कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 7 ramgopal bhavuk द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कन्‍हर पद माल - शास्त्रीय रागों पर आधारित पद - 7

कन्‍हर पद माल- शास्त्रीय रागों पर आधारित पद 7

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज कृत

(शास्त्रीय रागों पर आधारित पद.)

हस्‍त‍लिखित पाण्‍डुलिपि सन् 1852 ई.

सर्वाधिकार सुरक्षित--

1 परमहंस मस्‍तराम गौरीशंकर सत्‍संग समिति

(डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 श्री श्री 1008 श्री गुरू कन्‍हर दास जी सार्वजनिक

लोकन्‍यास विकास समिति तपोभूमि कालिन्‍द्री, पिछोर।

सम्‍पादक- रामगोपाल ‘भावुक’

सह सम्‍पादक- वेदराम प्रजापति ‘मनमस्‍त’ राधेश्‍याम पटसारिया राजू

परामर्श- राजनारायण बोहरे

संपर्कः -कमलेश्वर कॉलोनी, (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर (म0प्र0)

पिन- 475110 मो0 9425715707 tiwariramgopal5@gmail.com

प्रकाशन तिथि- 1 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2045

श्री खेमराज जी रसाल द्वारा‘’कन्‍हर सागर’’ (डबरा) भवभूति नगर (म.प्र.)

2 चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी सम्‍वत् 2054

सम्‍पादकीय--

परमहंस मस्‍तराम गौरी शंकर बाबा के सानिध्‍य में बैठने का यह प्रतिफल हमें आनन्‍द विभोर कर रहा है।

पंचमहल की माटी को सुवासित करने जन-जन की बोली पंचमहली को हिन्‍दी साहित्‍य में स्‍थान दिलाने, संस्‍कृत के महाकवि भवभूति की कर्मभूमि पर सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज सम्‍वत् 1831 में ग्‍वालियर जिले की भाण्‍डेर तहसील के सेंथरी ग्राम के मुदगल परिवार में जन्‍मे।

सन्‍त श्री कन्‍हरदास जी के जीवन चरित्र के संबंध में जन-जन से मुखरित तथ्‍यों के आधार पर श्री खेमराज जी रसाल द्वारा ‘’कन्‍हर सागर’’ में पर्याप्‍त स्‍थान दिया गया है। श्री वजेश कुदरिया से प्राप्‍त संत श्री कन्‍हर दास जी के जीवन चरित्र के बारे में उनके शिष्‍य संत श्री मनहर दास जी द्वारा लिखित प्रति सबसे अधिक प्रामाणिक दस्‍तावेज है उसे ही पदमाल से पहले प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

कन्‍हर पदमाल के पदों की संख्‍या 1052 दी गई है लेकिन उनके कुल पदों की संख्‍या का प्रमाण--

सवा सहस रच दई पदमाला।

कृपा करी दशरथ के लाला।।

के आधार पर 1250 है। हमें कुल 1052 पद ही प्राप्‍त हो पाये हैं। स्‍व. श्री दयाराम कानूनगो से प्राप्‍त प्रति से 145 पद श्री रसाल जी द्वारा एवं मुक्‍त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्‍कृतिक समिति द्वारा श्री नरेन्‍द्र उत्‍सुक के सम्‍पादन में पंच महल की माटी के बारह पदों सहित शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर

तीस रागनी राग छ:, रवि पदमाला ग्रन्थ।

गुरू कन्‍हर पर निज कृपा, करी जानकी कन्‍थ।।

विज्ञजनों को समर्पित करने एवं मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्री राम के जीवन की झांकी की लीला पुरूषोत्‍तम श्री कृष्‍ण का जीवन झांकी से साम्‍य उपस्यित करने में बाबा कन्‍हर दास जी पूरी तरह सफल रहे हैं।

डॉ0 नीलिमा शर्मा जी जीवाजी विश्व विद्यालय ग्वालियर से शास्‍त्रीय संगीत की धरोहर कन्‍हर पदमाल पर शोध कर चुकी हैं।

सन्‍त प्रवर श्री श्री 1008 श्री कन्‍हर दास जी महाराज का निर्वाण एक सौ आठ वर्ष की वय में चैत्र शुक्‍ल, श्री रामनवमी रविवार सम्‍वत् 1939 को पिछोर में हुआ।

