कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 6 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 6

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 6

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी

राग-देस, ताल- त्रिताल

झूलैं रघुवर जनक किसोरी।।

गौर स्‍याम तन सुभग विराजत घन दामिनि छवि चोरी।।

बाजे बजत मनौं घन गरजत पूरौ रव चहुं ओरी।।

पुर की भामिनी गावति सुन्‍दर रूमि झूमि घन घोरी।

खंभा जटित विचित्र मनिनि शुभ विधि ने निपुन करौ री।।

देखत रचित विचित्र मुनि गन सब हर्ष भरौ री।।

कन्‍हर जुगल रूप लखि देवनि जय-जय शब्‍द भनौरी।।176।।

राग-देस, ताल-दीपचन्‍दी

हिंडोरा झूलैं राज दुलारे।।

रघुवर लछिमन भरथ सत्रहन दसरथ प्राण पियारे।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल केसरि तिलक नयन रतनारे।।

कन्‍हर के प्रभु उड़त पीत पट बरनत छवि कहि कवि हारे।।177।।

राग – पीलू

झूलैं नृपति दसरथ लाल।।

वीन मृदंग सरंगी बाजत गावत दै सब ताल।।

सरजू तीर हिंडोरा घालौ संग लिये सब बाल।।

कन्‍हर देखि हिडोलन छवि मुनि मन होत निहाल।।178।।

कुमर सब झूलत हैं सजनी।।

चलौ सखि मिलि देखन चलियै सोभा अधिक बनी।।

सखी झुलावत औसर गावति उपमा बहुत घनी।।

कन्‍हर वेद पार नहिं पावत त्रिभुअन नाथ धनी।।179।।

सिया संग झूलत हैं रघुवीर।।

स्‍याम गौर सोभित तन सुन्‍दर तजि सुभाउ चपला घन तीर।।

बाजे बजत मनौं घन गरजत देव करत धन निर्झर नीर।।

कन्‍हर जुगल छटा लखि पुरजन सोभा अधिक-अधिक भई भीर।।180।।

सिया संग झूलत सब री लली, सामन की रजनी।।

सहित उर्मिला मांडवी श्रुतिकीरति वर कमनी।।

अंग मनोहर भूषन राजत उपमा बहुत घनी।।

जनक महल मैं घलौ हिंडोरौ बरनत मति ठमनी।।

रतन जटित रूचि खंभ मनोहर सोभित अति अवनि।।

कन्‍हर देव वधू मिलि गावत धन्‍य तात जननी।।181।।

झूलैं अलबेली राजदुलारी।।

भूषन अंग ललित तन राजत उपमा कहि-कहि कै कवि हारी।।

सामन तीज सखी मिलि गावति भई आजु रजनी शुभकारी।।

कन्‍हर मिथिलापुर नर नारी भरी मोद छवि रही निहारी।।182।।

स्‍याम नहिं आये री सजनी सोभित भई अवनी।।

चहुं दिसि ते घन गरजन लागे चपला चमकि घनी।।

दादुर बोलि पपीहा बोलत मुर‍लनि कूक ठनी।।

कन्‍हर के प्रभु अब रे मिलैंगे त्रिभुअन नाथ धनी।।183।।

स्‍याम बिन मन घन देखि डरै नहिं अब धीर धरै।।

कब मिलिहैं सखि प्रान पियारे छिन-छिन कल्‍प भरै।।

रूमि झूमि घन गरजि रहे हैं मुरला सोर करै।।

कन्‍हर के प्रभु धीर न आवति कब हम चरन परै।।184।।

राग- होरी, ताल धमार

खेलत बसंत सब कुमर संग वर वसन वसंती लसत अंग।।

रघुवीर भरथ लघु संग अनुज छवि देखत लाजत बहु अनंग।।

सोहत गुलाल झोरिनि अबीर कर कमलनि है पिचकारी रंग।।

कन्‍हर लखि तिहुं पुर भयौ अनंद सरजू तट पावन बहि तरंग।।185।।

अवधि में खेलत हैं हरि होरी।।

बीथिनि कुमकुम कीच अरगजा छाई रहौ चहुं ओरी।।

पुरवासी कोऊ जान न पावन पकरि – पकरि रंग बोरी।।

रूप अनूप भूप प्रिय सुन्‍दर चितवन में चित चोरी।।

कर में कनि‍क रंग पिचकारी मुख पर परसत रोरी।।

कन्‍हर निरखि–निरखि रघुवर छवि बार– बार तृन तोरी।।186।।

काहे करत स्‍याम बरजोरी।।

कहौ न मानत जानत नाहीं सारी झटकत मोरी।।

छाडि़ देउ मघ जान देउ घर मैं बहु करत निहोरी।।

कन्‍हर के प्रभु लाल अनेरे नहिं कीजै वर जोरी।।187।।

