राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 15 राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 15

स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य-में ऐतिहासिकता के ब्याज से समसामयिकता का चित्रण

राधारमण वैद्य

श्री जय शंकर प्रसाद (1889-1937 ई0) में धकियाकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि चुपचाप सब के बाद धीरे से-अज्ञात रहकर- आगे बढ़जाने का भाव है, आरंभ से ही भावों की ससज्ज-सलज्ज स्थापना में प्रसादजी का सचेत व्यक्तित्व स्पष्ट हुआ है, फिर भी उसकी बहुमुखी प्रतिभा बहुविधि प्रकट होती रही है, वे प्रकृति और मनुष्य के सौन्दर्य को पूर्ण रूप से उपभोग्य बनाने वाले कवि हैं।(1) उनका आत्म-गौरव, देश-प्रेम और दार्शनिक दृष्टिकोण सर्वत्र प्रकट होता रहा है। वे काव्य-जगत में रहस्य रोमांस, नाटक और कहानी के क्षेत्र में मानव-मनोदशा के चित्रण के साथ देश-प्रेम और उपन्यास द्वारा जीवन की यथार्थता के निरूपण में अपने दार्शनिक और कवि को स्पष्ट करते रहे।

जिस समय प्रसाद का आगमन साहित्य क्षेत्र में हुआ, वह द्विवेदी-युग था। साहित्य में भारतेन्दु-युगीप परम्परा चली आ रही थी। केवल थोड़ा बहुत परिवर्तन यत्र-तत्र हुआ था। प्रसाद भी भारतेन्दु जी से प्रभावित हुए थे, इस समय संस्कार सुधार की दृष्टि अधिक थी। भारतेन्दु-युग के प्रभाव में ही विषय-वस्तु प्रतिपादन, शिल्प-प्रधान, भाषा और शैली के क्षेत्रों में क्रान्ति के साथ राष्ट्रीय विचार धारा प्रवाहित होती रही और जयशंकर प्रसाद नाट्य क्षेत्र की इसी नई साहित्यिक चेतना के अग्रदूत बन नाटक-जगत में उतरे।(2) ’’प्रसाद ने नाटक-लेखन में स्वदेश के प्राचीन इतिहास का उद्धार ही ध्येय बना रखा था, और देश-प्रेम ही के कारण इस कार्य में वे अन्त तक दत्त चित्त रहे। (3)

प्रसाद जी ने अपने नाटकों के कथानक महाभारत के उत्तरार्द्ध काल (जनमेजय का नाग-यज्ञ) से लेकर हर्षबर्धन के काल (राज्य श्री) तकसे पकड़े। यह भारतीय इतिहास का गौरव-काल रहा है। इस काल के महापुरूषों को अपना पात्र बनाने से प्रसाद का इन नाटकों की रचना का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है। वे इन कथानकों द्वारा भारतीय समाज में भारत और भारतीयता के प्रति गौरव, स्वाभिमान और अनुराग की भावना उत्पन्न करने के आकांक्षी थे। प्रसाद का युग विभिन्न प्रकार की हलचलों और उथल-पुथल का युग था। देश में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल वेग से बढ़ रही थी। पद-दलित जाति के लिए उसका अतीत बड़ा आकर्षक होता है, इसलिये प्रसाद ने इस राष्ट्रीयता की भावना को और अधिक गौरवान्वित करने के उद्देश्य से भारतीय इतिहास के उस स्वर्ण-युग से प्रेरणा ग्रहणकर ऐतिहासिक नाटक लिखे।(4) उनके प्रमुख ऐतिहासिक नाटक राज्यश्री, अजात शत्रु, स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त और धु्रव स्वामिनी है, पर शेष नाटक-सज्जन, कल्याणी परिणम, करूणालय, प्रायश्चित, विशाख, जनमेजय का नाग-यज्ञ और एक घूंट भी भारतीय समाज में भारत और भारतीयता के प्रति गौरव, स्वाभिमान और अनुराग का भाव जागने के निमित्त ही रचे गयें।(5)

अभी तक जब कभी प्रसाद के नाटकों पर विचार किया जाने लगता है, तो शिल्प विधान, भाषा और शैली के चाकचक्य में लोग अधिक उलझते हैं। क्योकि हिन्दी का रंगमंच है ही नहीं और प्रसाद के युग में भी वह पारसी कम्पनियों के हाथ में पड़ा होने के कारण विकृत हो चुका था। अतः लोग पाश्चात्य और प्राच्य के ऊहा-पोह में पड़कर रह जाते हैं, और मुख्य वस्तु ’कथ्य’ के साथ न्याय नहीं हो पाता। अबतक केवल ’कथ्य’ की दृष्टि से उनके नाटकों का अध्ययन किया ही नहीं गया। कभी लोग सुखान्त-दुःखान्त के चक्कर में फंस जाते हैं, कभी लोगों की दृष्टि प्रसाद के काव्यात्मक वर्णनों में अटक के रह जाती है, कभी लोग उनकी राष्ट्रीयता पर सरसरी निगाह मात्र डालकर रह जाते हैं। इसी संदर्भ में मैं ’स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य’ को देख लेना चाहता हूँ।

