कहानी - संदूक में सपना
संदूक में सपना
मैं कब से अनमनी सी बैठी कभी अतीत की झांकियों में खो रही थी, कभी वर्तमान में लौट रही थी तो कभी भविष्य का सपना देखने की कोशिश कर रही थी पर कहीं भी स्थिर नहीं रह पा रही थी। अजीब सी कशमकश थी। क्या करना है, क्या नहीं करना....बंद दरवाजों के पीछे कौनसा सच छुपा है.... कौनसा मोङ़ मुङ़ना सही होगा और कौनसा गलत....समझ नहीं आ रहा था।
जिंदगी में बहुत कुछ मिला पर क्या वो मिला जिसे मैं पाना चाहती थी, जिसका सपना मैनें जागृत आंखों से देखा था, जिसे पाने की पूरी शिद्दत से कोशिश भी कि पर कहते हैं ना भाग्य से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता। तो क्या अब वो समय आया है कि मैं अपना सपना पूरा करूं या फिर वो समय निकल गया....। उम्र के इस पङ़ाव पर बचपन के सपने को फिर से रख देने का मतलब मेरी समझ में नहीं आ रहा था।
जब मौसम सुहाना था, रंग बिरंगे दिन थे, मन में टन भर उमंग और उत्साह था, मन भर मेहनत थी तब भी अगर छटांग भर इन्द्रधनुष ना लपक पाई तो साठ पार करने के बाद अब जीवन में कौनसा बसंत लाने का सोच रही है तूं योगिता.... पागल कहीं की....कल भी पागल थी और आज भी पागल ही है....सोचते हुए मन ही मन अपने ही पागलपन पर मुस्कुरा दी मैं।
मन फिर से उङ़ चला संगीत और नृत्य की उस दुनिया में जहां मैं थी.... मीठे मीठे संगीत की स्वरलहरियां थी.... ढोलक की थाप थी.... सितार के स्वर थे....पांव में घुंघरु थे .... विभिन्न भांव भंगिमाएं बनाती काया थी.... मेरी लचकती कमर ऐसे कोण बनाती कि देखने वाला पलक झपकाना भूल जाता.... बोलती हुई आंखें सामने बैठी परिषद को अपने मोहजाल में ऐसा उलझाती कि लोग तन-मन की सुध खो बैठते और कार्यक्रम की समाप्ति पर बजने वाली तालियां मुझे दुगने उत्साह से सराबोर कर जाती।
जीवन का एकमात्र ध्येय और सपना पूरा नहीं कर पाई मैं.....इसकी पीङ़ा समन्दर के अंदर छुपे ज्वालामुखी की तरह मुझे भीतर ही भीतर आंदोलित करती रहती थी। बरसों हो गये मैं मन ही मन सुलगती रही पर कभी अपने दर्द को किसी से साझा नहीं कर पाई.... मेरा मौन कभी भाषा की चादर नहीं ओढ़ पाया.....राख के नीचे दबे हुए अंगारों को मैनें कभी हवा नहीं दी.....अपने सपनों के खाली कैनवास को रंगों का तोहफा भी नहीं दे पाई मैं....। समय का चक्र घूमता रहा....मैं पिसती रही.... अपना ही कोरमा बनाती रही....सेकती रही वक्त की भट्टी में हकीकत की रोटियां.... परोसती रही अपने ही अरमानों को सबकी थालियों में.... छलछलाती रही आंखें हर उस मोड़ पर जहां नृत्य और घुंघरुओं से मेरा आमना-सामना हुआ।
आज एक बार फिर समयचक्र को पङ़ोस में रहने वाली राखी उल्टा घूमा कर चली गई।सूखे हुए कपड़ों को तह करके मैं बस रखने ही वाली थी कि अचानक से आई बिन मौसम की बरसात सबको भिगो कर चली गई.... कपङ़े तो कपङ़े.... ये तो मेरे पूरे वजूद को भिगो गई और एक ऐसी चिंगारी डाल गई मन के छप्पर में कि वो चारों ओर से सुलग रहा है।आज मैं वहीं जब की तस खङ़ी हूं जहां से कभी शुरू हुई थी जिंदगी की गिनती।
