कहानी
कामिनी निर्विकार भाव से बैठी शून्य में
ताक रही थी। सामने रखी हुई चाय कब की ठंडी हो चुकी थी।कल तक जिस घर में हंसी-मजाक, ठहाकों की आवाजें गूंजती थी, रसोई खूशबू से तर रहती, कहीं बेटी की साङ़ियां बिखरी होती तो कहीं सलवार-कमीज़, कभी कौनसी फिल्म देखने जाना है इस पर भारी डिश्कशन होता तो कभी अगली छुट्टियों की प्लानिंग.....पर आज पूरे घर में गहरी चुप्पी थी।
कामिनी के कानों में अचानक बेटी और नातिन की आवाज गूंजने लगती पर नजरें उठाकर देखती तो सांय-सांय करता उदास घर खाने को दौङ़ रहा था।गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था चारों ओर ठीक कामिनी के अंतर्मन की तरह....। कामिनी ने गहरी सांस ली और उठ खड़ी हुई।
बालकनी में टहलते हुए कामिनी ने नीचे देखा। बगीचे में खेलते हुए बच्चों को देखकर फिर स्वीटी की याद आ गई।एक हूक सी उठी भीतर से जो उसकी आंखें भिगो गई। बिल्कुल नीरू पर गई है स्वीटी....,.। हां नीरू भी तो इतनी ही थी जब उसकी गोद में आई थी। वक्त पंख लगाए कैसे उङ़ जाता है पता ही नहीं चलता।
कामिनी बालकनी में रखी आरामकुर्सी पर आंखें मूंदकर बैठ गई।
"क्या दीदी, आपने चाय भी नहीं ली, तबीयत तो ठीक है ना आपकी.... " रीमा ने कंधे पर हाथ रखते हुए अपनत्व से पूछा।
"अ...हां....हां.... बिल्कुल ठीक है, " कामिनी अचकचा कर बोली।
"दूसरी चाय बना दूं दीदी....'।
कामिनी गहरी सोच में डूबी हुई थी, उसने कोई जवाब नहीं दिया।
"क्या बात है दीदी.... लगता है आपको नीरू की याद आ रही है"। रीमा वर्षों से कामिनी के पास काम करती थी, भली भांति जानती थी कि उसके मन में क्या चल रहा है।
"अरे नहीं री.... कामिनी ने जबरदस्ती मुस्कुराने कि प्रयास किया। बेटी तो होती ही पराया धन है। मैं तो खुश हूं, ऐसा योग्य दामाद और नातिन का सुख लिखा है मेरे भाग्य में....मैं तो अगर दिया लेकर ढूंढती तब भी ऐसा दामाद न ढूंढ पाती।ये तो नीरू की किस्मत है कि उसे ऐसा होनहार, व्यवहारकुशल, नेकदिल जीवनसाथी मिला"।
"चल थोङ़ी सी कॉफी बना दे...." रीमा को कॉफी का कहकर कामिनी अपने बेडरूम में आ गई। तकिया लेकर लेटी तो बंद आंखों के सामने अतीत चलचित्र की भांति संजीव हो उठा।
ये बात जब की है जब मैं बीए फाइनल में थी कि एक दिन पापा ने आकर कहा- "कल विकास के मम्मी-पापा आ रहे हैं तुम्हें देखने, कामिनी तुम घर पर ही रहना"। अचानक शादी की बात सुनकर मुझे झटका सा लगा। मैं अभी आगे पढ़ना चाहती थी। कुछ बनने की तमन्ना मन में थी पर जब पापा से कहा तो दो टूक जवाब सुना दिया- "देखो कामिनी, मैं तुम्हारे कुछ बनने के चक्कर में नहीं पङ़ना चाहता, फिर तुम्हारे पीछे छोटी भी तो है ....। अपनी नौकरी रहते मैं तुम दोनों के हाथ पीले कर देना चाहता हूं। भगवान ने बेटा तो दिया नहीं, समय रहते मैं अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहता हूं। विकास अच्छे खाते-पीते घर का लङ़का है। वो तो तुम सुंदर हो इसलिए बात बनी है वरना.... उसके घर लङ़की वालों की लाइन लगी है..... " पापा मुझे समझा रहे थे। मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया, मेरे सपने चूर-चूर हो गये थे। बहुत रोई थी उस दिन मैं....। मुझे याद आये बचपन के वे दिन जब पापा मुझे राजकुमारी कहकर बुलाया करते थे। हम दो बहनें ही थी पर पापा ने कभी हमें बेटे से कमतर नहीं माना था। पर आज....।
