कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 13 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 13

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 13

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – कालंगड़ा, ताल – त्रिताल

यह मन मानत नहीं छली।।

मधुकर भयो नेही अब डोलत, फिरत कली – कली।।

थिर ना रहता मैं बहु कहता, यों द्रुम पता चली।।

हरि पद जपता तो नहिं भ्रमता, कन्‍हर चूक गली।।402।।

ऐसी प्‍यारो बनरा राम सलौना।।

मिथिलापुर में आय सखी री, सब पर कर मनु टोना।।

रही न लाज काज तज आई, कहो कहा अब हौना।।

कन्‍हर बार- बार अवलोकत मृगपति गति कर दौना।।403।।

नीको लागे बना सिया जी को।।

बोलन मृदु मुसक्‍यान माधुरी, मन सुन होत अली को।।

देह गेह बस नेह भुलानो, चलत भयो प्रण पी को।।

कन्‍हर भूल गयो सबको सब, धर्म अचल चलनी को।।404।।

राग – कालंड़ा, ताल – त्रिताल

सियाजी आली सुघर बना पायो।।

सुन्‍दर बदन दिखाय मनोहर, सबको मन भर पायो।।

रही न लाज कान गुरूजन की, पतिव्रत धर्म चलायो।।

लटपट होत जाति गति गलियन, ता तन मृदु मुसक्‍यायो।।

बिसरत सुरत खबर नहिं तन की, ऐसो मंत्र पढ़ायो।।

कन्‍हर निरख – निरख रघुवर छवि, मैन जान उरझायो।।405।।

रघुवर अजब बना बनो माई।।

ब्‍याह समय के भूषन राजत, जन उड़गन घन छाई।।

पीत बसन कोटिन दुति दामिनि, उपमा बहुत लजाई।।

शोभित अधर मकर जुलफिन बिच, मंद – मंद मुसक्‍याई।।

अंजन दृगन लसत मुंदरी नग, जावक पगन सुहाई।।

कन्‍हर छवि अवलोक माधुरी, बिसरत नहिं बिसराई।।406।।

राग – झंझौटी, ताल – त्रिताल

छिन – छिन आली दृगन हरि हेरौ।।

अन्‍तर दाह अन्‍त ना रैहै, कहौं पुकार घनेरौ।।

फिर – फिर औसर यह ना मिलिहै, कहौ मान लेउ मेरौ।।

कन्‍हर जनकतनया कारन, राम लला पग फेरौ।।407।।

राग – देश

कहु री सखी री कब मिलिहैं रघुवीर।।

बिन देखे वह सामरी मूरति, नैन धरत नहिं धीर।।

हमरी सुधि बिसराई दई री, कस हो गये बेपीर।।

कन्‍हर मिथिलापुर के बासी, बिलक मीन जिमि नीर।।408।।

अवध गलिन खेलत रघुराई।।

भरत लखन रिपु सूदन सुंदर, पुरजन जन बलि जाई।।

बैजन्‍ती बनमाल डुलति उर, श्रवण मकर झलकाई।।

सखा संग सब एक उमर के, रूप अनूप सुहाई।।

छवि की छटा राम की तिन महं, कोटि मदन सकुचाई।।

कन्‍हर मुनि मन तृपित होत नहिं, अवलोकत हरषाई।।409।।

राग – देश

सुरग तुरग चढि़ राम फिरावत।।

संग अनुज औ सखा मनोहर, सरजू तट नित आवत।।

मुक्‍तन माल झलक रही उर में, कुंडल लोल सुहावत।।

कटि पट पीत तूण दो बांधे, क्रीट मुकुट मन भावत।।

धनुष बान कर कमलन तानत, चितवन मृदु मुसक्‍यावत।।

कन्‍हर सब मिलि हंसत परस्‍पर, सबको सुख उपजावत।।410।।

राग – पूर्वी, ताल – त्रिताल

अंत संग कर को काके जाइ्।।

ना संग आयो ना संग जैहै, पंथी पंथ मिलत जिमि आई।।

तात भ्रात सुत बित सब त्‍यागत, तब हरि होत सहाई।।

कन्‍हर चेत कहत अब तो सों, फिर पीछे पछिताई।।411।।

राग – पूर्वी, ताल – त्रिताल

सुमिर मन रे राम गरीब निवाज।।

भारत अरज भार ही कीन्‍हीं, सुन लीनीं महाराज।।

गरूड़ बिहाइ पियादे धाये, कर दीनों गज काज।।

द्रुपद सुता अहं अम्‍बर बाढ़ौ, देखत सकल समाज।।

अभय करत फिर भय नहिं राखत, भव नद नाम जहाज।।

कन्‍हर दीन पीन कर दीने, सबकी राखी लाज।।412।।

सुमिर मन रे जानकी बल्‍लभ राम।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल, नूपुर पगन ललाभ।।

