Kanhar Pad mal- Pad- based on classic music - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 12

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 12

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – राग श्री, ताल – चौताला

राम रूप निरख भूप अद्भुत शोभा, अनूप सुन्‍दर सुख पाई।।

शोभित उर मनिन माल बांकी भृकुटी विशाल,

केसर कौ तिलक भाल कुंडल झलकाई।।

पहुंची कर वर ललाम क्रीट मुकुट धनुष बान,

देख – देख लजित मारू मन में सकुचाई।।

कन्‍हर घनश्‍याम अंग मनहुं पीत तडि़त रंग,

चन्‍द्र सौं मुखारविन्‍द निरखैं बलि जाई।।364।।

राग – आसावरी, ताल – चौताल

रामकुंवर अवलोक नैन भर, कहिय न परत रही सकुचासी।।

श्‍याम गौर अंग संग सुन्‍दर वर दोई।।

बरनि न जाई छटा नयनन उर झांसी।।

क्रीट मुकुट धनुष बान रिपुशील के निधान,

बांकी भृकुटी विशाल कुण्‍डल झलकासी।।

शोभित उर मनिन माल पीतांबर लसत गात,

ऐसी छवि देख – देख कन्‍हर बलि जासी।।365।।

राग – पूर्वी, ताल – चौतारा

देखो री सखी धाई – धाई, रघुवर छवि सुन्‍दर सुख धामा।।

वन ते आवत तुरग नचावत, शोभित उपमा बहुत ललामा।।

सिर पर क्रीट लट परी जुलफें, मुक्‍त माल उरझी तन श्‍यामा।।

कन्‍हर के प्रभु कयों कहि बरनों बिसरत नहीं पलक प्रिय रामा।।366।।

राग – राग श्री, ताल – चौताला

नरहरि हरि रूप धरौ अहि महि कौ भार हरौ,

त्रिभुवन में है उदित विदित ऐसी प्रभुताई।।

कीन्‍हौं प्रहलाद अभय खम्‍भ फार प्रकट भये,

गोद लियो मोद कियो आनंद जस छाई।।

हिरनाकुस मारौ प्रभु ब्रम्‍हा गिरा सांचि करी,

सुर नर मुनि सुक्‍ख दियो हरषे गुन गाई।।

कन्‍हर जय शब्‍द भयो लोक- लोक पूरि रह्यौ,

शंकर सनकादि आदि रहे ध्‍यान ल्‍याई।।367।।

राग – ध्रुपद गौंड़, ताल – चौतारा

झूलत राम हिंडोरैं घन गरजत चहुं ओरें,

वदन चंद्र छवि लाजत है री उपमा बरनत थोरें।।

बोतल दादुर चकोर शोभा सरवर सरोज,

सरजू करत मधुर घोर करत मोर सोरे।।

बरषै मेघ लूम झूम हरी-हरी रचित भूमि,

दामिनी की दमकि जोर लता लूमि कोरें।।

कन्‍हर लखि राम रूप मगन भये देव जूथ,

हरषि – हरषि बरष पुष्‍प इक टक – छवि चोरें।।368।।

राग – गौड़, ताल – ध्रुपद इकतारा

घन गाजि – गाजि साजि – साजि अवध निकट रहे आई,

शोभा छवि छाइ छाइ सबही मन भाये।।

पावस झकझोर जोर बोलत चहुं ओर मोर,

सरजू कर मधुर सोर उपमा वर लाये।।

शोभित वर लता कोर बोलत चातक चकोर,

भ्रमत भ्रमर करत सोर मानहु गुन गाये।।

कन्‍हर रघुनाथ गाथ बार – बार निरख तात,

आनंद रहौ छाइ गात मुनि जन सुख पाये।।369।।

राग – झंझौटी, ताल – तितारा

क्‍यों राखौं प्राण सखी बिन राम।।

बिसरत नहीं पलक नयनन तें, बीतत नहिं बसु जाम।।

हमको दरस फेर कब मिलिहैं, भये विधाता बाम।।

कन्‍हर बिना कृपा रघुवर की, जीवन जग कह काम।।370।।

राग – झंझौटी, ताल – तितारा