तब....हां तब मैं सिर्फ बीस साल की ही तो थी जब भरतनाट्यम में विशारद होकर स्टेज शो करने लगी थी, शहर में मेरे नाम की धूम थी, मैं अपनी टीम को खुद ट्रेनिंग देती, कोस्टयूम खुद डिजाइन करती और बनवाती, भरतनाट्यम के साथ फिल्मी गानों का फ्यूजन बनाती, कङ़ी मेहनत और समर्पण का नतीजा था कि बहुत कम समय में हमारी टीम देश भर में अपने कार्यक्रम देने लगी थी।धीरे-धीरे मेरी ख्याति फैलने लगी थी। नवरात्रि में मेरे कार्यक्रमों की विशेष धूम मचती थी। मैं अपने देश के साथ- साथ विदेश में भी कार्यक्रम देने लगी थी । नेपाल, दुबई, थाइलैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों में आयोजित होने वाले सांस्कृतिक समारोह का मैं हिस्सा बन चुकी थी।
मम्मी-पापा की मैं इकलौती लाडली बेटी थी ।जीवन में भरपूर आजादी, विश्वास और प्रोत्साहन मिला था मुझे उनसे।कभी किसी तरह की रोक-टोक नहीं लगाई थी उन्होंने। अब जब मैं तीस के पार हो रही थी तो बार- बार मुझे शादी के लिए कहने लगे थे वे। शादी के लिए दवाब डाला जा रहा था। बहुत समझाया उनको मैनें कि मुझे नहीं करनी शादी, नृत्य ही मेरा जीवन है..... मैंनें अपना ब्याह घुंघरुओं से कर लिया है..... शादी कोई खुशी का पैमाना नहीं है..... मैनें अपना जीवन कला को समर्पित कर दिया है.....मैं किसी बंधन में नहीं बंधना चाहती..... लेकिन उन्होंने भी साफ कह दिया तुम जिससे चाहो उससे शादी करो, हम अपनी पसंद तुम्हारे ऊपर नहीं लादेंगे पर अब तुम्हें घर तो बसाना ही होगा। हम तुम्हें यूं बंजारों की तरह भटकता हुआ नहीं देख सकते.....उनका मानना था शादी कोई बंधन नहीं जीवन का एक खूबसूरत पङ़ाव है जो बेहद जरूरी है.....जब तन-मन थककर विश्राम करना चाहता है तब इसी पङ़ाव पर बंधा हुआ तंबु हमारा आसरा बनता है.... जीवन के सुखों में तो पूरी दुनिया का साथ मिल जाता है पर जब कभी दुख का पलङ़ा भारी होने लगता है तो यही सुरक्षा कवच हर मुश्किल का हल निकलता है..... जीवनसाथी के कांधे से मजबूत कोई कंधा नहीं होता.....सात फेरों का बंधन सिर्फ आपको बांधता है ये मानना यानि अर्द्ध सत्य से साक्षात्कार.....पूर्ण सत्य तो ये है कि तब हम बंधकर भी आजाद हो जाते हैं..... हमारा नजरिया सकारात्मक हो जाता है.... हमारे सपनों को पंख लग जाते है.....एक और एक मिलकर हम इग्यारह हो जाते हैं और फिर कोई मुश्किल, मुश्किल नहीं रह जाती। जीवन की सङ़क पर बम्पर और गढ्ढे दोनों आते हैं पर जीवनसाथी का हाथ पकड़कर हम उन्हें आसानी से धकिया देते हैं....। पापा-मम्मी ने शादी के इतने सुनहरे सपने दिखाए, इतने पोजिटिव किस्से सुनाये कि इंसान तो क्या पत्थर भी पिघल कर हाथों में वरमाला उठा लेता।
आखिर पैंतिस की उम्र में मेरा ब्याह निकुंज के साथ हो गया। शादी की मेरी पहली शर्त थी मैं नृत्य किसी भी परिस्थिति में नहीं छोङ़ूंगी, अपने स्टेज शो भी करती रहूंगी, उसमें कभी भी, किसी की भी, किसी भी तरह की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करूंगी, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