राग – काफी, ताल – जत

हेरे दसरथ सुअन अनेरे।।

रघुवर लक्षमन भरथ सत्रहन आली मन में बसे रे।।

अबीर गुलाल भरै झोरिनि में सुन्‍दर रंग रंगे रे।।

कन्‍हर रामचन्‍द्र छवि निरखत नयन चकोर भये रे।।188।।

राग – देस, ताल – जत

होरी खेलैं राम दसरथ के द्वार संग अनुज हो रही बहार।।

लाल गुलाल लियै झोरिनि में कहि न जाय सोभा अपार।।

चोवा चंदन कनिक कटोरनि अवधि वधू ल्‍याई करि सिंगार।।

कन्‍हर सिव सनकादिक नारद रूप निहारत बारम्‍बार।।189।।

रामकुमार सखी भ्रातनि संग खेलत फागु सुहाई।।

बरषत पुष्‍प देव मुनि हर्षत रहे गगन में छाई।।

बाजत ताल मृदंग झांझ डफ अबिरि गुलाल उडाई।।

कन्‍हर करनि कनिक पिचकारी देखि अनंग लजाई।।190।।

कर कमलनि कंचन पिचकारी होरी खेलत चारों भाई।।

सजि कर चली अवधि की भामिनि वचन बसंती लतस सुहाई।।

भरि करि माठ कनिक केसर के गान सुनत कलि कंठ लजाई।।

लियै गुलाल लाल पिचकारी अवधि गलिन में धूम मचाई।।

घेरि लिये रघुनंदन सखियनि पीताम्‍बर वर लियौ है चुराई।।

चोबा चंदन अबिरि अरगजा मुख मलि सुन्‍दर अंग लगाई।।

छल बल करि कै चोट चलावत बचन मनोहर कह मुस्‍काई।।

कन्‍हर प्रभु सौं फगुआ मांगत बसौ सदा हमरे उर आई।।191।।

येक सुन्‍दर नारि बिहाय सखिनि संग राम कुमर सौं मचाई होरी।।

चोबा चन्‍दन अबिरि अरगजा केसरि माठ भरै रोरी।।

उड़त गुलाल छूटत पिचकारी डारत हैं रंग बरजोरी।।

कन्‍हर प्रभु सौ फगुआ मांगत राखि लेउ चरननि ओरी।।192।।

राग – झंझौटी

सामरे ने नेक न मानी सबरी भिजोइ डारी सारी।।

मैं सरजू जल भरन जाति ही मारग बीच करी मोसौं रारी।।

मैं बरजौ बरजौ नहिं मानत सनमुख ते मारी पिचकारी।।

कन्‍हर के प्रभु अब नहिं ऐहौं तुम नहिं मानी अरज हमारी।।193।।

राग – काफी

मति घालौ लाल पिचकारी सब छेरू करैं नर – नारी।।

भीजी जैहैह सारी रंग म्‍हारी सिर पर गागरि भारी।।

मारग रारि न कीजै हमसौं स्‍याम जाऊं बलिहारी।।

कन्‍हर के प्रभु छोड़ देऊ पट मानउ जी अरज हमारी।।194।।

राग – झंझौटी

चलौ छवि देखियै होली खेलत हैं रघुवीर--

सोभित भरत लखन लघु भ्राता सखा सखिनि जुत भीर।।

लियो गुलाल कुमकुमा झोरिन लसत बसंती चीर।।

बरसत रंग कनिक पिचकारिन जनु सामुन झर नीर।।

बाजे बाजत मनौ घन गरजत गान कोकिला कीर।।

कन्‍हर उलटि फाग भई पावस सोभा सरजू तीर।।195।।

राग – बहार, ताल – त्रिताल

पिचकारी मारत स्‍याम सचिकै।।

मारग रोकि रहौ नहिं मानत हारि परी सखि पचिकै।।

अबिरि गुलाल कुमकुमा केसरि खींुच रही जग मचिकै।।

कन्‍हर के प्रभु सुघर खिलइया चोट चलावत जचिकै।।196।।

राग – पीलू, ताल – जतकैस

आयो बसंत सखी मन भायौ।।

खेलत राम काम लखि लाजत रूप अनूप सुहायौ।।

अनुज सखा संग लसत मनोहर धूम धमार मचायौ।।

कन्‍हर अबिरि गुलाल कुमकुम अवधि गलिनि बिछायौ।।197।।

राग – पीलू

मति घालौ लाल पिचकारी, थारी स्‍याम जाउं बलिहारी।।

सासु ननद गृह रारि करेगी, देउं अनोखी गारी।।

सारी रंग न भिजोउ रावरे, मानौं जी अरज हमारी।।

छाडि़ देउ मग जान देउ घर, सुन्‍दर सुघर खिलारी।।

सुनि-सुनि लोग चबाउ करैंगे, पकरो मति हमरि सारी।।

कन्‍हर के प्रभु कालि मिलौं फिरि, हमकौं होति अबारी।।198।।

हमकौ सैननि स्‍याम बुलावै।।

मिलना कौन विधि होइ सखी री, निसि दिन मन तरसावै।।

वन प्रमोद की कुंज गलिनि मैं, सखनि सहित नित आवे।।