सुन री सखी री ऐसो मन समुझाना।।

नहीं होना बावरी वधू तूं, राखौ री तन मन प्राना।।

फिर – फिर राम जनकपुर आहें, कृपा करें जन जाना।।

कन्‍हर के प्रभु बार – बार नृप, राखहिं प्रान समाना।।371।।

संग सहेली सिया जी की झरोखन झांकै।।

अवलोकत रघुवीर बदन छवि, भाव रहौ जस जाकै।।

बिसर गई सुधि सदन बदन की, बचन न आवत आकै।।

कन्‍हर को मिथिलेस सरस जग, दूल्‍हा बने हरि ताकै।।372।।

अवलोको छवि आली सियापति एही।।

लै लेउ री लोचन कर लाहू, ये प्रिय परम सनेही।।

मुनि मख राखि अहिल्‍या तारी, आये सुनि प्रण तेही।।

कन्‍हर लोक चतुर्दश सेवत, प्रकट नृपति हित वेही।।373।।

राग – झंझौटी, ताल – तितारा

निमि नृप कुल उजियारी मिथिलेस कुमारी।।

रटत वे अरू भेद न पावत, नेति – नेति कवि हारी।।

हरण भार अवतार सखी री, मात पिता सुखकारी।।

कन्‍हर बार – बार अवलोकत, प्राणन तै प्रिय प्‍यारी।।374।।

राम रूप अवलोकें जनकपुर नारी।।

अटा चढ़ी सब छटा निहारें, गावत मंगल चारी।।

दुर्लभ दर्श सखी हम तुम्‍ह कहं, धन्‍य मिथिलेस कुमारी।।

कन्‍हर आनंद छाय रहौ है, प्राण करत बलिहारी।।375।।

दूल्‍हा बनौ राम पियारौ।।

अपने बस कर लिये सकल जन, चेटक सौ पढि़ डारौ।।

बिसरत नहीं पलक नैनन तें, दशरथ राज दुलारौ।।

कन्‍हर धन्‍य मिथिलेस किसोरी, जिहि कारण पग धारौ।।376।।

राग – काफी, ताल – तिताला

श्‍याम छवीलौ बना न भावना।।

बदन कंज जुल्‍फें वर अलिगन, चलन मन हरन ल्‍यावना।।

अधर दशन धुति तडि़त विनिन्दित, मंद हास मुसक्‍यावना।।

बाजूबंद फंद रति पति के, मनि उर माल सहावना।।

गज आरूढ़ जनक गृह आये, दरस हेत सखि धावना।।

कन्‍हर रूप निरख रघुवर कौ, जहं तहं मंगल गावना।।377।।

राग – देश, ताल – तिताला

दूल्‍हा बन आयौ दशरथ राज किशोर।।

शशि मुख भाम कुमकुमा वर दुति, सखि चितवन चितचोर।।

माथे मोर जटित नग हीरा, गज मुक्‍तन की कोर।।

कन्‍हर तन घन लसत पीत पट, निरख मगन मन मोर।।378।।

राग – झंझौटी, ताल – तितारौ

राम हमारे मो कों शरण बसइयो जी।।

अपनी ओर कृपा कर राखो, भव के भरम नसइयो जी।।

मैं तो बार – बार बिनवों प्रभु, अब जनि त्रास त्रसइयो जी।।

कन्‍हर की हरि अरज यही है, नहिं जग लोग हंसइयो जी।।379।।

जपना रे मन प्राणी बड़े शिव दानी।।

राम नाम उपदेस करत हैं, हृदय बहुत सुख मानी।।

ऐसो समरथ और न जग में, बरनत वर मुनि ज्ञानी।।

कन्‍हर वेद भेद नहिं पावत, शारद शेष बखानी।।380।।

राग – भैरव

आली मुसक्‍यात जात रघुराई, मैं बरनि सकौ किमि गाई।।

वन ते आवत तुरंग नचावत, रज उड़ जुलफन छाई।।

इत उत झांकत मोद बढ़ावत, लख मन रहम लुभाई।।

मुक्‍तन माल उरझ रही उर में, लट पट पेच सुहाई।।

कन्‍हर राम दरस के खातिर, ये नयना तरसाई।।381।।

राम धनुष बान लिये कर में।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुन्‍डल, पुष्‍प माल उर में।।