शादी हो गई पर न मेरा शहर बदला , न मैनें मेरी अटक बदली, न अपने काम में कोई बदलाव किया, न ही अपनी पहचान गंवाई जैसा की हर लङ़की के साथ होता है। निकुंज के रूप में एक स्पष्ट और बङ़ी सोच वाला पुरुष मेरी जिंदगी में आया था। अलबत्ता ये जरूर हुआ कि अब प्रेम के मायने समझ आने लगे थे.... हवाएं गुनगुना लगी थी.... धरती और आकाश साथ-साथ नृत्य करते प्रतीत होते थे..... दिशाएं झूमती थी....और जिंदगी रुमानियत से लबरेज हो उठी थी।
दो साल पलक झपकते ही बीत गये। तब कहां मालूम था आगे की जिंदगी मुझे किसी ऐसे मोङ़ पटकने वाली है कि संभलते-संभलते जिंदगी ही बीत जाएगी।
उन दिनों में उस खूबसूरत अहसास से गुजर रही थी जिससे रूबरू होकर एक स्त्री पूर्णता का अहसास करती। मेरी गोद गुलाबों से भरने वाली थी....मैं मां बनकर उस सुख को स्वयं में समाहित करने वाली थी जहां नरम हथेलियां मेरी अंगुली को पकड़कर चलने वाली थी.... जहां तुतलाती कर्णप्रिय आवाज मेरे कानों में मिश्री घोलने वाली थी.... जहां मेरा बालपन फिर से लौटने वाला था..... जहां मेरी धड़कनें अपनी कोख में किसी नन्ही जान की घङ़कनों को महसूस कर रही थी....जब डॉक्टर ने मुझे मां बनने की सूचना दी मुझे लगा चांद-सूरज सब मेरी झोली में आ गये हैं। मैं दो जुङ़वा बेटियों की मां बन गई थी।
मैनें कब सोचा था कि गुलाबों के साथ कांटे भी बिना बुलाए चले आते हैं। मैनें तो सोचा था बेटियों के आने के बाद मेरी ट्रैन जो काफी समय से यार्ड में खङ़ी थी फिर से चल पङ़ेगी। प्रेग्नेंसी के समय कुछ समय कि जो अंतराल मैनें लिया था वह जरूरी था पर आगे के लिए मैनें आया से लेकर कुक तक का इंतजाम कर रखा था पर हमेशा वो नहीं होता जो हम सोचते हैं।
मेरी एक बेटी जिसका नाम मैनें रागिनी रखा था वो पूर्ण स्वस्थ थी पर दूसरी बेटी जिसका नाम मैनें सरगम रखा था वो अपंग थी। उसके पांवों में जान नहीं थी। मुझे जब बताया गया तो लगा मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई.... मेरे सपनों की इबारतों पर किसी ने कालिख पोत दी.... मेरी दुनिया के सारे रंग उङ़ गये ..... मेरे घुंघरुओं से निकलती हुई कोई दर्द भरी धुन मेरा मूंह चिढ़ा रही थी....। मैं बहुत रोई, डॉक्टर मैडम को विज्ञान के नाम पर ब्लैकमेल किया, उनकी सारी डिग्रियां मुझे झूठी लग रही थी। जो हर महीने सोनोग्राफी के बावजूद मेरी अपंग बच्ची के बारे में नहीं जान पाई। जन्मजात की इस अपंगता का कोई इलाज भी संभव नहीं था।सरगम के दोनों पांव बेहद कमजोर और कुछ बांकपन लिए थे। मैनें और निकुंज ने बहुत कोशिश की कि कोई इलाज संभव हो सके पर ऐसा नहीं हो पाया।साल दर साल बीतता रहा, हम सरगम को लेकर भटकते रहे पर उसकी इस कमी को स्वीकार करने के अलावा हम कुछ भी नहीं कर पाये।
