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हारने से पहले

कहानी

हारने से पहले

टिप....टिप.... टिप.....टपकती हुई गुल्कोज की बूंदें पिछले चार दिनों से लगातार मेरे शरीर में प्रवेश कर रही थी। इसके अलावा जाने कितनी दवाइयां, इंजेक्शन, विटामिन, प्रोटिन मेरे शरीर में जा रहे थे पर शरीर पर इनका कोई असर हो रहा ये महसूस नहीं हो रहा था।

बैचैन मन , अशक्त शरीर, उबाऊ दिनचर्या, गमगीन माहौल जीवन को निरन्तर मौत की ओर धकेल रहे थे। पी पी कीट पहने डॉक्टर.... नर्स.... और वार्ड बॉय....इस तनाव , उदासी को कम करने में असमर्थ लग रहे थे। चारों ओर शोक ही शोक पसरा था। जाने कितने चले गए और कितने ओर इस महामारी की भेंट चढ़ेगे... कोई नहीं जानता.....। सांत्वना के शब्द बिल्कुल खोखले और बेमानी लग रहे थे।

जब से मैं इस कोविड अस्पताल में भर्ती हुआ मन रह-रहकर मौत की कल्पना करते हुए अपने आप से डर रहा है। न प्रार्थना में जी लगता.... न कोइ सपना जी बहलाने में कामयाब हो पाता.... दूर-दूर तक सधन अंधेरा.....उम्मीद की कोई किरणें आस-पास दिखाई नहीं दे रही है.....है तो सिर्फ मरीजों की दर्द से कराहती चीखें..... इमरजेंसी में भागती हुई हताश, बेबस नर्सें.... आक्सीजन की सप्लाई को लेकर चिंतित डॉक्टर.... पिछले चार दिनों में मेरे आस-पास की चार जिंदगियां लाश में तब्दील है गई....इस खौफनाक माहौल में जब अपनी ही सांस को बारी-बारी कभी ओक्सोमीटर से, कभी नाक के आगे उंगली रखकर चेक करना पङता है तो दूसरों पर भला क्या भरोसा हो....सांस चलती है तो दिल पर संदेह की सुई अटक जाती है..... और दिल धङकने की आवाज से भी तसल्ली नहीं होती तो दिन में कई-कई बार थर्मामीटर लगाने की अजीब सी बीमारी जहन में पलने लगती है....। लगता है यमदूत बस आने ही वाला है ....। सोचते हुए रूह कांप जाती है.... पिछले कई दिनों से यही सब तो भुगत रहा हूं मैं। जब भी समाचार सुनता हूं विषबैल के बढ़ते हुए आंकङे मेरे भीतर की जीवटता को तिल-तिल कर मारते हुए प्रतीत हो रहे हैं।

कभी कभी मन में सवाल उठता है कि ये क्यों हो रहा है.... भगवान.... खुदा...., परमात्मा.... कहां, कौनसी गुफा में बैठ गया कि उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा.... कुछ दिखाई नहीं दे रहा.....। फिर अगले ही पल इसका प्रतिकार करते हुए अपना ही दिल, दिमाग कहता है- भगवान.... खुदा.... परमात्मा.... कोई भला क्यों करेगा तुम्हारी सहायता.... स्वर्ग सी धरती का तुम लोगों ने क्या हाल किया है। अंधाधुंध प्रदूषण, अशांति, तनाव, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष की आग में सुलगते हुए इस ब्रह्माण्ड का कितना शोषण किया है तुमने....। तुम मानव नहीं....दानव हो दानव.... फिर भी बात करते हो परमात्मा की.... धिक्कार....तुम्हें सौ सौ धिक्कार... विजय के हाथ अपने कानों पर चल गये। कङ़वी सच्चाई से रुबरु होना वश की बात नहीं थी....।

जो आया है उसे एक दिन जाना पर कदम- कदम बढ़ते मौत के साए में जीना मरने से कई गुना डरावना होता है। इसे उन सबने महसूस किया जिन्होंने चौहदह दिन अकेले अस्पताल में बिताए.....न कोई सर पर हाथ रखकर सांत्वना देने वाला....न कोई चार बार मनुहार करके खाना खिलाने वाला....न कोई दवाई लेने के लिए आंख दिखाने वाला ....न कोई दूध न पीने पर अपनी कसम देने वाला....इतने पर भी तो बस नहीं.... कोई मर जाए तो चार कंधे भी नसीब नहीं होते ....बाप के मरने पर बेटा नहीं जा पाया और बेटे के मरने पर बाप.... उफ.....जिंदगी बस अजीब सी दास्तां बनकर रह गई है आजकल....।

जिंदगी में बङी से बङ़ी मुसीबत से मैं कभी नहीं घबराया पर आजकल दिल दिमाग सब के सब जङ हो रहे हैं।इसे वहम कहें या डर या वातावरण का असर कि पिछले छह महीनों में बारह बार अपना कोविड टेस्ट करवाया होगा मैनें.... पर हर बार नेगेटिव..... लेकिन चूहे की मां भला अब तक खैर मनाती....इस बार रिपोर्ट पोजिटिव थी। एक दो दिन ओल्ड एज होम में आइसोलेशन में रहा पर लगातार बढ़ती हुई खांसी....उखङती हुई सी सांस....जीभ से नदारद होता स्वाद.... आवाज में भारीपन.... कोई रिश्क नहीं लेना चाहता था मैं....न अपने लिए.... न अपनों के लिए....,।