नगर निगम संग्रहालय ग्‍वालियर में श्री कन्‍हर दास पदमाल की पाण्‍डुलिपि सुरक्षित वसीयत स्‍वरूप रखी हुई है। श्री प्रवीण भारद्वाज, पंकज एडवोकेट ग्‍वालियर द्वारा पाण्‍डुलिपि की फोटो प्रति उपलबध कराने में तथा परम सन्‍तों के छाया चित्र उपलबध कराने में श्री महन्‍त चन्‍दन दास छोटी समाधि प्रेमपुरा पिछोर ने जो सहयोग दिया है इसके लिए हम उनका हृदय से आभार मानते हैं।।

पंचमहली बोली का मैं अपने आपको सबसे पहला कवि, कथाकार मानता था लेकिन कन्‍हर साहित्‍य ने मेरा यह मोह भंग कर दिया है।

इस सत् कार्य में मित्रों का भरपूर सहयोग मिला है उनका हम हृदय से आभार मानते हैं। प्रयास के बावजूद प्रकाशन में जो त्रुटियां रह गई हैं उसके लिए हम सुधी पाठकों से क्षमा चाहेंगे।

रामगोपाल भावुक

दिनांक 16-4-97 श्री राम नवमी सम्‍पादक

राग – अलय्या, ताल – त्रिताल

राम कुमर अवलोकि, नैन भरि, कही अनप रति रही सकुचासी।।

स्‍याम गौर अंग संग सुन्‍दर वर दोई,बर‍नी नहिं जाइ, छटा नयननि उरझासी।।

क्रीट मुकुट धनुष बान, रूप सील के निधान,बांकी भृकुटी विसाल कुंडल झलकासी।।

सोभित उर मनिनि माल, पीताम्‍बर लसत गात,ऐसी छवि देखि – देखि कन्‍हर बलि जासी।।214।।

राम नाम सब कौ हित कीनौ।।

वेद पुरान भागवत साखी, अजामिल द्विज, सुत हित लीनौ।।

सभा मध्‍य द्रोपति पति राखी, तब दुसासन तन पट छीनौ।।

प्रगटि रूप प्रहलाद गिरा सुनि, नर हरि रूप अनूप धरीनौ।।

हिरनाकुस, कसि उदर बिदारौ, छिन में करौ सकल बल हीनौ।।

गज अरू ग्राह भिरे जल भीतर, करूनाकर करी करि पीनौ।।

लिये बचाई कपोत – पोत अब, भारथ अरज भारही चीनौ।।

ध्रुव उद्धव हनुमान विभीषन, पियौ सदा जिन्हि नाम अमीनौ।।

गरलपान सिव कियौ नाम जपि, बाढ़‍त नित नव प्रेम नवीनौ।।

अधिक प्रभाव आदि क‍ब जानौं, राम नाम सत कोटि भनीनौ।।

गीध व्‍याध सबरी अरू गनिका, सबय अभय करि, निज पद दीनौ।।

कन्‍हर समझि नाम की महिमा, जौन जपै जाकौ धृग जग जीनौ।।215।।

राम नाम कलि कल्‍प सुहाई, बरन कहौं दोई सुखदाई।।

संसय अंस रहत अब नाहीं, करत उचार पराई।।

जीव अधार और नहीं जग में, समझि राम गुन गाई।।

पतित अनेक पार करि पावन, ऐसी प्रभु प्रभुताई।।

सेस महेश मुख रट‍त निरन्‍तर, वेद पार नहिं पाई।।

कन्‍हर जपि सियराम नाम कौं, रहै न मन मलिनाई।।216।।

राम भजन बिन धृग जग जीवत।।

विषय वारि कह निसि दिन धावत, हरिगुन रस नहिं पीवत।।

काल अचानक चोट करैगो, तब को बीच करीवत।।

कन्‍हर जे जन भूल भूलहैं, ते भव कूप परीवत।।217।।

कब चितयो हरि कोर कृपा की।।

सुनौ न गुनौ अधम कह मोसौं, बिसरी सुरति जपा की।।

काम क्रोध मद लोभ मोह बस, खबर न नफा जफा की।।

कन्‍हर समझि – समझि उर लागत, नहिं करवस्‍त वफा की।।218।।

आली मुसिक्‍यात जात रघुराई, मैं बरनि सकौं किमि गाई।।