पापा अक्सर कहते थे - देखना मेरी होनहार बेटियां मेरा नाम दुनिया में रोशन करेंगी,मैं इन्हें आई एस आॉफिसर बनाऊंगा, लालबत्ती की गाड़ी में बैठकर जब ये जाएंगी तो दुनिया देखती रह जाएगी।
पर मम्मी के जाने के बाद पापा बिल्कुल बदल गये। हमेशा हंसते रहने वाले पापा का स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया था। उन्हें अपनी जिम्मेदारियों से निवृत होने की भी बहुत जल्दी थी। उन्हें लगता कहीं मेरी भी असमय मौत हो गई तो....शायद ये भय उनके डिप्रेशन का कारण बन गया और लील गया हमारे तमाम सपनों को.....। मैनें और छोटी बहन दामिनी ने बहुत कोशिश की पर पापा को डिप्रेशन से बाहर नहीं निकाल पाए।
अब तो घर में वही होता जो पापा कह देते।
जिस दिन विकास अपने मम्मी-पापा के साथ मुझे देखने आए उसी दिन मेरी और विकास की सगाई तय हो गई और परीक्षाएं खत्म होते ही विवाह.....।सब कुछ इतना आनन-फानन में हुआ कि सोचने-समझने का मौका ही नहीं मिला। वैसे विकास मुझे भी पसंद आया। लम्बा कद, गौर वर्ण और उसका शायराना अंदाज। अब मेरे सपनों में था विकास ....और सिर्फ विकास....। मेरी पापा से सारी शिकायतें भी रफा-दफा हो गई थी। मुझे विकास से इश्क हो गया था।
सच लङ़कियां भी बङ़ी अजीब होती है। उनकी जिंदगी में इश्क का मौसम आते ही वे सब कुछ ड्राप कर देती है।सारे सपने....ख्वाहिशें....तम्मनाएं....कर देती है प्रेम के हवाले....।
आई एम इन लव....इस एक वाक्य के सहारे वो सब कुछ छोड़कर उस शख्स के साथ उङ़ जाती है सपनों के रंगीन आसमान में जिसे कल तक वो जानती तक नहीं थी.....।एक शख्स के मिलते ही नए सपने परवान चढ़ने लगते हैं.... इन्द्रधनुषी ख्वाहिशें नए सिरे से जिंदगी कि फलसफा तय करने लगती है.... पूरी दुनिया को उसी नजर से देखने लगती है जिन आंखों में उसे खुद के लिए प्यार दिखाई देता है।
शादी के बाद ठीक ऐसा ही हाल मेरा भी था। विकास को देखकर दिन शुरू होता तो विकास की बांहों में रात....। मैं वही पहनती जो विकास को पसंद था....वहीं करती जो विकास को पसंद आए.... मेरी सोच-विचार सब पर विकास का कब्जा था.... विकास के प्यार का जादू मेरे सर चढ़कर बोल रहा था.... मेरी जिंदगी विकास से शुरू होकर उसके आगे- पीछे लट्टू की तरह नाच रही थी....।
शादी के महिने भर बाद हम हनीमून मनाने गोवा चले गए। गुलाबी सुबह....सुहानी शाम....समन्दर की लहरें.... खुशनुमा माहौल....पींगे भरता इश्क.... गाली रेत पर निशान छोङ़ते कदम,.... बांहों में बांहे और आंखों में आंखें डाले एक दूसरे का साथ..... लेकिन इन सबके बीच कुछ ऐसा था जो मुझे हलवे के बीच किरकिरी का अहसास करवा रहा था।
हनीमून के दौरान मैं समझ गई थी कि विकास को काफी गुस्सा आता है।एक तरफ उसकी जिंदादिली मन मोह लेती तो दूसरी तरफ उसका गुस्सा मेरे सारे अरमानों पर पानी फेर देता।बात-बात पर रोकना- टोकना विकास की आदत थी।पल में तोला पल में माशा.... विकास का बर्ताव मेरे सामने बहुत से प्रश्नचिन्ह छोङ रहे थे पर किससे कहती....क्या कहती....दस दिन गोवा में बिताकर हम इलाहाबाद लौट आए थे।
धीरे-धीरे मेरी समझ में आ गया था कि विकास जिद्दी, क्रोधी, और गुस्सेल स्वभाव वाला मनमौजी इंसान था। उसके लिए वही सही था जो उसने कहा। किसी ओर की बात सुनना-मानना उसे गंवारा नहीं था। मैं सब कुछ जान गई थी पर मैनें सोचा मैं अपने प्यार से विकास की बुराइयों को अच्छाई में बदल दूंगी....बस इसी प्रयास में मैं उलझती चली गई।