वृद्धाश्रम छोङकर मैं दयाल जी हॉस्पिटल में आ गया पर यहां स्थिति सुधरने के बजाय बिगङती चली जा रही थी। दो दिन बाद ही मुझे आई सी ओ में शिफ्ट कर दिया गया। धीरे धीरे तन-मन ढीले होते जा रहे हैं। भगवान के घर का बुलावा मानो साफ - साफ सुनाई दे रहा है। कल ही तो मेरे पास के बेड पर लेटा चालीस साल का युवक आक्सीजन की कमी के कारण चला गया। सरकार....मीडिया.... डाक्टर....परिवार....सब लाचार होकर मौत का नग्न नृत्य देख रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के अलावा कोई कुछ नहीं कर पा रहा.....कैसा विचित्र समय है.... आदमी आदमी के छूने से बीमार हो रहा है.... बहुत पीछे छूट गया किसी से गले मिलना , गर्मजोशी से हाथ मिलाना, जादू की झप्पी,हर दर्द की दवा मीठी सी पप्पी..... सोचते हुए विजय के आंखों से आंसुओं की बरसात होने लगी।

अचानक अपने सर पर किसी का स्पर्श महसूस किया तो धीरे से आंख खोली। सफेद कपड़ों में ये कौन है.... क्या कोई परी.... क्या कोई अप्सरा...... क्या मैं मरकर स्वर्ग में आ गया.... कहीं कोई भूतनी तो नहीं .....कहीं मैं नरक में..... नहीं.... नहीं.... कहते हुए हङबङाते हुए मैं उठ बैठा.... पूरा बदन पसीने से तर-बतर.....मेरे ज़हन में शायद मरने के ख्याल को छोड़कर कुछ भी शेष नहीं रहा।

अंकल यूं अकेले - अकेले आंसू बहाना कोई अच्छी बात तो नहीं..... मुझे बताइए क्या प्रोब्लम है.... आपकी आज की तो सब रिपोर्ट भी अच्छी है। फिर इस तरह दिल छोटा करने का मतलब....थोङा सा बहादूर बनिए.... खुद को संभालिए.... हौसले के बलबूते हर जंग जीती जा सकती है....। मुझे देखिए पिछले पूरे साल से इस हॉस्पिटल में कोविड के मरीजों के साथ काम कर रही हूं। बीस दिन पहले खुद भी गिरफ्त में आ गई पर डरी नहीं मजबूत रही आखिर कोरोना को हराकर आज लौट आई हूं ड्यूटी पर....। ओर हां, अब आप लोगों को भी हारने नहीं दूंगी.... कहते हुए वो मुस्कुराई और हाथ का सहारा देकर बिठा दिया। जाने क्या जादू था उसके शब्दों में..... उसकी आत्मविश्वास से चमकती हुई आंखों में....कि मुझको अपने भीतर एक ऊर्जा का संचार महसूस हो रहा था।

वो देवदूत सी परी दूसरे मरीजों की ओर बढ़ गई थी पर मेरी आंखें तब तक उसे देखती रही जब तक वो इस आई सी ओ वार्ड में रही। पूरा वातावरण बदल दिया उसने अपनी उपस्थिति से। पूरे दिन में कभी किसी को अपने परिवार से विडियो कॉल पर बात करवाती, कभी कोई गाना सुनाती, कभी धमनियों में आक्सीजन के साथ-साथ हौसला चढ़ाती..... दवाइयों के साथ-साथ जाने क्या-क्या परोस दिया था उसने पूरे दिन..... । इन्हीं जादू भरी बातों के बीच कब सांझ घिर आई पता ही नहीं चला। जाते-जाते उसने सबसे वादा लिया कि कल सुबह सब मेरा स्वागत अपनी चौङी मुस्कान के साथ करेंगे।

विजय अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे जाने कितनी देर तक उस देवदूत परी सी नर्स के बारे में सोचता रहा। बचपन में पापा से सुनी हुई एक कहावत बिजली की तरह उसके मन-मस्तिष्क में कौंधी 'मन के हारे हार मन के जीते जीत....' सच ही तो कहा है हमारे बुजुर्गो ने। वैसे भी जिंदगी हर कदम पर एक जंग ही तो है। सतर साल तक आते-आते जीवन में कितने उतार- चढ़ाव देखे पर कभी हार नहीं मानी। यहां तक हर कदम पर साथ चलने वाली पत्नी भी साथ छोड़कर चली गई। बेटा विदेश में रहता था ऐसे में अपना सब कुछ समेट कर वृद्धाश्रम रहने चला गया पर हार नहीं मानी। वहां भी अपना मन लगाने के लिए बागवानी को अपना मक़सद बना लिया और शक्ल बदल कर रख दी वृद्धाश्रम की....फलों और फूलों वाले इतने पेङ लगाए कि पूरा परिवेश महकने लगा....और आज....आज सांसों की जंग के आगे घूटने टेक रहा हूं मैं.... सदैव आशा के गीत गाने वाला विजय आज कैसे निराशा के भंवर में फस गया.....वाह रे वाह विजय....अपने नाम को लज्जित होने से बचा.....।