वन तै आवत तुरग नचावत, रज उडि़ जुलफिनि छाई।।

भूषन वसन अंग अंगनि वर, मन मध्‍य देखि लजाई।।

इत उत झांकत मोद बढ़ावत, लखि मन रहत लुभाई।।

मुक्‍तनि माल उरझि रही उर मैं, लट पट पेंच सुहाई।।

कन्‍हर राम दरस के खातिर, ये नयना तरसाई।।219।।

राम धन बान लियै कर में।।

क्रीट मुकुट मकराकृत कुंडल, पुष्‍प माल उर में।।

काछै कटि काछनी जरकसी, गुच्‍छ लसै सिर में।।

कन्‍हर छवि अवलोकि लाल की, मन न लगै घर में।।220।।

राम कब करिहौ अवध पुरवासी।।

सुंदर जल सरजू कौ अचिवन, सिय वर चरन सुपासी।।

बहुत जन्‍मनि की बिगरी सुधरति, बरनत निगम प्रकासी।।

कन्‍हर धनि पुरी जन जन्‍मैं, बसि छिनपल न विहासी।।221।।

बिहरत रघुवीर लखे री मैं, वन प्रमोद की ओरी।।

छुटकि रहीं अलकैं श्रवनि लगि, चंचल दृग चित चोरी।।

हय गति चपल चपल गति निंदति, नाचत बार बहोरी।।

कन्‍हर तन धन लसत पीत पट, मानहु दामिनि जोरी।।222।।

सुनी मैंने नाथ तुम्‍हारी प्रभुताई।

गज अरू ग्राह भिरे जल भीतर, करि करि कुहम सहाई।।

वर्ष सहस्र इक बहु जुध कीनौं, थकित भये सुधि आई।।

करूना करि हरिनाम उचारौ, गिरा गिरन नहिं पाई।।

विनय करी की सुनि करूणानिधि, हृदे बहुत अकुल्‍याई।।

राघव लियौ बचाय ग्राह तै, जब लगि पल न ढराई।।

जय – जय शब्‍द भयौ त्रिभुवन मैं, नारदादि गुन गाई।।

कन्‍हर कलि मल ग्रसौ कृपानिधि, करौ सुरति सुखदाई।।223।।

राम भजन बिन दिन जाइ बीते।।

झूठौ यह संसार सार नहिं, सदा नहीं कोऊ जीते।।

माल खजाना संग न जाहैं, अंत जाइ उठि रीते।।

कन्‍हर नाम सुधा निसि-वासर, धनि पीवंत पीते।।224।।

राग – भैरों

स्‍याम बिना निसि नींद न आवै।।

परत न चैन नयन बिन देखैं, नित नव विरह बढ़ावै।।

मन बसि गई माधुरी मूरति, छिन पल जुग सम जावै।।

कन्‍हर के प्रभु मिलौ कौन विधि, सोइ कोई जतन बतावै।।225।।

सुंदर सिया राम रूप निरखि दृगनि हारी।।

क्रीट मुकुट चन्द्रिका पर कोटि चन्‍द्र वारी।।

श्रवन कुंडल करनफूल लसत लाल प्‍यारी।।

मुक्‍त माल षट प्रकार हृदयै हार चारी।।

मुख सरोज चन्‍द्र वदन उपमा अधिकारी।।

स्‍याम अंग पीत वसन गौर सुरंग सारी।।

नूपुर दुति अति विचित्र पायल पग धारी।।

कन्‍हर जुगल राम सिया सुमिरहु नर – नारी।।226।।

नाथ हमारी काहे सुरति बिसारी।।

कहा तकसीर परी प्रभु मो पर, करूणा वचन पुकारी।।

छिन दुख देखि सकै नहिं काहू, अब कह धार निधारी।।

कन्‍हर निरखत रहत कृपानिधि, निस – दिन राह तिहारी।।227।।

सियावर रूप निकाई बरन नहिं जाई।।

सुख आसीन कमल सिंहासन, अधिक मनोहरताई।।

मंदिर रचित विचित्र चित्रवर, सुन्‍दर सुखद सुहाई।।

फूलबाग के चिमन चारि तह, लता लूमि झुकि छाई।।

मारूति लाल वीर बलि बंका, संका जाति पराई।।

कन्‍हर राम सिया लछिमन, जपि, मन न रहै मलिनाई।।228।।

