राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 18 राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 18

एक अद्भुत प्रभावी कृति-गुरदयालसिंह का ‘‘परसा’’ ‘

राधारमण वैद्य

पंजाब के स्वाभिमान, अक्खड़पन, आत्म गौरव और सधुक्कड़ी स्वभाव को उजागर करता यह ‘‘परसा’’ नामक उपन्यास अपने ढंग का, एक अलग चरित्र चित्रित करता है। इसमें पंजाब के ही एक खण्ड विशेष मालवा क्षेत्र को केन्द्र बनाकर गुरदयाल सिंह ने अपने इस ‘‘परसा’’ की खूबियों को फैलाया है। संतराम का बेटा सरूपे और सरूपे का बेटा परसा अपनी पैतिृक उदारता, सदाशयता और मानवी धर्म का आगे बढ़ाता है। कर्म की गरिमा को वह पहचानता है और जब जो ठीक समझता है/करता है वह इसके लिए यह सोचकर कि लोग क्या कहेंगे। जरा सी हिचकिचाहट नहीं दिखाता, वह अपने मितरग्गी वाले के कथन को गाँठ कर चुका है कि ‘‘धरम-करम, सच-झूठ, सभी के लिए समान अर्थो वाले शब्द नहीं हो सकते। हर आदमी अपनी बुद्धि और मतानुसार अर्थ निकालता है, ऐसे ही अन्तरात्मा का निर्णय करते समय का निर्णय करते समय भी अपना ही बुद्धि विवेक काम आता है।’’

परसा का आत्मबल प्रबल है। वह अपने दो बेटों को, जो बाहर रहकर अपना भविष्य बनाना चाहते है, हिदायत देता है कि ‘‘बच्चू इतना ध्यान रखना कि संसार में पैर-पैर पर शिकारियों ने जाल फैला रखे हैं.......एक बात पल्ले बाँध लो कि जहाँ भी जैसे भी रहो ‘‘बंदे’’ बनकर रहो।’’ इससे उसके स्वभाव की सावधानी और स्वाभिमान का पता चलता है, उसके जीवन को भी देखने पर इन बातों पर विश्वास की सत्यता प्रकट होती है। उसे पाखण्ड की जिन्दगी कभी नहीं जीनी चाही। जो उसके भीतर, सो बाहर। संत वचनों को उसने अपने जीवन में तरजीह दी, बाबा फरीद शंकरगंज का यह कथन ‘‘बस्सी रब्ब हिया लिए, बाहर का ढूडहे के आधार पर उसने कभी सुबह शाम न उसने भगवान की मूर्ति के आगे धूप-बत्ती जलाई न माला पकडकर दो घड़ी राम का नाम लिया। वह एक उदासी भाव से अपना जीवन जीता है, पर अपने कर्तव्य से विमुख कभी नहीं हुआ।

वह गृहस्थ मार्ग को सबसे उत्तम मानता है। साधु संत बनने को भटकना मानता है। वह ब्राह्मण होकर किसान की जिन्दगी जीता है। वह सुख दुख को जुडवंे भाई मानता है। जिनकी पीठें आपस में जुड़ी हैं। अगर दोनों के चेहरे एक से न दिखे तो इसे वह अपनी नजर का भेंगापन मानता है, समय को वह बहता पानी मानता है, वह विपत्ति आने पर सोचता है ‘‘कोई बात नहीं, वह समय नहीं रहा, तो यह भी कब तक रहेगा।’’ टिंडी को अभी तक पता नहीं चला था कि परसा कैसा आदमी था। कभी वह उसे देव दैत्य जैसा लगता, तो कभी साधारण आदमी जैसा, कभी सुरीली आवाज में गाने वाला रागी-कविशर तो कभी रूखा सा जाट। पर सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि परसा और उसके लड़के उसे ब्राह्मणों जैसे कभी न लगे। कोई पूजा-पाठ, तिलक-जनेऊ, हवन-यज्ञ-कभी तो कुछ नहीं किया इन लोगों ने। असल में उनके लिए काम ही करम है। करम-कांड, रीति-रिवाज का झंझट तो उसके बापू ने बचपन में छुडवा दिया था और एक ही बात सिखाई थी कि ‘‘करम नाम है काम का।’’ इसलिए यह भगवान की चमत्कारी शक्तियों पर विश्वास करने के बजाय स्वयं पर भरोसा करता है और उसे अपने आप पर भरपूर भरोसा है।