मुझे अपने निराशा वाले विचारों से कोफ्त होने लगी..... रात्रि का अन्धकार जैसे-जैसे बढ़ रहा था वैसे-वैसे मेरे मन के भीतर का उजाला बढ़ रहा था जो आंखों के रास्ते पूरे वजूद को अपनी गिरफ्त में ले रहा था। निराशा के कोहरे को चीरता हुआ सकारात्मक सोच का एक सूरज मेरी जिंदगी में उतरता हुआ प्रतीत हो रहा था। नहीं..... नहीं....मैं नहीं हारुंगा.... मेरी तो सारी रिपोर्ट भी ठीक आ रही है फिर.... फिर..... क्यों डर रहा हूं मैं..... कहते हैं 'डर के आगे जीत है'। अब ....अब बिल्कुल नहीं डरुंगा.... कोरोना रूपी राक्षस को हर हाल में हराऊंगा.... सांसों की इस जंग में मुझे विजयश्री का वरण करना है..... ।

पता नहीं ये संकल्प शक्ति का कमाल था या उस नर्स की मीठी अपनत्व से भरी बातों जादू....या फिर दवाइयों का असर भी हो सकता है बङ़ी देर तक सोता रहा आज मैं......। अचानक मीठी सी आवाज में मैनें अपना नाम सुना। विजय अंकल उठिए... कितना सोएंगे.... लगता है कल रात सारे घोङे बेचकर सोए थे आप....जिस परी को पूरी रात याद करता रहा वो ठीक उसके सामने खङी थी।

घोङों के साथ- साथ मैनें तो सारे गधे भी बेच दिए थे सिस्टर.... कहते हुए होंठों पर बरबस एक मुस्कान तैर गई। कल तक जिस खामोशी को मैनें अपना जीवन मान लिया था आज वो मूंह चुरा कर भाग गई थी। एक अर्से बाद सांसों को लयबद्ध तरीके से चलता हुआ महसूस किया था मैनें.....।

अरे वाह.....आप बातें बहुत अच्छी करते हैं विजय अंकल। देखिए आज मैं सबको एक गाना सुनाऊंगी....आप सबको मेरा साथ देना होगा.... कहते हुए उसने मोबाइल से गाना बजा दिया। हवा में बोल तैरने लगे "कहां तक ये मन के अंधेरे छलेंगे, उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे...." वार्ड में कुछ लोग सचमुच गाने लगे थे....कुछ मुस्कुरा कर सुनते हुए अपने हौसले दुरुस्त कर रहे थे.....तो कुछ लोग मूंह फुलाकर भी बैठे थे.....।

तभी मोबाइल पर आत्माराम का मैसेज चमका - कैसे हो विजय....यार...गुड मॉर्निंग.... जल्दी से ठीक होकर आ जाओ.... बहुत सूना-सूना लग रहा है तुम्हारे बिना .... चार दिन हुए हैं कि तुम यहां पर नहीं हो पर लगाता है तुम्हारे बैसिर-पैर के चुटकुलों के बिना खाना हजम ही नहीं हो रहा यार.... कहते-कहते रो पड़ा था आत्माराम।

बदले में मैनें सीधा फोन ही कर दिया आत्माराम को .....बस जल्दी ही लौट आऊंगा यार..... अभी हारने वाला नहीं हूं मैं.... अभी तो बहुत काम बाकी है.....मेरे लगाए पेड़ों के आम,अमरूद खाने भी बाकी है....और हां जहां मैं पढ़ाने जाता हूं उन गूंगे- बहरे बच्चों की जिंदगियों को संवारना भी बाकी है..... अभी यमदूत मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकते....बस दस दिन बाकी हैं वे भी यूं निकल जाएंगे चुटकियों में......और हां, दस दिन बाद जब आऊंगा तेरे हाथ की पूरन पोली खाऊंगा, देसी घी डालकर.... कहते हुए विजय ने इतनी जोर से ठहाका लगाया कि पूरे वार्ड के लोग के साथ सिस्टर भी उसे देखने लगी।

अरे यूं घुर- घुर कर मत देखो मुझे....बस मैं हारने से पहले जीना चाहता हूं.... सांस के संग जंग में विजय पाना चाहता हूं..... कुछ करना चाहता हूं खुद के लिए....समाज के लिए ..... चीरना चाहता हूं निराशा के कोहरे को.... लौटाना चाहता हूं इस दुनिया को उसकी खूबसूरती.... कहते हुए विजय को लगा उसकी आंखों में आशाओं का सूरज उग रहा है।

डॉ पूनम गुजरानी
सूरत
9825473857


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