सब जानते ैं कि रचनाओं में युग बोलता है, कही मुखर होकर और कहीं मौन रूप से। पर अछूती कोई रचना नहीं रह पाती। अब यह दूसरी बात है कि हम उसे न पकड़ पावें। आलोच्य नाटक ’स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य’ की प्रौढ़ता की दृष्टि से परीक्षण करने से सइसका स्थान अन्य कृतियों (नाटकों) की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ और सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होता है। इसकी रचना सन् 1928ई0 में हुई थी। समय की परिस्थिति का प्रभाव इस में भी स्पष्ट है। देश में राजनीतिक चेतना का प्रसार हो चुका था, किन्तु फिर भी देश के अनेक वीर युवक अपने अधिकारों के प्रति उदासीन थे। अंग्रेजी-राज को विश्व के प्रत्येक महाद्वीप में फैले होने के कारण अत्यन्त दृढ़ और अजेय मान लिया गया था। भीतर हिन्दू और मुसलमान वैमनस्य पनपा दिया गया था। समाज में अभी स्त्रियाँ अबलाएँ ही थी और वे पुरूषों के साथ कंधे से कंधा भिड़ा कर काम करने के लिए नहीं निकल पाई थी। अतः प्रसाद ने अधिकार और कर्तव्य की प्रेरणा के द्वारा उन्हें देशीद्वार की ओर उन्मुख किया और ऐसा करने में वे पूरे सजग और सचेष्ट रहे।

विवेच्य नाटक के आरंभ में ही नाटक का उद्देश्य मगध के महानायक पर्णदत्त के द्वारा स्पष्ट किया गया है। पर्णदत्त राजनीतिक व्यवहार-जगत का श्रेष्ठतम उदाहरण है। वह साहस, शूरता, धैर्य और कर्तव्य-परायणता का व्रती है और गुप्त साम्राज्य की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए सदैव प्रयत्नशील है। ’अयोध्या में नित्य नये परिवर्तन और युवराज स्कन्दगुप्त की ’अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता’ देखकर वह भविष्य के लिए आकुल और चिन्तित हो, देश के लिए सच्ची मंगल भावनाा से प्रेरित होकर स्पष्टवादिता का आश्रय लेता है और कहता है कि ’त्रस्त प्रजा की रक्षा के लिए, सतीत्व के सम्मान के ििलए, देवता, ब्राह्मण और गौ की मर्यादा में विश्वास के लिए आतंक से प्रकृति को आश्वासन के लिए आपको अधिकारों का उपयो करना होगा, युवराज!(6) नाटकों में इसी उद्देश्य का निर्वाह भली प्रकार किया गया है। उद्देश्यों में स्पष्ट है कि देश पर अंग्रेजों का आतंक है, प्रजा त्रस्त है और सामान्यजन का अपनी परम्परा पर से विश्वास उठ गया है। तथा समाज में स्त्री का सम्मान और उसके सतीत्व की रक्षा नहीं हो रही। जिसपर प्रसाद जी की दृष्टि है। प्रसाद जी यह भी जानते हैं कि राष्ट्रनीति (राजनीति) दार्शनिकता और कल्पना का लेखक नहीं है। यह कठोर प्रत्यक्षवाद की भूमि है।(7) उनकी दृष्टि से वे भारतीय जो अंग्रेज व नौकरशाह के वफादार और झंडावदार है ओझल नहीं है। धातुसेन के कथन द्वारा स्पष्ट कर देते हैं कि ’राक्षक यदि कोई था तो विभीषण और बन्दरों में भी एक सुग्रीव हो गया था। दक्षिणा-पथ आज भी उनकी करनी का फल भोग रहा है।(8) इनकी करनी का फल भी भारत को भोगना पड़ा।

देश की रक्षा में जो भी सजग है, वह तात्कालिक स्थिति को पकड़ रहा है। रामा (शर्वनाग की पत्नी) कहती है ’’शत्रु अपने विषैले डंक और तीखे डाढ़ सँवार रहे हैं। पृथ्वी के नीचे कुमन्त्रणाओं का क्षीण भूकम्प चल रहा है। ये राजपुत्र (अंग्रेज, उनके पिट्ठू, देशी राजा और जमींदार सभी) भेड़िये हैं।’’(9) धातुसेन कुमार गुप्त के व्यंग्य कर रहा है और लेखक की नजर अपने युग पर है। दूसरे अंक के आरम्भ में ही विजया कहती है-’’छीना झपटी नोच-खसोट, मुँह में भी आधी रोटी छीन कर भागने वाले विकट जीव यही तो हैं। श्मशान के कुत्तों से भी बढ़कर मनुष्यों की पतित दशा है।(10) अंग्रेज तो लूट ही रहे हैं, पर ये देशी भी उस काल में छीना-झपटी, लूट-खसोट में लगे थे। प्रजा त्रस्त और आतंकित थी। बड़े भी हैरान थे और छोटे भी। पर्णदत्त का पुत्र चक्रपालित कहता है- ’’यदि राज्य के शक्ति के केन्द्र में ही अन्याय होगा, तो समग्री राष्ट्र अन्यायों का क्रीड़ा स्थल हो जायेगा। आपको सबके अधिकारों की रक्षा के लिये अपना अधिकार सुरक्षित करना ही पड़ेगा।(11)