कन्‍हर छवि अवलोकि दृगन भरि, आनंद उर न समावै।।199।।

सखी सामरे सै न खेलौंगी होरी।।

जानत नाहीं कहा कहौं री, आनि करै बरजोरी।।

झटकत सारी अटक न मानत, मुतियनि की लर टोरी।।

कन्‍हर के प्रभु कहौ न मानत, बइयां पकरि रंग बोरी।।200।।

राग – जौनपुरी टोड़ी

सामरे ने तनक अनक नहिं मानी, मैं मन में सकुचानी।।

हमरी आनि अचानक सारी, पकरि झपटि गहि तानी।।

छोड़त नहिं विनय करि हारी, केसरि रंग सरसानी।।

कन्‍हर के प्रभु लाज काज तजि, तुम्‍हरे हाथ बिकानी।।201।।

बरजौ जी मानौं जी लाल, मति मीजौ मुख पर रोरी।।

सासु ननद गृह रारि करैंगी, गलियन छैर मची मोरी।।

भरि- भरि रंग गुलाल उड़ावत, मोतिनि लर मोरी टोरी।।

कन्‍हर के प्रभु जान देउ अब, श्‍याम रंग तन मन बोरी।।202।।

चलौ फागु हरि सौं खेलैं।।

चोबा चन्‍दन अबिरि अरगजा, कमल वदन मुख पर मेलैं।।

हरष विवस नर – नारी अवध के, बार – बार सबकौं टेरैं।।

कन्‍हर पकरि – पकरि प्रभु कौ पट, फगुआ मांगै हंसि हेरैं।।203।।

रघुनंदन प्‍यारे खेलैं अवध में होरी।।

सुन्‍दर भरत लखन रिपुसूदन, डारत रंग बरजोरी।

अवध वधू मिलि कै सब आईं, राम रंग रंग बोरी।।

कन्‍हर लखि आनंद मनोहर, देह गेह बिसरो री।।204।।

राग – होरी चालू सारंग

आजु मची बृज में होरी।।

गृह – गृह ते निकसी बृज वनिता, केसरि माटि लियै रोरी।।

उड़त गुलाल लाल भये बादर, पकरि स्‍याम रंग मैं बोरी।।

कन्‍हर चरन सरन सब मांगति, फगुआ के मिस बरजोरी।।205।।

होरी खेलत राम अवधपुर मैं।।

उड़त गुलाल लाल भये बादर, आनंद छायौ घर – घर मैं।।

सुन्‍दर भरथ लखन रिपुसूदन, लियै कुमकुमा कर – कर मैं।।

कन्‍हर रंग कनिक पिचकारी, छोड़त हंसि सखियनि लर मैं।।206।।

संग जाउंगी स्‍याम के आली।।

कहै कोऊ लाख जतन नहिं मानौं, नयन बान उर साली।।

विलग होत पल जुग सम बीतत, जाऊं अवधपुर काली।।

कन्‍हर नित नव नेह लाल सौं, बिछुरै न रहैगी लाली।।207।।

मिथिलापुर अब न रहौंगी।।

सिया संग जैहौं, आनंद पैहौं, फिर – फिरि चरन गहौंगी।।

जुगल रूप अवलोकि सखी री, लोचन लाभ लहौंगी।।

कन्‍हर ठान ठनी इह सुन्‍दर, काके बोल सहौंगी।।208।।

गोकुल होरी खेलत नंदलाला।।

सुन्‍दर कटि पीताम्‍बर काछै, मुक्‍तनि उरझि रही माला।।

बाजत बीन मृदंग झांझ डफ, संग लिये सब बृज बाला।।

कन्‍हर देखि आनंद कंद छवि, उरझि रहौ मन मनु जाला।।209।।

बरसाने आजु मची होरी।।

सखिनि सहित वृषभान किसोरी, केसरि माटि लियै रोरी।।

इतै स्‍याम घन वर तन राजत, उत दामिनि दुति छवि जोरी।।

कन्‍हर पूरि रहौ सुख पूरन, हास विलास दुहूं ओरी।।210।।

राग – श्री, ताल – चौताल

आजु नंद को लाल अनंद भरौ।।

मोर मुकुट पीताम्‍बर काछै, सुन्‍दर नटवर भेष करौ।।

भिजवत पकरिन बल जुवतिनि कहं, काहू कौं मन मैं न डरौ।।

कन्‍हर कृदु बोलनि हंसि हेरनि, बृज वासिनी कौं मनहि हरौ।।211।।

रामरूप, निरखि भूप अद्भुत सोभा अनूप, सुन्‍दर सुख पाई।।

सोभित उर मनिनि माल, बांकी भृकुटी विसाल,

केसरि के तिलक भाल कुंडल झलकाई।।

पहुंची कर वर ललाम, क्रीट मुकुट धनुष बान,

देखि- देखि लाजि मारू, मन मैं सकुचाई।।

कन्‍हर घनस्‍याम अंग, मनहु पीत तडि़त रंग

चन्‍द्र सौ मुखारविंद, निरखैं बलि जाई।।212।।

राम कुमर अवलोकि नैन भरि,

कही अनप रति रही सकुचासी।।

कन्‍हर घनस्‍याम अंग मनहु पीत तडि़त रंग,

चन्‍द्र सौ मुखारबिन्‍द, निरखे बलि जासी।।213।।