ऐसे दिनों मे जब मुझे मेरी दोनों बेटियों की परवरिश करनी थी और सिर्फ परवरिश ही नहीं करनी रागिनी के साथ-साथ सरगम को जीवन में आने वाली चुनौतियों के लिए भी तैयार करना था। मैनें बरसों पहले के अपने सपनों को इस संदुक में बंद कर दिया था जो आज मेरे सामने खुल्ला पङ़ा था।
उन दिनों मैं पारे की तरह टूट- टूटकर पून:-पून: जुङ़ रही थी। सपनों को जिंदगी की हकीकत के हवनकुंड में जला देना कितना पीङ़ादायक होता है इसे तो केवल वही समझ सकता है जिसने इस पीङ़ा को जिया हो। मेरे स्टेज शो बंद हो चुके थे, मेरे विधार्थी दूसरे गुरुओं की शरण में जा चुके थे, मैं डांस तो क्या फुरसत के कुछ पलों के लिए भी तरस जाती थी। मेरी कमाई बंद हो गई थी पर खर्च चार गुना बढ़ गया था। दोनों बेटियों की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ सरगम के लिए डॉक्टर, फिजियोथैरेपिस्ट, दवाइयां आदि के इंतजाम में मैनें और निकुंज अपने आपको हमेशा अक्षम ही पाया। जमा पूंजी धीरे-धीरे खत्म हो रही थी। बाद में मेरे गहने और पी एफ आदि भी हमारी जरुरतों की भेंट चढ़ गये। जिंदगी में पैसे की अहमियत क्या है इन्हीं मुश्किल दिनों ने हमें सिखाया। गनीमत बस इतनी थी कि मम्मी-पापा की बचत और प्रोप्रर्टी की बदौलत हमें किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पङ़ा।
दोनों बेटियां धीरे-धीरे बङ़ी हो रही थी और अपने आसमान को विस्तार दे रही थी। रागिनी हंसमुख और मिलनसार थी, वहीं सरगम अंर्तमुखी थी। रागिनी और सरगम दोनों साथ-साथ बढ़ रही थी ,पढ़ रही थी पर दोनों की जरूरतों में अंतर था। रागिनी अपना हर काम खुद कर लेती थी पर सरगम के साथ मुझे हर समय लगे रहना पङ़ता था। रागिनी डॉक्टर बनना चाहती थी तो सरगम का मन सिविल सर्विसेज में जाने का था। सरगम की जिंदगी व्हील चेयर पर सिमटी हुई थी पर सपने रागिनी की तरह ही बङ़े-बङ़े थे। निकुंज कहते थे - "सपने देखने में दोनों बेटियां तुम पर गई है योगिता"। मैं उनके होंठों पर उंगली रख देती- "मेरी बेटियों को नजर मत लगाओ निकुंज....भले ही मैं अपने सपनों को पूरा नहीं कर पाई पर मैं अपनी बेटियों के सपनों को जरूर पूरा करूंगी...." जब-जब सपनों की बात आती मुझे दूर से बजते हुए घूंघरूओं की आवाज सुनाई देती, आंखें पनीली हो जाती, जाने कितने ही चित्र मेरी आंखों में तैर जाते जिन्हें नजर-अंदाज करना मेरी मजबूरी थी। मैं नृत्यांगना से पहले एक मां थी और किसी भी मां के लिए संतान की खुशी से बढ़कर कोई सपना नहीं हो सकता। मैनें अपनी हर तमन्ना, हर खुशी पर रागिनी और सरगम का नाम लिख दिया था। मेरे जाने कितने पुण्यों का फल थी मेरी बेटियों .... समझदार,विनम्र, मजबूत इरादों की धनी मेरी बेटियां मेरा गुरूर थी। सरगम भले ही शारीरिक रूप से विकलांग थी पर मानसिक रूप से दृढ़ आत्मविश्वास की धनी थी। दोनों ही पढ़ाई में बहुत अच्छी थी सो उनको मिलने वाली स्कोलरशिप हमें कुछ रहात दे जाती। उनकी प्रगति का ग्राफ दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा था। मैं और निकुंज आने वाले भविष्य के सुखद सपने देखने लगे थे। निकुंज अक्सर कहते- "लग रहा है आने वाले दो तीन सालों में दोनों बेटियों को अपनी मंजिल मिल जाएगी फिर हम बुढ़ा- बुढ्ढी अपनी दुनिया में मौज करेंगे पर वो कहां जानता था कि उस मौज से पहले मौत उसका इंतज़ार कर रही थी।एक हर्टअटैक और सब कुछ खत्म..... जिसने जीवन के हर सुख-दुख में साथ निभाया वो अचानक मुझे छोड़कर वहां चला गया जहां मेरी कोई आवाज़ उसे सुनाई नहीं दे रही थी।