पर एक दूसरा पक्ष भी है, आशा का। उदासीन युवराज स्कन्दगुप्त सन्नद्व हो गया है। उत्साही और कर्तव्य-परायण पर्णदत्त का दल दत्तचित्त है ही। स्त्रियाँ भी, देव सेना, जयमाला, रामा आदि, अपने ’स्व’ को देश-हित तक फैलाने लगी हैं। बन्धु वर्मा, जो मालव का राजा है, देश-हित में लग गया है। अर्थात् देश-भक्ति की लहर अपना प्रभाव क्षेत्र फैला रही है। सभी दल और सभी वर्ग जगने लगे हैं। कार्य हो रहा है। सन् 1928 की स्थिति को आप विचार कर सकते हैं। आन्दोलन देशव्यापी हो चुका है। जवाहरलाल जैसे लोग नेतृत्व में आ चुके हैं। लोगों ने अपने सुख को देश-हित में न्यौछावर करना आरम्भ कर दिया है। कुछ हँसते-हँसते फाँसी के फन्दें तक पहुँचने लगे हैं। स्त्रियाँ भी पीछे नहीं है, पर ’प्रपंचबुद्धि’’ के माध्यम से प्रतिक्रियात्मक प्रयत्न चल रहा है, कितना सटीक नाम चुना है प्रसाद जी ने ’प्रपंचबुद्धि’ श्री जिन्ना को कोई भारतीय और क्या कहना चाहेगा ? मुस्लिम लीग क्या कम प्रपंच था हिन्दू महासभा उसी के समकक्ष थी। अनन्त देवी, पुरगुप्त के बहाने वे सभी राजा, नबाब, रायबहादुर, खानबहादुर याद आ जाते हैं, जो अंग्रेजों के इंगित पर नाच रहे थे। ये नाटक के पात्र भी तो विदेशी आक्रामक हूणों के सहायक सिद्ध हो रहे हैं, स्थान-स्थान पर देश-भक्तों के स्वजन ’देवकी’ की भाँति कारावास में पड़े हैं, कुचक्र चल रहा है। मजा यह है कि ये सब अपने को प्रपंचबुद्धि की भाँति ’सद्धर्भ्य’ के अनुयायी घोषित कर रहे हैं। ’सद्धर्भ्य कैसा व्यंग्यपूर्ण शब्द दिया है प्रसाद जी ने। प्रपंचबुद्धि की घोषणा है- ’’हाँ, सद्धर्भ्य का विरोधी, हिमालय की निर्जन ऊँची चोटी तथा अगाध समुद्र के अन्तराल में भी नहीं बचने पावेगा।’’(12) और हिन्दू मुस्लिम दंगे चल रहे हैं। मार-काट का बाजार गर्म है। कादम्ब, कामिनी और कंचन के सहारे षड्यंत्र का जाल दृढ़ किया जा रहा है, यहाँ वहाँ पूरा जा रहा है। देश भक्तों का अपना प्रयत्न चल रहा है। उद्बोधन का स्वर प्रबल है। बन्धु वर्मा कहता है-’’क्षत्रियों का कर्तव्य है- आर्त्त-त्राण-परायण होना, विपद का हँसते हुए आलिंगन करना, विभीषिकाओं की मुसक्याकर अवहेलना करना, और और विपन्नों के लिए, अपने धर्म के लिए, देश के लिए प्राण देना।(13) यह धर्म ’सद्धर्म्म’ से सर्वथा भिन्न है। यहाँ व्यक्ति समाज में मिल गया है। व्यष्टि का समष्टिगत रूप है। यहाँ त्याग तपस्या ही धर्म है। परोपकार ही स्वार्थ है। सबका हित अपना हित है। भीम वर्मा अपनी भाभी जयमाला को समझाता है-’’भाभी! अब तर्क न करो। समस्त देश के कल्याण के लिए- एक कुटुम्ब की भी नहीं, उसके क्षुद्र स्वार्थो की बलि होने दी। भाभी हृदय नाच उठा है, जाने दो इस नीच प्रस्ताव को। देखों हमारा आर्य्यावर्त विपन्न है, यदि हम मर-मिटकर भी इसकी कुछ सेवा कर सकें.......(14)