काछे कटि काछिनी जरकसी, गुच्‍छ लसै सिर में।।

कन्‍हर छवि अवलोक लाल की, मन न लगै घर में।।382।।

राग – पीलू, ताल – कोजिल्‍लो

राम कब करिहौ अवधपुर वासी।।

सुन्‍दर जल सरयू कौ अचवन, सियवर चरण सुपासी।।

बहु जनमन की बिगरी सुधरत, बरनत निगम प्रकासी।।

कन्‍हर धन्‍य घड़ी जग जन्‍मे, बस छिन पल न बिहासी।।383।।

मन तू राम नाम रस पीना।।

त्‍याग – त्‍याग अब वारि विषय कहं, बस मति होय जो मीना।।

झूठो ख्‍याल व्‍याल और रजु कौ, जन्‍म मरण जग कीना।।

कन्‍हर समुझ जपो सियवर कों, छिन मति होय न विहीना।।384।।

राग – पीलू, ताल – कोजिल्‍लो

रामकिशोर हमारी ओर हेरो।।

उरझ रहा जग सुरझत नाहीं, अ‍बकी बार फिर फेरो।।

नाम गरीब निवाज तुम्‍हारौ, मैं गरीब कस टेरो।।

कन्‍हर नाथ शरण तक आयौ, करौ कृपा भये बेरो।।385।।

बसे मन में आली सुन्‍दर राम।।

बिन देखे मोहि कल न परत है, शोभा वर धाम।।

भूषण बसन तडि़त दुति निन्दित, उपमा बहुत ललाम।।

कन्‍हर छवि अवलोक लाल की, लजत भयो मन काम।।386।।

माइ राम हिंडोरे झूलैं।।

वन प्रमोद अरू मोद बढ़ावन, सरयू के वर कूलैं।।

बीन मृदंग सरंगी बाजे, गान कोकिला हूलैं।।

कन्‍हर लखि आनंद कंद छवि, तन मन आनंद भूलैं।।387।।

राग – देश, ताल – त्रिताल

रे मन राम ओर कब लगिहै।।

जन्‍म व्‍यतीत भयो विषयन संग, सोवत तैं कब जगिहै।।

जब लगि ऐन चैन नहिं पावत, बार- बार जग तगिहै।।

कन्‍हर पार होय तब भव ते, सांचो रंग जब रंगिहै।।388।।

बिहरत रघुवीर लखे री मैं, वन प्रमोद की ओरी।।

छुटकि रहीं अलकें श्रवनन लगि, चंचल दृग चित चोरी।।

हय गति चपला गति निंदत, नाचत बार बहोरी।।

कन्‍हर तन घन लसत पीत पट, मानहु दामिनि जोरी।।389।।

राम नाम जाके मन न बसो रे।।

सो नर अधम नीच ते नीचौ, नाहक जन्‍म नसो रे।।

भूलौ फिरत गिरत हठ फिर – फिर, कर्मन बीच धंसो रे।।

कन्‍हर भजन बिना नहिं छूटे, जग में जीव फंसो रे।।390।।

हरि न भजैगो नर सोई पछितायगौ।।

कोटि जतन मन क्रम नहिं माने, जैहै जोनि अनेक भ्रमायगौ।।

पंक – पंक सों छूटत नाहीं, अधिक – अधिक गप जायगौ।।

कन्‍हर बिना कृपा सियावर की, कैसे पार धंसायगौ।।391।।

राग – काफी, ताल – त्रिताल

मुख पर जुल्‍फें कारी सोहें।।

क्रीट मुकट मकराकृति कुंडल, कोटि काम छवि जोहें।।

रूप शील गुणधाम सखी री, गौर श्‍याम वर दोहें।।

कहत परस्‍पर बचन मनोहर, बार- बार उर गोहें।।

आनंद मगन जनकपुर वासी, ए बालक वर कोहें।।

कन्‍हर राम रूप अवलोकत, नर – नारी मन मोहें।।392।।