भूषन बसन अंग अंगन पर, शोभा वर सुख धाम।।

डारों वारि माधुरी छवि पर, कोटि कोटि विकाम।।

जम के दूत निकट नहिं आवत, सुन – सुन ऐसो नाम।।

कन्‍हर राम लखन वैदेही, अवलोकहु बसु याम।।413।।

राग – कालंगड़ा , ताल – त्रिताल

लखे री मैंने तुरंग नचावत राम।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल, नूपुर पगन ललाम।।

धनुष बान कर कंज माल उर, शोभा वर सुख धाम।।

कन्‍हर निरखि – निरखि रघुवर छवि, लजित भयो मन काम।।414।।

राग – आसावरी, ताल – त्रिताल

श्‍याम नहिं आये मेरी सुधि बिसराई।।

कौन वन ढूंढन जाउं सखी री, ऐसो जिय तरसाई।।

व्‍याकुल भइ खबर नहिं तन की, कैसे तपन बुझाई।।

कन्‍हर ऐसी प्रीति कहां की, मिलकर के बिलगाई।।415।।

राग – ईमन (यमन )

ऐसी गहन गही श्‍याम सुधि न लई।।

जब से गये फिर पतियां न बतियां, वे बातें बिसराई।।

झूठी प्रीति प्रतीत करी री, तासों गति‍ यह भाई।।

कन्‍हर के प्रभु वेग मिलो अब, नहिं फिर प्रानन पाई।।416।।

राग – सोहनी

हरि अबकी बार उबेरो।।

फिर भ्रम परिहों तो मैं भरिहौं, कीजे नहीं निबेरो।।

दीनदयाल कहा अब हेरत, कह अब सांझ सबेरो।।

कन्‍हर चूक माफ अब कीजे, नहिं प्रभु करौ अबेरो।।417।।

मन दृढ़ करना डरना ना जी।।

जो उर धरना सोई करना, या मन की राजी।

राम नाम को सुमिरन कर ले, तासों भ्रम भाजी।।

कन्‍हर दो दिन कह यह मेला, जिन होय अघ साजी।।418।।

राम सिया पद पल न बिसारी।।

पद रज परस अहिल्‍या तारी, गौतम श्राप निवारी।।

मुनि मन मधुप चरन कमलन महं, निशि – दिन रहत सुखारी।।

कन्‍हर नीक सीख हरि पद जपि, सुन्‍दर मंगलकारी।419।।

राग – सोहनी

कब लैहो म्‍हारी सुरति हरी।।

बाट विलोकत बहु दिन बीते, का तकसीर परी।।

करूणा सुनकर द्रवत दीन पर, पल में सब सुधरी।।

दीनदयाल खबर अब लीजो, मैं बहु – बहु गगरी।।

मोसे अधम बहुत तुम तारे, अब कस देर करी।।

कन्‍हर अघ बस बसौ कृपानिधि, लेउ खबर हमरी।।420।।

मन तू अपनी कही करी।।

मेरी कही करी नहिं तूने, निकसी जात घरी।।

मेरी-मेरी कह-कह हेरी, ऐसी धरण धरी।।

मृगतृष्‍णा लगि यूं मृग धावत, यौं यौं भरम परी।।

जब डेरा से कूंच होयगो, पड़ी रहे नगरी।।

कन्‍हर अब तूं समझ परै तौ, जप लै हरी – हरी।।421।।

राग – देश जंगला, ताल – त्रिताल

अब कब हमरी राम बनेगी।।

अब जग नाथ निबाह नहीं है, कहं लग तान तनेगी।।

नाम कहत सबकी ही बन गई, हमरी कस न बनेगी।।

कन्‍हर अरज करत हरि तुमसों, कब मति गुनन भनेगी।।422।।

पति हमरी हरि सरन रहेगी।।

अग जग अगम कौन निरवारे, ना तर बात बहेगी।।

मान – मान मन तोहि समझावत, वा दिन कठिन परेगी।।

कन्‍हर तकौ सरन रघुवर कौ, अनत न विपत घटेगी।।423।।

मन तू समझि – समझि अपना रे।।

महा मोह अज्ञान धार भव, ता कहं कस जपना रे।।

मानो कहा कहा अब तोसों, जगत मांह नहिं गपना रे।।

कन्‍हर हरि – हरि नाम जपत ही, छूटत भव तपना रे।।424।।

मन संग कहना बहना, राम सरन लहना।।

भ्रम बन फिरना थिरना लहना, चंचल अरू चहना।।

तृष्‍णा लागा मृग यों धावा, झूठा जग गहना।।

कन्‍हर प्रभु को नाम सार कह, अधम घना रहना।।425।।