प्रसाद की उदात्त दृष्टि ही उस काल में भटार्क की माँ-कमला जैसे नारी श्रेष्ठ चरित्र का सृजन कर सकती थी, जो माता अपने पुत्र से कहती है-- ’’भटार्क ! तेरी माँ को एक ही आशा थी कि पुत्र देश का सेवक होगा, म्लेच्छों से पद दलित भारत-भूमि का उद्धार करके मेरा कलंक धो डालेगा, मेरा सिर ऊँचा होगा। परन्तु हाय ! (15) एक अन्य स्थान पर भटार्क के मेरी माँ कहने पर कमला का कथन न जाने कितनों को प्रेरक बना होगा। वह कहती है- ’’तू कह सकता है। परन्तु मुझे तुझको पुत्र कहने में संकोच होता है, लज्जा से गड़ी जा रही हूँ। जिस जननी की संतान जिसका अभागा पुत्र ऐसा देश-द्रोही हो, उसको या, मुँह दिखाना चाहिए(16) ? इसलिये गोविन्दगुप्त कहता है- ’धन्य हो देवी! तुम जैसी जननियाँ जब तक उत्पन्न होगी, जब तक आर्य्य-राष्ट्र का विनाश असम्भव(17) है।’’ एक अन्य स्त्री-रत्न, शर्वनाग की पत्नी, रामा, जो स्वतः ही ’आर्य्यावर्त के रत्न, देश के बिना दाम के सेवक और जन साधारण के हृदय के स्वामी स्कंदगुप्त की माँ ’देवकी’ की रक्षा के लिए नियुक्त है, अपने पति से कहती है- ’’एक शर्व नहीं, तुम्हारे जैसे सैकड़ों पिशाच भी यदि जुट कर आवें तो आज महादेवी का अंग स्पर्श कोई न कर सकेगा। और अपने पति को मार डालने के लिएि छुरी निकालती है (18)।

प्रसाद अपने प्रेक्षकों को केवल काल्पनिक औदात्य के वातावरण में ही नहीं भुलाये रहते हैं। यद्यपि यह जीवन का आदर्श उस काल में अकेले प्रसादजी क्या वरन् सभी अपना लेना चाहते थे। उस पूरे युग को आदर्शवादी कह सकते हैं। सभी भारत के गौरव का गायन और उसके लिए एक गर्व का भाव उस काल के जन-जन में भर देना चाहते थे। गोविन्दगुप्त द्वितीय अंक के छठवें दृश्य में मालवराज बन्धुवर्मा से कहते हैं--’’वत्स ! इन आर्य्य-जाति के रत्नो(19) की कौनसी प्रशंसा करूं। इनका स्वार्थ त्याग दधीचि के दान से कम नहीं। स्कंदगुप्त आरंभ में ’’अधिकार-सुख’’ को ’सारहीन’’ समझता था। नेतृत्व करने को अपने को नियामक और कर्ता समझने की स्पृहा के कारण की जाने वाली ’’बेगार’ समझता था। द्वितीय अंक के प्रथम दृश्य में भी चक्रपालित से कहता है-- चक्र् ऐसा जीवन तो विडम्बना है, जिसके लिए दिन-रात लड़ना पड़े... नहीं, नहीं चक्र! मेरी समझ में मानव जीवन का यही उददेश्य नहीं है। कोई और भी निगूढ़ रहस्य है, चाहे उसे में स्वयं न जान सका हूँ (20) ।’’ चक्रपालित भी उसको अर्जुनी-व्यामोह से सावधान कराते हुए उत्तर देता हैै--’’सावधान युवराज् प्रत्येक जीवन में कोई बड़ा काम करने से पहले ऐसे ही दुर्बल विचार आते हैं, वह तुच्छ प्राणों का मोह है(21)।’’ वही स्कन्दगुप्त सम्राट बनने पर खड्ग का उपहार और गरूड़ांकित राजदण्ड ग्रहण करने के उपरान्त कहता है-’’आर्य्य! इस गुरूभार उत्तरदायित्व का सत्य से पालन कर सकूं, और आर्य्य् राष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व अर्पण कर सकूँ, आप लोग इसके लिए भगवान से प्रार्थना कीजिए और आशीर्वाद दीजिये कि स्कन्दगुप्त अपने कर्तव्य से, स्वदेश सेवा से, कभी विचलित न हो(22) पूरे नाटक में कहीं भी गुप्तवंश की महत्ता प्रतिपादित नहीं हुई और न गुप्त साम्राज्य का विस्तार या उसकी रक्षा उसका ध्येय रहा है। सर्वत्र ’’स्वदेश’’ ’’जननी जन्म भूमि’’ आर्य्य साम्राज्य और ’’आर्य्य राष्ट्र भारत भूमि ही लक्ष्य है। ’’विशाख की भूमिका में प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है-- ’’इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यन्त लाभदायक होता है....क्योंकि हमारी गिकरी दशा को उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी सभ्यता है, उससे बढ़कर उपयुक्त हमारा कोई भी आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं, इसमें पूर्ण संदेह है......मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश से उन प्रकाण्ड घ्ज्ञटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने में बहुत कुछ प्रयत्न किया है और जिस पर वर्तमान साहित्यकारों की दृष्टि बहुत कम पड़ती है।’’(23)

ऐसा लगता है कि सशस्त्र क्रान्ति ही प्रसाद का अभीष्ट नहीं था, यद्यपि वे युग-पुरूष बापू की भाँति अहिंसक क्रान्ति के हामी कहीं किसी नाटक में नहीं दिखाई दिये, सभी स्थानों पर लड़कर, जूझकर, अपने प्राणों की बाजी लगाकर युद्ध करके देश को रक्षित रखने की बात कह रहे हैं। एक स्थान पर गोविन्द गुप्त भटार्क से कहता है- कृतध्न ! वीरता उन्माद नही है, आँधी नहीं है जो उचित अनुचित का विचार न करती हो, केवल सशस्त्र बल पर टिकी हुई वीरता बिना पैर की होती है, उसकी दृढ़ भित्ति है--न्यास।’’(24) वैसे शस्त्र तो तत्कालीन शासक अंग्रेजों केक पास भी थे और उनके गुर्गे दंगाईयों के पास भी, पर उनका शस्त्र-बल पंगु था, उसके पास न्याय की भित्ति न थी।