श्‍याम की जुल्‍फें बसी करैं।।

कुन्‍डल लोल कपोलन झलकत, मनसिज मनहिं हरैं।।

मृदु बोलनि चितवन चित चोरनि, ता तन झांक परैं।।

कन्‍हर कमल वदन पर झुकि-झुकि, मानहुं भंवर लरैं।।393।।

राग – काफी, ताल – त्रिताल

अबहू समझ कहा करि मन रे।।

भूलो भूल बहुत जनमत ते, पाय पाप तन-तन रे।।

उरझ रहा मन सुरझत नाहीं, विषय बेल कन-कन रे।।

कन्‍हर भजन बिना रघुवर के, धिग जीवन धिग धन रे।।394।।

श्री गंगा जग अघ हरणी।।

दरस परस अरू पान करत जो, तिन कहं भव तरणी।।

फंद बंद जग आवत नाहीं, जम डर ना डरनी।।

जो पद जपता ना भ्रम भ्रमता, फिर ना तन धरनी।।

लोक-लोक अवलोक लहत गति, बिन कर कर करनी।।

पापन कह तू आली हरि असि, समयौ पाक अरणी।।

पावत वेद भेद ना तुम्‍हरौ, महिमा वर वरणी।।

कन्‍हर गंगा नाम परायन, फिर भव तरणी।।395।।

राग – अड़ाना, ताल – त्रिताल

छिन जीवन सुख जीव बंधाओ।।

पाप परायन जन्‍म व्‍यतीतो, कहा लाभ कर पायो।।

अलप दिनन कहं जग के कारण, क्‍यों करके बौरायो।।

गगन भवन कह गमन भुलानो, वृथा मूढ़ भरमायो।।

मैंने कही कही मानी ना, माया भरम भुलायो।।

कन्‍हर हरि को शरणै ताको, सो नहिं भव फिर आयो।।396।।

श्री जानकी बल्‍लभव नाम जपो जी।।

काम धाम तज ध्‍यान धरै, सो नहिं चाप चपो जी।।

पार भये भव बार न लागी, फिर नहिं पन तपो जी।।

कन्‍हर प्रभु पद जो न जपैगो, सो मतिमंद गयो जी।।397।।

राग – खंमाच, ताल – त्रिताल

सामरे लखि नैना म्‍हारे छवि छाके।।

विवस भये री फिरत न फेरे, कस बरणो गुण ताके।।

रूप अनूप भूत सुत बांके, पट तर दीजै कहु काके।।

कन्‍हर के प्रभु पल नहिं निसरत, सकुचित तेज प्रभा के।।398।।

राग – कालंगड़ा, ताल – त्रिताल

सबकी पति राखो रघुवीर।।

डमाडोल जग भयो चहूं दिस, बाढ़ो सोच शरीर।।

राउ रंग मन भ्रमत- भ्रमत भये, जो रज परस समीर।।

कोऊ काहू की बात न बूझत, अपनी – अपनी पीर।।

सोच संकोच भयो सबही को, आवत नाहीं धीर।।

कन्‍हर कह प्रभु कृपा बार कर, हरियो हरि मम भीर।।399।।

गरीब निवाज गरीबन हेरो।।

अपनो जानि बान कर राखो, नहिं हरि फेरौ।।

सुरत करो प्रण की प्रण पालक, अब की बार निबेरो।।

कन्‍हर द्वार जाइ कहु काके, तुव चरनन चेरो।।400।।

श्‍याम बिना घर में न रहोंगी।।

बिना दरस पल युग सम बीतत, क्‍यों करके निवहोंगी।।

आली सही यही मत मेरो, काके बोल सहोंगी।।

कन्‍हर हरि पद सोच विमोचन, सो मैं अवश गहोंगी।।401।।

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