राम नाम जपि सुरझे ते।।

बहु जन्‍मनि के फंद वेद मह, पार परै भव उरझे ते।।

भाजे भ्रम श्रम छिन नहिं लागा, आदि दिनन के सरके ते।।

भय सभीत जनु सीत तरून लखि, कठिन गढ़न गढि़ मुरके ते।।

श्रम तनि मृत त्रैताप आपते, सिमिटि झिमिट रह जुर जेते।।

कन्‍हर नाम कहत सब भाजे, बसत बास ते न फरते ते।।229।।

जय- जय रघुवर जनक किसोरी।।

किंकर जानि कृपा अब कीजै, मैं बहु करत निहोरी।।

नाम गरीब नवाज तुम्‍हारौ, हेनहु अपनी ओरी।।

कन्‍हर औगुन चित न धरौ प्रभु, सुरति करौ अब मोरी।।230।।

राग – काफी

चलावत अपनी – अपनी घात।।

स्‍वारथ जात बात नहिं पूछत, ऐसौ जग को नात।।

पार होन कौ पथ न लखावत, सुत दारा अरू तात।।

कन्‍हर राम नाम पद पूरन, सेवहु उर जलजात।।231।।

सुनौ दीनानाथ दीनता मेरी।।

तुम समान पर पीर हरइया, और न दीसत हेरी।।

भ्रम बस ठौर-ठौर भ्रमि आयौ, कृपा बिना प्रभु तेरी।।

कन्‍हर चरन सरन तकि आयौ, अबकी लेउ उबेरी।।232।।

अबकी बार राखौ हरि मेरी।।

काम क्रोध के फेर परौ मन, फिरत नहीं कह फेरी।।

छिन एक भिन्‍न होत नहिं इनि‍तै, करै जतन बहुतेरी।।

औगुन माफ करौ कन्‍हर कै, अपनी ओरई हेरी।।233।।

मृदु मुसिक्‍यानि आली सही न जाई।।।

अवलोकन दृग लोकन मोहन, सुन्‍दर रूप निकाई।।

मारग बीच मिलै रघुनन्‍दन, सुधि बुधि तन बिसराई।।

कन्‍हर प्रीति अलौकिक उर की, वचन कहत सकुचाई।।234।।

राग – देस

जग मग आना जाना ताना, समझि राम गुना गाना।।

कृसित भयौ त्रय ताप तपायौ, लोभ मोह मद साना।।

भूलौ फिरत खबरि वा दिन की, ता दिन होइ चलाना।।

कन्‍हर कहत संपदा अपनी, को गयौ लादि लदाना।।235।।

सियावर सब के दुख हरे।।

घना भगत रैदास नामदे, नाम लेत सुधरै।।

अजामिल सबरी गज गनिका, सब मिलि कै उबरै।।

रंगा बंका भील कसाई, खग से सरन करै।।

कन्‍हर प्रभु दरबार दीन कौ, मौ को क्‍यों बिसरे।।236।।

रघुवर सरन तके सबरे।।

मीरा पीपा जाति जुलाहौ, भगत सुदामा विपति हरे।।

मोरध्‍वज हरिचंद विदुर से, अंबरीष को अभय करे।।

भक्‍त अनेक पार भव हो गये, जिनि उर चरन धरे।।

कन्‍हर बहौ – बहौ भव डोलत, कस मन बानि परे।।237।।

कब ढुरिहौ सियाराम पियारे।।

जो कोऊ दीन भये सरणागत, मैटि दिये तिनिके दुख भारे।।

अधम महाखल पावन कीनै, नाम लेत भव ते निरवारे।।

कन्‍हर की सुधि लेउ कृपानिधि, क्‍यों करि विरद बिसारे।।238।।

सुनियै अरज रघुवीर पियारे।।

यह मन मूढ़ कहौ नहिं मानत, देत सिखावन निस दिन हारे।।

भ्रमत रहत यह हार न मारत, जाते अब तुअ सरन पुकारे।।

कन्‍हर राम नाम की महिमा, अजामिल गज गनिका तारे।।239।।

राग – आसावरी

अब तुम क्‍यों बिसरे वह बानि।।

जब – जब गाज परी भक्‍तन पै, धरौ रूप तुम आनि।।

दुष्‍टनि मारि अभय सब कीनै, निज जन मन की जानि।।