प्रसाद की ऐतिहासिक व्याख्या हीगेल और मार्क्स की ऐतिहासिकता व्याख्याओं से भिन्न है। प्रसाद का विश्वास है कि ऐतिहासिक विचारधाराओं की पुनरावृत्ति हुआ करती है।(25) नाटक के चौथे अंक के एक दृश्य में ब्राह्मण लोगों और भिक्षु तथा बौद्ध जनता में तनाव की स्थिति का चित्रण किया गया है, जो प्रेक्षक (या पाठकञ को हिन्दु मुस्लिम दंगों की ओर बरबस खींच ले जाता है। झगड़े का कारण धर्मांधता है। एक ओर ब्राह्मण लोग बलि का उपकरण लिए है, दूसरी ओर भिक्षु और बौद्ध जनता उत्तेजित है, दण्डनायक कहता है--’’नागरिकरण ! यह समय अन्तर्विद्रोह का नहीं है। देखते नही हो कि साम्राज्य बिना कर्णधार का पोत होकर डगमगा रहा है और तुम लोग क्षुद्र बातों के लिए परस्पर झगड़ते हो।’’ दोनों पक्ष एक दूसरे को दोषी मानते हैं।(26) ब्राह्मण कहते हैं--’’इन्हीं बौद्धों ने गुप्त शत्रु का काम किया है। कई बार के विताड़ित हूण इन्हीं लोगों की सहायता से पुनः आये हैं। इन गुप्त शत्रुओं की कृतध्नता का उचित दण्ड मिलना चाहिए।’’ श्रवण का उत्तर देता है--ठीक है। गंगा, यमुना और सरयू के तट पर गड़े हुए यज्ञयूप सद्धर्मियों की छाती में ठुकी कीलों की तरह अब भी खटकते हैं।’’ क्या इससे ऐसा नहीं लगता जैसे शंख और घड़ियाल की ध्वनि किसी की छाती पर पड़े हथौड़े की चोट की तरह लग रही हो और निष्कारण उत्तेजतना फैल रही हो, या गाय की बलि की बात इसीलिए फैलाई जा रही हो कि तनाव की स्थिति पैदा हो और कुछ गुल खिले। इसी संदर्भ में इसी दृश्य में आगे प्रख्यात कीर्ति का यह कथन ’’धर्म के अन्धभक्तों ! मनुष्य अपूर्ण है। इसीलिये सत्य का विकास जो उसके द्वारा होता है, अपूर्ण होता है, यही विकास का रहस्य है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञान की वृद्धि असम्भव हो जाय..... हम लोग एक ही मूल धर्म की दो शाखायें है। आओ, हम दोनों अपने उदा विचार के फूलों से दुःख दग्ध मानवों का कठोर पथ कोमल करें।(27) जिसके फलस्वरूप बहुत से लोग समवेत स्वर में बोल उठे ...’’ठीक तो है, ठीक तो है। हम लोग व्यर्थ आपस में ही झगड़तें हैं और आततायियों को देखकर घर में घुस जाते हैं। हूणों के सामने तलवारें लेकर इसी तरह क्यों नहीं अड़ जाते ?’’ प्रप´्चबुद्धि के ही कारण यह अन्तर्विरोध है, वरना साधारण जन तो ’’ठीक तो है, ठीक तो है। हम लोग व्यर्थ आपस में ही झगड़ते है’’-- कहना जानते हैं।(28) प्रख्यात कीर्ति का बौद्धों से यह प्रश्न-’’एक युद्ध करने वाली मनोवृत्ति की प्रेरणा से उत्तेजित होकर अर्धम करना और धर्माचरण की दुन्दुभी बजाना--यही आपकी करूण की सीमा है ?’’ उस काल की इस प्रवृत्ति पर लगा प्रश्न चिन्ह प्रतीत होता है।(29)

उस काल में देशी साहब, जो अंग्रेजी सभ्यता में रँगे, कंचन के प्रभाव में कादम्ब और कामिनी में ही डूबे थे, उन सब का स्मरण सैनिक का यह कथन दिला देता है-

’’सैनिक--यह राष्ट्र का आपत्तिकाल है, युद्ध की आयोजनाओं के बदले हम कुसुम पुर में आयानकों का समारोह देख रहे हैं। राजधानी विलासिता का केन्द्र बन रही है। यहाँ मनुष्यों के लिए विलास के उपकरण बिखरे रहने पर भी अपर्याप्त है। नये-नये साधन और नवीन कल्पनाओं से भी इस विलासिता राक्षसी का पेट नहीं भरता है।’’

अथवा

’’सैनिक--हाँ, यवनों से उधार ली हुई सभ्यता नाम की विलासिता के पीछे आर्य्य जाति उसी तरह पड़ी है, जैसे कुलवधू को छोड़कर कोई नागरिक वेश्या के चरणों में। देश पर बर्बर हूणों की चढ़ाई और तिस पर भी यह निर्लज्ज आमोद ! जातीय जीवन के निर्वाणोन्मुख प्रदीप का यह दृश्य है।’’(30)