आज रागिनी एक किडनी स्पेस्लिस्ट है और सरगम आइ एस अॉफिसर .....ये खुशकिस्मत हैं कि दोनों इसी शहर में है पर दोनों की व्यस्तता मेरे अकेलापन को और अकेला कर रही है।
साठ की उम्र, ढ़ीली- ढ़ाली तबियत, अकेलेपन की खटास आजकल मेरे ऊपर ज्यादा ही हावी हो रही थी। दिवाली नजदीक थी सो कुछ साफ़-सफाई करने की सोची।थोङ़ा टाइम पास भी हो जाएगा और घर से कबाङ़ भी कम है जाएगा यानी आम के आम गुठलियों के दाम....।
आज दछुती में पङ़े बरसों पूराने बक्से को हाथ लगाया तो जाने कितनी यादें ताजा हो गईं.... जाने कितने सपने जाग्रत हो गये..... जाने कितने चिंगारियों की हवा मिल गई..... और सच कहूं तो मेरे घूंघरूओं की सांस में सांस आई गई..... एक-एक मोमेंटो,बङ़ी बङ़ी हस्तियों के साथ लिए गये एक-एक फोटोग्राफ मेरी स्मृतियों को ताजा कर रहे थे। मेरे कोस्टूयम....अलग-अलग डिजाइन की आर्टिफिशियल ज्वैलरी.... जाने कितने रंग..... कितनी यादें.....कितने सपने.....शायद मेरी पूरी शख्सियत.... बरसों से संदूक में बंद कसमसा रही थी।आज उससे रूबरू हुई तो अपने आपको रोक नहीं पाई। ऐसे में कब मैनें अपने घुंघरुओं को अपने पांवों में बांधा, डेक चलाया और नाचने लगी मुझे होश ही नहीं था।
मैं पसीने से लथपथ निढाल होकर सोफे पर गिर पङ़ी थी।जब होश आया तो अचानक लगा कोई बेल बजा रहा है । लपक कर दरवाजा खोला तो सामने पङ़ोसन की बेटी रेखा खङ़ी थी। कह रही थी - "आंटी क्या कमाल का डांस करती हैं आप ....मैं तो आपको देखकर पलक झपकाना ही भूल गई थी। बरसों से आप यहां रहती हो योगिता आंटी पर अपने कभी बताया नहीं .... मैं भी तो डांस सीख रही हूं एक साल बाद मेरा भी आंगेत्रम भी हो जाएगा। आपको पता है नेशनल लेवल पर अभी एक कम्पीटिशन है जिसमें आपको किसी भी फिफ्टी पल्स पर्सन के साथ डांस करना है। मैं तो कितने दिनों से ढूंढ रही थी पर कोई मिला ही नहीं.... पर आज.... आज आप मिल गये हो.... प्लीज, मना मत करना आंटी। मैं कल उस कम्पीटिशन का फॉर्म लेकर आती हूं। आप बस अपना आई डी और पासपोर्ट साइज फोटो निकाल कर रखिएगा.... वो अपनी ही रो में कहती जा रही थी और मैं बार-बार उस खिड़की की ओर देख रही थी जो रेखा के घर की तरफ खुल रही थी और सोच रही थी कि मैनें डांस करने से पहले इसको बंद क्यों नहीं किया।
क्या संदूक में बंद सपना अब बाहर निकलना चाहता है.....एक बङ़ा सा प्रश्नचिन्ह मेरे सामने है। जिसका उत्तर पाने के लिए मैं कभी खुद को, कभी सामने पङ़े संदूक को और कभी मुस्कुराते घुंघरुओं को देख रही हूं।
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत
9ए मेघ सर्मन 1 सीटी लाइट सूरत 9825473857