मेरा समझाना विकास को हमेशा उपदेश ही लगता, वो झल्लाकर चीख पङ़ता। संयुक्त परिवार में मुझे सबके सामने बार-बार अपमानित होना पड़ता। मेरी टीस मेरी आंखों से पानी बनकर बरसती पर इससे कहां कुछ बदलने वाला था।
"दीदी कॉफी.... " रीमा ने लाइट जलाते हुए कहा।
बाहर गहरा अंधेरा हो गया था, ठीक मेरे जीवन में छाये अंधेरे की तरह....पर रात को ज़्यों चन्द्रमा आलोकित करता है, नीरू भी रोशनी बनकर आई थी मेरी जिंदगी में....।
कॉफी पीते हुए यादों के पन्ने फिर फङ़फङ़ाने लगे थे मेरे सामने।
शादी के दो साल बाद विकास का तबादला दिल्ली हो गया। मैनें राहत की सांस ली, कम से कम सबके सामने जलील तो नहीं होना पड़ेगा।
विकास की आदतें यहां भी ज्यों की त्यों बनी हुई थी।हर बात हर चीज में मीन-मेख निकालना, चिल्लाना, अपनी टांग छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बात पर ऊपर रखना उसके स्वभाव का हिस्सा थी। मैं लाख कोशिश करती पर विकास किसी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं था। कभी-कभी मेरा मन करता कि सब कुछ छोड़कर कहीं भाग जाऊं.... कहीं दूर.... बहुत दूर....पर कहां.... ये ऐसा यक्ष प्रश्न था जिसका जवाब नहीं था मेरे पास। परंपरा की बेङ़ियों में जकङ़ा मेरा मन डोली में आने वाली सिर्फ अर्थी पर ही वापस जाती है के आगे कुछ सोच ही नहीं पाता....।
दिन, महीने, साल यूं ही गुजरते जा रहे थे....। धक्का- मुक्की करते हुए सांसें चल रही थी.... । मेरा मोम दिल पत्थर होता जा रहा था.... । मुझे सब कुछ सहने की आदत सी हो गई थी फिर चाहे वे शब्दों के तीर हो या कुछ बोलने की एवज में मिलने वाला तमाचा....।
शादी को चार साल बीत गए थे पर मेरी गोद सूनी ही रही। विकास को एक ओर बहाना मिल गया थि मुझे अपमानित करने का। भगवान भी न जाने किन कर्मों का फल दे रहा था.... डॉक्टर ने तो सब कुछ नार्मल ही कहा था पर हारे हुए जुआरी की तरह चुप रहना ही मेरी नियति बन गई थी।
कॉफी खत्म कर टहलते हुए याद आया वो दिन, जब नीरू मेरी जिंदगी में आई।
उस दिन सुबह आंख खुली तो लगा नीचे काफी शोर हो रहा है। मैनें बालकनी से देखा पर माजरा समझ नहीं आया तो फिर नीचे चली गई.... पुलिस भी थी। पता चला किसी टैक्सी वाले की टैक्सी में कोई अपनी एक साल की बेटी को छोड़ गया था। बच्ची उस भीङ़ को देखकर लगातार रो रही थी। सब उस मासूम से तरह तरह के सवाल कर रहे थे, लेकिन वो उन सब अजनबियों को फटी-फटी आंखों से देखती और फिर रोना शुरू कर देती। पुलिस अपनी पूछताछ कर रही थी टैक्सी वाला अपनी अनभिज्ञता की कहानी कह रहा था। लोगों के कयास जारी थे कोई माता-पिता के भूलने की बात कहता..... कोई जानबूझ कर छोड़ देने की.... कोई बेपरवाही के अन्य किस्से सुना रहा था....तो कोई भगवान की लीला बता रहा था.....पर किसी को बच्ची की परवाह थी ऐसा नहीं लग रहा था। मैनें आगे बढ़कर बच्ची को गोद में ले लिया और फिर पास ही की पान की दुकान से टॉफी और बिस्किट खरीद दिए। बच्ची थोङ़ा सा स्नेह पाकर चुप हो गई। मेरी ममता मुझे मजबूर कर रही थी मैं लगातार उसके सर पर हाथ फिराती रही। पुलिस ने अपनी कार्यवाही समाप्त की और मेरी गोद से बच्ची को लेने लगी। मैं जैसे ही बच्ची उन्हें सौंपने लगी वो फिर से रोने लगी। अब मेरी ममता अपने चरम पर थी मैं उसे रोते हुए नहीं देख पा रही थी । फूल सी नन्ही जान मेरी गोद से नीचे नहीं उतरना चाहती थी, उसने मेरी साङ़ी का पल्लु कसकर पकड़ रखा था। मेरे भीतर की मां ने बिना विकास की परवाह कहा- "जब तक इसके माता-पिता नहीं मिल जाते क्या मैं इसे अपने पास रख सकती हूं" ?