वह जमीन से जुडा रहने वाला किसान है, सीधा-सादा किसान जो दिन-रात मिट्टी से मिटटी होता, शाम को गीली-मिट्टी पर घूमता उस मिट्टी का अहसास करता, जिससे उसकी देह, आत्मा का निर्माण हुआ है, धरती से जाट का सीधा रिश्ता है। जैसी शक्ति धरती की वैसी ही किसान की। असल में तो दुर्गा का पुजारी जाट ही है-शक्ति ही उसकी देवी है। चढ़ती उम्र से उसे यह समझ है। अगर कोई उलझा भी तो उसे अपने बाहुबल का पहले परिचय कराया, फिर हृदय की उदारता और शिलान्यास के कारण उसे निरीहता की अवस्था में देखकर छोड़ भी दिया। किसी भी खतरे को भारी नहीं समझा न अपने बेटे बसंता को समझने दिया।

गुरूदयाल सिंह की इस कृति ‘‘परसा’’ को एक महाकाव्यात्मक कृति कहा गया है। इसमें परसरामा के जीवन के सहारे पंजाब के जाट का जीवन उकारा गया है। परसा के जीवन के विभिन्न पहलू दर्शाते हुए लेखक पंजाब के और विशेष रूप से इस भू-भाग के जन-समुदाय के जीवन का भीतरी सांस्कृतिक पक्ष उभरता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता पद्यश्री पंजाबी कंथा शिल्पी गुरदयालसिंह की यह रचना ‘‘परसा’’ पंजाब के जाट के हृदय की सम्पन्नता को बड़ी कुशलता के साथ एक पात्र के जीवन में फैला देती है। वह जो कुछ है संतों की वाणी के प्रभाव से है, पर संतों का वह अंधभक्त भी नहीं हो पाता।

परसा सांसारिक होते हुए भी असांसारिक है। गृहस्थ होते हुए भी विरक्त, वह जब जो आवश्यक लगे, उसे करने में वह स्वयं तत्पर रहता है। और चाहता है कि उसका बेटा बसंता भी वैसा ही करें इसलिए वह बसंता को दोनों मौकों पर पहले उसके विवाह के प्रसंग पर और बाद में क्रांतिकारियों के साथ देने पर, रोकता नहीं, बल्कि उकसाता है, प्रेरित करता है या देखकर भी अनदेखी करता है। वह विषम परिस्थितियों में जुट जाने के समय हो, या बच्चे को अंगीकार कर पुनः गाँव के उसी घर को फिर घर की तरह बसाने पर वह हर काम कर्तव्य समझकर, करता है। रागात्मकता, भावुकता के वश कभी नहीं होता। हरिद्वार में संत नारंगदास के आश्रम में एक रूपवती को आते जाते बीमार पुरूष के साथ अपने कमरे के बगल वाले कमरे में रहते देखकर मात्र सहानुभूति के तौर उनके कमरे में जाता है, हाल चाल पूंछता है किन्तु उसके व्यवहार में कोई आसक्ति नहीं झलकती और अपनापन अनुभव करता है, यह जानकर भी कि वह उसी के पास के गाँव की रहने वाली है। फिर एक रात अचानक उसी स्त्री का इनके कमरे में प्रवेश कर संभोग के लिए विनती करने पर इंकार भी नहीं करता। फिर कुछ माह बाद उसका उसके गाँव से बुलावा आता है और उसके वहाँ पहुँचने तथा उस महिला के आग्रह पर कि अब वही उसकी और उसकी जायदाद, खेती-बाड़ी की देखभाल करता रहे, तो वह हाँ कहने पर भी कोई मोह अपने में नहीं पाता, सांसारिकता की दृष्टि से यह स्थिति आश्चर्यजनक है, पर यही परसा का निरालापन या अनाशक्ति भाव से जीना है। कर्तव्य मान वह सब कर सकता है किन्तु लाभ हानि की दृष्टि से कुछ भी नहीं।

