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नो गधा बनाइंग

गधा देश में यूं तो पूरे समय ही राजनीति की बहार रहती है परंतु चुनाव की आहट के साथ ही साथ गधों को गधा बनाने की पूरी राजनीति प्रारंभ हो जाती है । गधा देश के नेता अपने आप को जनता से अलग समझते हैं । ऐसे नेता जनता को जनता न समझ कर वोट बैंक समझते हैं । ऐसे नेता देश के गधों को उनकी जाति और नस्लों में बांट कर देखते हैं । वे अलग-अलग नस्लों के गधों को लुभाने के लिए अपनी पसंद का चारा चुनाव के समय उनके सामने डालने का प्रयास करते हैं । गधे को गधे तो ठहरे । उन्हें तो बस अपने सामने का चारा दिखाई देता है और वह भी वोट बैंक बनने को तैयार हो जाते हैं । ऐसे गधों का जितना बड़ा समूह होता है उस वोट बैंक को लूटने के लिए नेताओं में उतनी अधिक होड़ मची है।
गधा देश में ऐसा नहीं कि केवल गधे ही रहते हैं । यहां अन्य प्रजाति के जानवर भी रहते हैं लेकिन वह अपने-अपने समूहों में हैं। उनमें जातिवाद, नस्लवाद और सांप्रदायिकता दिखाई देती है । इस तरह देखा जाए तो अन्य जानवर भी गधों की तरह ही व्यवहार करते हैं । गधा देश में बातें तो गैर सांप्रदायिक होने की होती हैं वास्तव में यहां का तंत्र सांप्रदायिक ही है । यह समझना बहुत मुश्किल है कि यहां नेता गैर सांप्रदायिक होने का मुखौटा लगाकर क्यों घूमते हैं ।
चुनाव की घोषणाओं के साथ ही बड़े-बड़े नेता विभिन्न जाति, प्रजाति और वर्गों को लेकर अपनी -अपनी बयानबाजियां तेज कर देते हैं । इससे वे यह जताना चाहते हैं की वह किस वर्ग के हितैषी हैं । गैर सांप्रदायिक देखकर व अन्य वर्गों को भी गधा बनाने का प्रयास करते रहते हैं । वास्तव में तो वे किसी वर्ग के हितैषी नहीं होते, उन्हें तो बस चुनाव जीतने और उसके बाद मलाई खाने की पड़ी होती है । सत्ता में बैठे नेता अलग-अलग वर्गों के लिए लाभकारी योजनाओं की घोषणा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए करने लगते हैं । वे सैकड़ों योजनाओं का शिलान्यास एक दिन में करने लगते हैं । इसका असर भी दिखाई देता है । विभिन्न जातियों के मठाधीश अपनी - अपनी जातियों के लिए अपील जारी कर ,किसी विशेष पार्टी को विजय दिलाने की सिफारिश करने लगते हैं । आम गधे और अन्य जीव यह समझने लगते हैं कि शायद इस में ही हमारा भला हो बस में खामोशी से कथित पार्टी के पीछे -पीछे चलने लगते हैं ।
इधर नेता भी राजधानी के चक्कर लगाने लगते हैं । पार्टी में टिकट का जुगाड़ करने के लिए तिकड़म भीड़ाने लगते हैं । पैसे के लेन-देन से लेकर जाति , बिरादरी और दूसरों के लिए अड़ंगेबाजी का सहारा लेते हैं । पार्टियां भी अपने नेताओं को बहुत अच्छे से जानती हैं। वे उनकी आपराधिक प्रवृत्ति, उनकी जाति और खर्च करने की क्षमताओं को पहचानती है । सब कुछ देखते हुए पार्टियां जाति समीकरण को ध्यान में रखकर उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला लेती है । उम्मीदवार यदि अपराधी है तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, बस उसके पास अपनी जाति का भरपूर समर्थन होना चाहिए टिकट के वितरण के साथ ही यह गणना भी प्रारंभ हो जाती है कि किस जाति के कितने प्रतिशत मतदाता हैं और कौन सी जाति निर्णायक भूमिका निभाएगी इस पूरी रस्साकशी के बीच जनता से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करने का औचित्य ही समाप्त हो जाता है । चुनाव के पहले जिस महंगाई को कम करने की बात होती है । चुनाव के ठीक बाद वहीं महंगाई हमेशा बढ़ जाती है । सड़क, बिजली ,पानी, भूख और गरीबी ऐसे मुद्दे हैं जिसके लिए अनेकों वादे और घोषणाओं के बाद भी आज तक गधा देश की बहुत बड़ी आबादी इन समस्याओं से जूझ रही है । हर चुनाव के पहले गधों को कोई लैपटॉप ,तो कोई चावल और कोई कंबल बांटता है । गधे इन वस्तुओं को अपने गले में लटका कर घूमते हैं और समस्याएं जहां की कहां रहती हैं । पार्टियों के घोषणा पत्रों को उठाकर देखें तो बीस साल पहले की घोषणा है ;आज भी शब्दों के हेरफेर के साथ आपको दिखाई दी जाएंगी । याने आपके पिताजी को जिन वादों से बेवकूफ बनाया था ; आज आपको भी उन्हीं वादों और घोषणाओं से उल्लू और गधा बनाने की कोशिश की जा रही है । अब बस ....बहुत हुआ आपने गधों को बहुत गधा बना लिया । अब तो हमें नया आइडिया आया है । अब आप जब भी हमसे मिलोगे हम अपनी समस्याओं के बारे में आपसे पूछेंगे ही । हम पूछेंगे आपने वादे पूरे क्यों नहीं कीए? हम यह भी पूछेंगे की हमारी सड़कें कहां गई ? हम यह भी पूछेंगे की हमारे हिस्से का पानी कहां गया ? हम यह भी पूछेंगे की हमारा रोजगार कहां है ? हम अब आपकी बकवास सुन - सुन कर उक्ता चुके हैं । अब आपको हमारी सुनना होगा; वरना जाना होगा । अब आप हमें जाति ,बिरादरी ,वर्ग और संप्रदाय के नाम पर गधा और उल्लू नहीं बना पाएंगे । अब हम आपसे खुलेआम कहते हैं..... सावधान नो गधा बनाइंग नो उल्लू बनाइंग ।
आलोक मिश्रा "मनमौजी"

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