’’भारत-दुर्दशा’ (1876 ई0) के समय सहृदय साहित्यिक दुखी था, यही सब देखकर। डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते है-’’उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पढ़े लिखे भारतीय बात को समझने लगे। धीरे-धीरे काव्यों में, नाटकों में, उपन्यासों में और अन्याय रचनाओं में भारतवर्ष की पराधीनता और उसका शोषण इस प्रकार प्रकट होने लगा कि जिससे लेखकों के हृदय की व्यथा बड़ी व्याकुलता के साथ प्रकट हुई। भारतवासियों में भी अपने देश के प्रति प्रेम का भाव जाग्रत हुआ और स्वाभिमान की मात्रा बढती गई। देश भक्ति, परोपकार भावना, मातृभाषा के प्रति प्रेम, समाज सुधार और पराधीनता के बन्धन से मुक्ति उन दिनों की प्रगतिशील मनोवृत्ति के चिन्ह है।(31) सन् 1912 में भारत-भारती का गायक भी विदेशी शासन सेे मुक्ति पाने की अपूर्व प्रेरणा दे चुका था। इसी भाव-भूमि पर खड़ा ’’प्रसाद’’ भी अपने इस नाटक की नायिका, देवसेना, से एक गजल सुनवा रहा है--

देश की दुर्दशा निहारोगे,

डूबते को कभी उबारोगे।

हारते ही रहे, न है कुछ अब,

दांव पर आपको न हारोगे।

कुछ करोग कि बस सदा रोकर,

दीन हो दैव को पुकारोगे।

सो रहे तुम, न भाग्य सोता है,

आप बिगड़ी तुम्हीं संवारोगे।

दीन जीवन बिता रहे अब तक,

क्या हुए जा रहे, विचारोगे।(32)

यह गायन इसलिए कि उस काल में विलासिता और राष्ट्र के प्रति उदासीनता का जीवन आम था। नाटक का विदूषक मुद्गल कहता है- ’’मैं हूं ज्योतिषी। जहाँ देखों वहीं एक प्रश्न होता है, मुझे उन बातों को सुनने में भी संकोच होता है-- मुझसे रूठे हुए हैं? किसी दूसरे पर उनका स्नेह है ? वह सुन्दरी कब मिलेगी ? मिलेगी या नहीं ? इस देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों ने यही प्रश्न गुरूजी से पाठ में पढ़ा है। अभिसार के मुहूर्त पूछे जाते हैं।’’(33) देश को गुलाम हो चुकने के बाद भी लोगों को भिखारिन तक के रूप से चित्त-रंजन करता देख बृद्ध और देश पर मिटने वाला पर्णदत्त खीजता है और कहता है-- ’’नीच, दुरात्मका, विलास का नारकीय कीड़ा ! बालों को संवारकर, अच्छे कपड़े पहन कर अब भी घमण्ड से तना हुआ निकलता है। कुलवधुओं का अपमान सामने देखते हुए अकड़कर चल रहा है, अब तक विलास और नीच वासना नहीं गई ! जिस देश के नवयुवक ऐसे हों, उसे अवश्य दूसरों के अधिकार में जाना चाहिए। देश पर यह विपत्ति, फिर भी यह निराली धज!’(34)

प्रसाद जी ने जहाँ अपने चारों ओर के समाज पर व्यंग्य-बाण छोड़ हैं, वहाँ अपने आप को भी नहीं बख्शा। एक स्थान पर मातृगुप्त से विजया द्वारा कहला रहे हैं--’’सुकवि शिरोमणि ! गा चुके मिलन संगीत, गा चुके कोमल कल्पनाओं के लचीले गान, रो चुके प्रेम के पकड़े ? एक बार वह उद्बोधन गीता गा दो कि भारतीय अपनी नश्वरता पर विश्वास करके अमर भारत की सेवा केक लिए सन्नद्ध हो जाय।’’(35) ऐसे लगता है कि जैसे नाटककार प्रसाद को सारा छायावाद का रोमांस और सुकुमार भाव-भंगिमा, कल्पना-विलास और बाग्जाल की भाँति निरर्थक लगने लगा हो और ’मुचकुन्द की मोह निद्रा’’ से भारतवासियों को जगाने के लिए उद्बोधन गीत गाये बिना प्रायश्चित की अन्य कोई गति न हो। लगता है इसीलिए नाटक के अन्त में पंचम अंक के रणक्षेत्र वाले दृश्य में वीरों को संबोधित करते हुए एक लम्बा गीत गाकर ही कवि चैन लेता है। गीत के माध्यम से भारत के सम्पूर्ण अतीत के गौरव को फैला दिया जाता है। भारत केक नैसर्गिक रूप सौन्दर्य से आरम्भ कर, वेद के साम-संगीत, प्रलय काल में मनु के द्वारा बीज रूप में सृष्टि की रक्षा, दधीची का त्याग, निर्वासित राम का उत्साह, बुद्ध की करूणा, सम्राट अशोक का भिक्षु-पद, वृहत्तर भारत में भारतीय संस्कृति का फैलाव, समीपवर्ती देशों में बौद्धमत का प्रसार, आर्य्यो की आदि भूमि इसी भारत को मानना, चरित्र गत पवित्रता, शरीरगत शक्ति, स्वभावगत शील, हृदय गत करूणा के साथ वचन की सत्यता, हृदय का तेज और प्रतिज्ञा की टेव सभी का स्मरण उस गीत में कवि करता है और लगता है कि सारे नाटक में फैले सम्पूर्ण स्वाभिमान और आत्म गौरव को इस गीत में समेट लिया गया हो--