पुलिस वालों की तो जैसे बला टली...." क्यों नहीं....जब इसके मां बाप मिल जाएंगे हम इसे ले जाएंगे"। मेरा नाम, पता नोट कर पुलिस ने अपनी राह पकड़ी और मैनें अपनी....। मैं बच्ची के सर पर हाथ फिराते,उससे बातें करते जब घर के दरवाजे पर पहूंची तो होश में आकर ठिठक गई, विकास दरवाजे पर ही खड़ा था। "विकास में बच्ची अपने माता-पिता से बिछुड़ गई है..... बुरी तरह रो रही थी....तो...तो मैनें.... " किसी तरह थूक निगलते हुए मैनें कहा।
विकास पांव पटकते हुए भीतर चला गया।आने वाले तूफान का अंदाजा हो चुका था मुझे....पर अब क्या....तीर तो तरकश से निकल चुका था। " विकास पता नहीं, क्या सलूक करती पुलिस इस मासूम के साथ.... इसलिए इसे अपने साथ ले आई....क्यों ठीक ही किया ना मैनें.... " कहते हुए मेरी जुबान लङ़खङ़ा रही थी....बदन सूखे पत्ते की भांति कांप रहा था।
"हां...हां.... बङ़ा पून्य का काम किया।न जात का पता, न धर्म का....पता नहीं किसका पाप है बस ले आई गोदी में उठाकर....घर पर ही पङ़ा था मैं..... पूछने तक की जहमत नहीं उठाई तुमने.... बहुत चर्बी चढ़ने लगी है आजकल ...." भुनभुनाते हुए विकास ऑफिस चला गया।
चार दिन तक लङ़की के मां-बाप कोई पता नहीं चला विकास रोज मुझसे लङ़ता, लङ़की को पुलिस के हवाले करने की बात कहता या फिर अनाथालय छोङ़ने की रट लगाता पर मुझे अपनी ममता की पुकार के आगे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। विकास की हर बात पर मैनें चुप्पी का ब्रह्मास्त्र रख दिया था। मेरी चुप्पी उसके गुस्से की ज्वाला में घी का काम कर रही थी।
एक दिन मैनें हिम्मत करके विकास से पूछा -"विकास क्यों न हम इस बच्ची को हम गोद ले लें....प्लीज विकास मना मत करना"।
बिफर गया था विकास मेरी बात सुनकर। जाने कितनी जली कटी बातें सुनाई थी उसने मुझे और फिर अपना फैसला सुनाते हुए बोला- "देखो कामिनी, किसी ओर के पाप को मैं अपने गले की घंटी हरगिज़ नहीं बना सकता।मैं तीन दिन के लिए कंपनी के काम से बाहर जा रहा हूं,जब वापस आऊं तो ये पाप का लोथड़ा मुझे यहां दिखाई नहीं देना चाहिए वर्ना ऊपर से नीचे फैंक दूंगा," दहाङ़ता हुआ विकास चला गया....।
भीतर तक कांप गई थी मैं। अजीब कशमकश थी।एक तरफ जिद्दी, झगङ़ालू पति था तो दूसरी ओर थी फूल सी मासूम बच्ची जो अब मुझे मेरे वजूद का हिस्सा लग रही थी।
बहुत उलझन भरे थे वे तीन दिन....।मैं उस मासूम बच्ची को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी, मेरी ममता का वेग इतना अधिक था कि मेरी छाती में दूध उतर आया था,न जाने किस भावावेश में मैं उसे दूध पीलाने लगी थी। भगवान ने मेरे लिए अनमोल तोहफा भेजा था । मेरी मन्नतें, प्रार्थनाएं, व्रत,उपवास सब पूरे हो गये थे फिर भला कैसे छोङ़ दूं डूबती नैया की इस पतवार को....।
