाई बाजत नंद दुआर।।
आनंद पूरि रहौ त्रिभुअन में, हरि लीनौ औतार।।
बरसत पुष्प देव मुनि हर्षत, जय – जय करत उचार।।
कन्हर भुव कौ भार उतारन, प्रगटे जीवन सार।।989।।
राग – सिंधु, ताल – भैरवी
सखी री आजु नंद घर आनंद बधाई।।
देत दान महि देवनि सुंदर, सुख भरिपूरि रहाई।।
बन्दीजन गंध्रव गुन गावत, महिमा कहि हरषाई।।
मंगल गान करत बृज वनिता, आनंद उर न समाई।।
जय – जय शब्द भयौ त्रिभुअन में, बरनि वेद जस गाई।।
कन्हर सिव सनकादि आदि सब, ध्यान मगन मन ल्याई।।990।।