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान।

वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य्य-संतान।।

जियें तो सदा उसी के लिये यही अभिमान रहे, यह हर्ष।

निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।।(36)

नाटक का मुख्य कथ्य यही है। वह प्रधान स्वर जिसे प्रसाद जी ने इस नाटक में साधा है। पर यदि लोगों को मुख्य वस्तु गौण हो जाय और गौण तथा व्यक्ति गत जीवन ही सब कुछ दिखने लगे, तो ऐसी दृष्टि को क्या कहा जाय ? स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य नाटक का शीर्षक है, जिसके ’’विक्रमादित्य’’ से उसका समष्टिगत रूप प्रबल हो जाता है। स्कन्दगुप्त का वैयक्तिक रूप फीका पड़ जाता है। स्कन्दगुप्त अन्त में देवसेना को किस संदर्भ के साथ स्मरण कर रहा है, वह भी विचारणीय है, वह कहता है--’’मालवेश कुमारी ! क्या आज्ञा है ? आज बन्धु वर्मा इस आनन्द को देखने को नहीं है। जननी जन्म भूमि के उद्धार करने की जिस वीर की दृढ़ प्रतिज्ञा थी, जिसका ऋण कभी प्रतिशोध नहीं किया जा सकता, उस वीर बन्धु वर्मा की भगिनी मालवेश कुमारी देव सेना की क्या आज्ञा है ?(37)

नाटक में फलमागम के उपरान्त, देश स्वतंत्र हो चुका है और सम्पूर्ण स्वाधीनता के पश्चात् उसे पुरगुप्त को सौंप चुका है। ’’शुक्रनीति’’ का ऐसा अनुशासन है कि ’’कलाकार आलेख्य के प्रति उसे लिखने के पहले समाधिस्थ हो, जब समाधि में उनका वह सांगोपांग दर्शन कर कलेगा, जब आलेख्य प्रत्यक्ष मूर्त उसकी समाधि में उठ आयेगा, तभी वह अपने विषय में अंकन में सफल हो सकेगा।’’(38) प्रसाद जी प्राचीन इतिहास की असन पर समाधिस्थ थे। उनकी समाधि में यह आलेख्य- ’स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य’-वर्तमान की तरह प्रत्यक्ष मूर्त हो उठा था और वे अपनी कल्पना में भविष्य तक को ठीक-ठीक पकड़ रहे थे। भारत का त्याग स्वातंत्रोपरान्त सबके सामने बीस वर्ष बाद ही स्पष्ट हुआ, जब वे स्वयं न थे। उसके बाद भी स्कंदगुप्त भटार्क से कहता है- ’’लो, आज इस रणभूमि में पुरगुप्त को युवराज बनाता हूँ, देखना, मेरे बाद जन्मभूमि की दुर्दशाा न हो।’’39 कैसा उदात्त चरित्र है, अपने न रहने पर भी जन्मभूमि की दुर्दशा न होने के लिए चिन्तित है। क्योंकि स्कन्दगुप्त खूब जानता है कि ’’हमने अन्तर की प्रेरणा से शस्त्र द्वारा जो निष्ठुरता की थी, वह इसी पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिए।’’40

यह अंतिम दृश्य है। मानवीय दुःख का गायक और समस्त करूणा को आत्मसात कर चुकने वाला प्रसाद का कवि देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पुनः वैयक्तिक सुख-दुख के आकलन की ओर अपने आप को मोड़ देता है, और इसी में लोग सुखान्त-दुःखान्त की भूल-भुलैया में फँस जाते है। अन्यथा पूरा नाटक देश को अंग्रेजों के चुंगल से छुड़ाने के लिए आशावादी स्वर में तैयार करने का प्रयत्न मात्र लगता है। अपने ’स्व’ के सम्पूर्ण गौरव को जागर उसे देश पर मर मिटने की प्रेरणा देकर स्वाधीनता की ओर उन्मुख कर देना मात्र नाटक का लक्ष्य है, जिसके दिग्दर्शन में नाटककार पूरी तरह सफल रहा है। अब इसके बाद भी प्रसाद के दार्शनिक विचार, मानवीय मनोदशा का चित्रण, करूणा और मानवीय हृदय का वैयक्तिक दुःख प्रेक्षक या पाठक की पकड़ में रह जाये तो इसमें लेखक का क्या दोष ? इसमें तो ग्रहण करने वाले की आत्म निष्ठता ही प्रधान मालूम होती है। वैसे सम्पूर्ण नाटक का व्यंग्य लक्ष्य, उसका व्य´्जित उद्देश्य देश-भक्ति के भावों को पुष्ट करना ही प्रतीत होता है। जैसा कि डाँ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रसाद के नाटकों की चर्चा करते हुए ’’साहित्य सहचर’ में लिखते हैं कि ’’उन्होंने अपने युग के प्रधान प्रश्नों से मुँह नहीं मोड़ा है। उनके नाटकों में राष्ट्रीयता, साम्प्रदायिक झगड़े, स्त्री का समानाधिकार, युद्ध का विषम परिणाम साम्र्राज्यवाद, विदेशी शासन आदि सभी बातें आई हैं।’’41