क्या पति नामक जीव इतना महत्वपूर्ण है जिंदगी में कि उसके बिना जिया नहीं जा सकता....क्या उसके लिए मैं अपनी ममता का गला घोंट दूं.....क्या मंगलसूत्र और सिंदूर की बेङियों में जकङ़ी नारी का पति से अलग कोई व्यक्तित्व नहीं.....क्या गुस्सेल पति की गालियां खाने से अच्छा ममता के समंदर में गोते लगाना नहीं है....ये प्रश्न लगातार मेरा आत्ममंथन कर रहे थे।
प्रश्नों के चक्रव्यूह में उलझते-निकलते दो दिन बीत गये थे। अजनबी मासूम बच्ची और अपने पति विकास में से मुझे किसी एक को चुनना था....वो भी विकास के लौटने से पहले.... आखिर बहुत सोचने के बाद मैंनें फैसला लिया कि मैं न तो इसे पुलिस के हवाले करूंगी....न ही इसे अनाथालय भेजूंगी....पत्नी बनकर बहुत जी ली....अब मां बनकर जीने की इच्छा और दृढ़ निश्चय ने मुझे जोश से भर दिया था । मैनें अपना समान बांधा, जेवर और पैसे भी रख लिए....मैं जानती थी जब तक कोई स्थाई इंतजाम और नौकरी नहीं मिलती इन्हीं रूपयों से काम चलाना होगा। विकास के नाम मैंनें एक छोटा सा खत छोङ़ दिया।
विकास,
मैं जा रही हूं।पत्नी बनकर जी ली। मुझे नहीं लगता तुम्हें मेरी कोई खास जरूरत होगी।आज इस मासूम को मेरी जरूरत है। तुम इसे अपना नहीं सकते और मैं इसे छोड़ नहीं सकती.... इसलिए जा रही हूं। मां बनकर जीना चाहती हूं। तुम चाहो तो दूसरी शादी कर लेना .....मैं कभी तुम्हारे पास लौटकर नहीं आऊंगी.... मुझे जीने का मकसद मिल गया मैं इसे खोना नहीं चाहती....।
कामिनी
इसके पश्चात दिल्ली से दूर महाराष्ट्र कै इस छोटे से कस्बे में आ गई।अब सफेद साङ़ी मेरे विधवा होने की पहचान थी। बेटी का नाम मैनें निरूपमा रखा था और उसके पिता की जगह के के अग्रवाल भर दिया। बस यही थी मेरी तब की पहचान जो आज तक कायम है।
यहां आकर मैनें छोटे बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।बाद में एक स्कूल में नौकरी मिल गई। नीरू और मैं साथ-साथ स्कूल जाते। जिंदगी की आवश्यकताओं को पूरा करने जितनी आमदनी हो जाती थी। नीरू धीरे-धीरे बङ़ी हो रही थी। पढ़ने में वो काफी तेज थी, टेबल टेनिस खेलने में उसका कोई जवाब नहीं था। राज्यस्तरीय कई पुरस्कार उसे मिले थे।
इसी दौरान नीरू की मुलाकात संदीप से हुई । पहचान पहले प्यार और फ़िर शादी में तब्दील हो गई। तीन साल पहले मैनें संदीप और नीरू की शादी कर दी ।मैं बहुत खुश हूं।
पिछले दस दिन नीरू, संदीप और नातिन स्वीटी छुट्टियां मनाने आए थे मेरे पास....मैं आज पूरी तरह संतुष्ट हूं एक मां के रूप में..... नानी के रूप में....।
रे हाथ खुद बा खुद आसमान की ओर जुड़ गए - हे भगवान....मैं तेरी शुक्रगुजार हूं..... तूने मेरी गोद ममता से भर दी....। मेरी सबसे बड़ी दौलत है मेरी बेटी नीरू.....। मैं बहुत खुशनसीब हूं क्योंकि मैं एक मां हूं..... सिर्फ एक मां....हां....हां.... सिर्फ एक मां....। सोचते- सोचते अपनी गीली आंखों को पोंछते हुए मेरी उंगलियां नीरू के नम्बर डायल करने लगी।
मे
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत
9825473857