द्रुपद सुता कौ चीर बढ़ायौ, दुसासन बल हानि।।

गज अरू ग्राह लरे जल भीतर, धाये तजि निज जानि।।

कन्‍हर प्रभु प्रहलाद उबारे, राखौ विधि वरदानि।।240।।

कैसी करौं म्‍हारे राम, नइया लागति नाइ पार।।

डगमग होत बोझ है भारी, अगम बहति है धार।।

जिनके संग रैन दिन भूलौ, ते नहिं लगत पुकार।।

कन्‍हर मानि सलाह यही है, नाम मलाह उचार।।241।।

राग – झंझौटी

चोला जात जुड़ानौं, जपौ हरि नामै।।

इक दिन काम राम सौं परिहैं, मति भूलौ ममता मैं।।

तन इक बार खाक मिलि जैहैं, नहिं आवैगो कामै।।

कन्‍हर जिनिनै चरन तकै, ते नहिं बींधे फंदा मैं।।242।।

तुम्‍हरौ विरद सुनौ है भारी, नाम लेत भय टारी।।

हिरनाकुस प्रहलाद सतायौ, कीनौं वचन उचारी।।

खंभ फारि प्रभु प्रकट भये हैं, पल मैं विपति निवारी।।

द्रुपद सुता कौ चीर बढ़ायौ, दुसासन बल हारी।।

खैंचत खैंचत भुजबल थाके, तन नहिं नैक उधारी।।

गज अरू ग्राह लरे जल भीतर, चक्रपाणि उर धारी।।

सनि करि गिरा पियादै धाये, खगपति नाथ बिसारी।।

भक्‍त अनेक पार भव हो गये, जिनि लै नाम पुकारी।।

कन्‍हर दीन सरन तुम्‍हारे, लीजै ख‍बरि हमारी।।243।।

राग – देस, ताल – एकताल

जग में देखौ यह ब्‍याल।।

इक आवै इक चले जात है, फिरै यंत्र की माल।।

बन्‍धन कठिन बंधौ या जग मैं, सुरझत नाहीं हाल।।

कन्‍हर तातै जपौ सियावर, परौ काल के गाल।।244।।

राग – सोरठ

मति- मति भूलै, चलना वाही देस।।

सुंदर लाद लादिया जग में, अघ कौ तजि लवलेस।।

राम नाम कौ सुमिरन करि लै, जम नहिं पकरे केस।।

कन्‍हर आन उपाय नहीं है, मनौ सिख यह बेस।।245।।

हरि बिन विपति कौन सौं कहिये।।

और न हरै दुसह दुख मेरौ, समुझि हृदे मैं रहिये।।

तुम बिन नाथ और नहिं कोई, ताके सरनै जइये।।

कान्‍हर मन अब धीर न आवै, बिना राम रति पइयै।।246।।

जप तुलसी हरि प्‍यारी, पलक न बिसारी।।

मंगल करन अमंगल हारी, सुमिरत भव भय टारी।

जे जन तुम्‍हरौ ध्‍यान धरत हैं, तिनिकी विपति निवारी।।

कन्‍हर पावन रूप विदित जग, हरि जन लै सिर धारी।।247।।

राग – जिल्‍लौ

गौतम रिषि की नारि परसि पद तारी।।

निसि – वासर पल छिन मति बिसरौ, हरि सुमिरौ नर – नारी।।

प्रगट भई सुरसरि चरननि ते, दरस परस अघहारी।।

कन्‍हर प्रभु कौ ध्‍यान धरत जे, ते जग रहत सुखारी।।248।।

बिसरि गयो है रे वा दिन की सुधि नाई।।

जब जम दूत तोहि ले चलिहैं, संग न कोऊ सहाई।।

अब तूं चेति भूलि मति‍ भूलै, फिरि पीछै पछिताई।।

कन्‍हर प्रभु कौ नाम सम्‍हारौ, कामु परै तहं जाई।।249।।

रघुनाथ हमारी अरज सुनौ, मैं दीन भयौ हौं, पीर हरौ।।

मतिमंद भयौ भ्रम भूलि गयौ, अब आनि तुम्‍हारे द्वार परौ।।

कित जाउं कहूं अब ठौर नहीं, तुम कोटि उपाय करौ न टरौ।।

मम नाथ कृपा करि सरन करौ, कन्‍हर जन औगुन चित न धरौ।।250।।