प्रसाद जी का व्यक्तित्व बहुत महान् है। उसमें दार्शनिक के दृष्टिकोण की गहराई, युग निर्माता के औदात्य के अनुकूल उद्बोधन का स्वर, कवि की संवेदन शीलता और उपन्यासकार की अपने युग की धड़कन पहचान कर उसको अभिव्यक्ति देने की क्षमता के साथ युग-गायक और युग-प्रेरक नाटककार की भव्यता भी समाहित है, अतः उनके नाटकों का पुर्नमूल्यांकन अपेक्षित है।

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संदर्भ-संकेत

1. डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदीः हिन्दी साहित्य-उद्भव और विकास 1952 पृ0 471

2. राजनाथ शर्माः हिन्दी साहित्य का इतिहास 1970 पृ0 708

3. ब्रजरत्न दास, बी0ए0: हिन्दी नाट्य साहित्य- पृ0 157

4. राजनाथ शर्मा: हिन्दी साहित्य का इतिहास 1970 पृ0 709

5. डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदीः हिन्दी साहित्य-उद्भव और विकास 1952 पृ0 469-470

6. स्कन्द गुप्त विक्रमादित्य (ग्यारहवाँ संस्करण-सं0 2011) पृ0 10

7. वही-पृ0 10-11

8. वही-पृ0 15 8.(अ) वही-पृ0 33

9. वही-पृ0 18

10. वही-पृ0 50

11. वही-पृ0 52

12. वही-पृ0 67

13. वही-पृ0 71

14. वही-पृ0 71.72

15. वही-पृ0 74

16. वही-पृ0 113

17. वही-पृ0 76

18. वही-पृ0 67

19. वही-पृ0 78-70

20. वही-पृ0 52

21. वही-पृ0 52

22. वही-पृ0 79

23. डॉ0 सावित्री स्वरूपः नव्य हिन्दी नाटक (1967) पृ0 67

24. स्कन्द गुप्त विक्रमादित्य

25. डॉ0 सावित्री स्वरूपः नव्य हिन्दी नाटक (1967) पृ0 66

26. स्कन्द गुप्त विक्रमादित्य पृ0 121

27. वही-पृ0 124

28. वही-पृ0 124

29. वही-पृ0 125

30. वही-पृ0 94-95

31. डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदीः हिन्दी साहित्य-उद्भव और विकास 1952 पृ0 395-96

32. स्कन्द गुप्त विक्रमादित्य पृ0 146

33. वही-पृ0 133

34. वही-पृ0 136-137

35. वही-पृ0 126

36. वही-पृ0 150-51

37. वही-पृ0 154

38. शुक्रनीत- अध्याय 4, विभाग 4, पृष्ठ 147-150

39. वही-पृ0 152

40. वही-पृ0 154

41. डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी: साहित्य सहचर (1968) पृ0 120

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मैं जयशंकर प्रसाद के ’’स्कन्द गुप्त’’ की दुविधा और असमंजस अधिकार और सुख कितना मादक और सारहीन है, की भावना, कर्म और विरक्ति के बीच का तनाव ठीक वैसा ही है, जैसा नेहरू में था।

--नेहरू का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव

(बी0पी0एन0 टाइम्सः 01 नवम्बर 2008)

’’तीसरा विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का फैज और कुमार गुप्त महेन्द्रादित्य का पुत्र स्कन्दगुप्त था, विलासी पिता कुमार गुप्त अकर्मण्य था... इस काल में भीतरी और बाहरी दोनों शत्रुओं का भय था और दोनों खतरे प्रायः साथ ही, एक के बाद एक झेलने भी पड़े...त्याग और श्रम, तप और शील का जीवन बिताने वाले स्कन्दगुप्त ने सादा सैनिक जीवन बिताकर रूखी पृथ्वी पर सो-सो कर रातें काटनी पड़ी- क्षिति तल शयनीचे सेन नीतो त्रियामा गृह शत्रु का प्रयास स्कन्दगुप्त के अध्यवसाय और जागरूकता से विफल हो गया।’’

डॉ0 भगवतशरण उपाध्याय

तृतीय संस्करण 1978 दिल्ली पृष्ठ 190 भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण

हूण चीन के कान्सू प्रांत से चल पड़े थे, उनका हृदय साम्राज्यों के विनाश हित हुा था हूणों की आंधी यम का आक्रोश थी जिस ओर हूण निकल जाते राष्ट्रों के टखने टूट जाते, नदियों के रक्तिम स्त्रोत शस्त्रों के अंबार और जले गांवों की राख उनकी कहानी कहती है और उसके साख दायित्व ने

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