उसकी निर्भीकता और विरक्ति संत नारंगदास को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहती और उसे नारंगदास का साधू रूप जरा भी प्रभावित नहीं करता। वह निष्प्रभ भाव से उसके सामने उठता बैठता है। बल्कि संत नारंगदास अपने साथ उसे निर्जन एकांत में ले जाता है और उससे बड़े सहज भाव से अपनी कहता और उसकी सुनता है। वह जानता है कि ‘‘ऐसे पिंजरे में रहने वाले साधक से तो सीधा-साधा किसान भला। संत नारंगदास की भी आत्म स्वीकृति है-‘‘हम अभागे तो आठों पहर पराधीन हैं धरम-करम के, धार्मिक मर्यादा के, कर्मकांड के, और सबसे अधिक अपने उपासकों और अपने चेले बालकों के। संसार और प्राणियों के कल्याण के भ्रम में घिरे ही यह लोक और परलोक भी खो बैठते है। वही दशा होती है- ‘‘माया मिली न राम’’

अन्त मंे हम कह सकते हैं कि ‘‘परसा’’ गुरदयालसिंह की आदर्श कल्पना है, एक आकाश में रहने वाला जीव ‘‘अगन पक्षी है’’ जिसके जलने के ज्वाला के प्रकाश और तपिश में अन्य जीवों की आत्माओं में एक दूजे के प्रति स्नेह, आदरभाव और मानवीय संवेदनाएँ पैदा होती है उसका ऐसा आकर्षक व्यक्तित्व है कि रागी पाले भी उसके पास आ सब दुख सुख भूल जाता है। मन हल्का फूल जैसा लगने लगा, सब दुविधा मिट गई, तुल्ही कारीगर जो अपने फन का अद्भुत उस्ताद है, परसा को चंदन कहता है। वह टिंडी से हँसकर बोला-‘‘क्यों रे ककडी सिरे तुझे भी उन ब्राह्मणों का कुछ रंग चढ़ा कि नहीं ? ओए भी चंदन होए बसे जो चंदन पास ! है, कश कहते हो ?’’ यह सब इसलिए कि परसा जग्गो बाहरे काम करने वाला है। लकीर काटकर सबसे अलग चलने वाला सिंह, शायर और सपूत है। उसके लिए उपन्यास से ही एक शेर कहा जा सकता है-

‘‘हँसता खेलता चला जाता हूँ दुशवारियों में

अगर आसानियाँ हों जिन्दगी दुशवार हो जाए’’

परसा समाज के उन बहुत से लोगों में एक है, जो आस्था-अनास्था, करणीय-अकरणीय के चक्कर में पड़े बिना दुख-सुख से लड़ते-भिडते अपनी जिन्दगी जी लेते हैं, फिर भी उसके जीवन पर एक सामान्य दृष्टि डालने पर मुझे ‘‘अंधायुग’’ की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-

‘‘पर एक तत्व है बीजरूप स्थित मन में

वह है निरपेक्ष, उतरता है पर जीवन में।।’’

उपन्यास की भाषा का ठेठ पंजाबी रूप कहीं-कहीं पूरी बात समझने में बाधित होता है, पर काम चलता रहता है और कथा-प्रवाह अपने साथ अंत तक बहाये लिए चलता है तथा उत्सुकता बनी रहती है। लेखक अपने प्रयत्न में अपनी लेखन की श्रेष्ठता और ऊँचाई को कायम रखता है।

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