‘ छ पा ऽऽक’
अंधेरे की भयानकता को लाख गुना बढ़ाता एक शब्द गूंज उठा और साथ ही पिंकू कुंए की गहराई में गिरता चला गया.
यह सब अचानक ही हुआ. पिंकू कल ही तो नानी के घर आया है. उसे अभी तो कुएं, पिछले गेट आदि की दिशा का ठीक-ठीक अंदाजा भी नहीं हुआ था. और रात को वो अचानक इस कुएं में भी जा गिरा.
गिरते ही ढेर सारा पानी अपने आप ही उसके पेट में समा गया. नाक-कान, आंख सभी में पानी भर आया. तैरना बिल्कुल न जानता हो वह, ऐसी बात नहीं. पर कुएं में तैरना?
लेकिन नीचे डूबने से बचने के लिए यही आवश्यक था. अंधेरे में ही वह हाथ-पैर चलाने लगा. छपाक-छपाक . बेचारा पिंकू.
इस अचानक की दुर्घटना से किसी बड़े आदमी का भी घबरा उठना स्वाभाविक ही होता. फिर पिंकू तो बच्चा ही ठहरा. किंतु घबराने और पछताने का न तो अवसर ही था और न यह उचित ही होता. सो पिंकू ने भी हिम्मत नहीं हारी. वह अंधेरे में ही कुंए की दीवारों को टटोलने लगा.एकाएक उसका हाथ एक गड्ढे से टकराया उसने उस गड्ढे में अपना पैर टिकाया और दूसरा गड्ढा टटोलने लगा. भाग्य से दूसरे गड्डे से भी हाथ टकराया, और वह एक किनारे पर पैर टिका कर सांस लेने लगा.
ऊफ! पिंकू की छाती धौंकनी सी धड़क रही था. दो पल सुस्ता कर वह ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाने लगा. चिल्लाते-चिल्लाते उसके माथे का पानी सूखकर फिर पसीना छलक आया .
पर बेकार , अंधेरे में उसकी आवाज कुएं में ही खो कर रह गई. किसी ने भी उसकी करूण पुकार नहीं सुनी. एकाएक बाएं पैर के अंगूठे में कांटे सा चुभने का कुछ अहसास हुआ फिर पैर सुन्न सा पड़ने लगा, उसे लगा, जैसे किसी जहरीले कीड़े ने काटा हो. शायद सांप या बिच्छू हो.
‘नहीं मुझे यह सब नहीं सोचना चाहिए.’ पिंकू ने मन ही मन कहा, ‘मुझे सिर्फ़ बचने का तरीका सोचना चाहिए.’
उसका एक पैर तो पहले से ही पानी में लटका था. दूसरे पैर को गड्ढे से बाहर निकालते ही वह फिर से पानी में गिर पड़ा और हाथ-पैर हिलाने लगा. इस बार पानी पहले से भी ज़्यादा ठंडा लगा. दांत भी किटकिटाने लगे. ऊपर घना अंधेरा था. सिर्फ़ तारों से भरा आकाश दिखाई देता था ऊपर.?’
‘ क्या मैं सुबह तक यूं ही तैरते रह सकता हूं?’ स्वयं से एक बार फिर पूछा पिंकू ने, ‘सुबह तो कोई पानी लेने आएगा, तब मुझे रस्सी से ऊपर खींच लेगा.’
लेकिन सुबह तक तैरना?सांस तो उसका अभी ही फूल उठा था. वह फिर से कुएं की दीवार पर कुछ टटोलने लगा. शायद नीचे कुएं की तली में कुछ हो, यह सोच कर उसने नीचे डुबकी लगायी और लकड़ी का एक डंडा उसके हाथ लगा.
डंडे को कुएं की दीवार के दो गड्डों में फंसा कर वह दीवार के सहारे बैठकर बचने की सोचने लगा. एक बार वह फिर से चिल्ला उठा, ‘ बचाऽऽओ.’
लगभग आधे घंटे तक वह चिल्लाता रहा, शोर मचाता रहा. लेकिन उसकी कमर दुखने लगी थी और हाथों के जोड़ों से भी दर्द के गोले फूट रहे थे.
अब वह हिम्मत हार सा रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे किसी भी वक्त वह धड़ाम से पानी में गिर पड़ेगा और पानी पीते-पीते ‘बोल हरि बोल’ जाएगा.
‘ जब मरना ही है तो क्यों न जीने की कोशिश करके मरा जाए.’ हिम्मती पिंकू ने यह सोचते हुए फिर एक बार कुएं की दीवारों पर बने गड्ढों को टटोलते, उन पर पैर रखते हुए ऊपर चढ़ना शुरू किया.
घिसटता-हांफता वह आधी ऊंचाई तक चढ़ आया. फिर दो पल रूककर और ऊपर चढ़ने लगा. दर्द से बचने के लिए अथवा दर्द को भूल जाने के लिए वह बार-बार अपने ओंठ चबा रहा था. पर दर्द था कि भुलाए नहीं भूलता था.
हाय रे! किस्मत का मारा पिंकू! अगले गड्ढे में हाथ रखते हुए उसने हाथ रख दिया एक लिजलिजे मेंढक के ऊपर . और घबराकर हाथ हटाया तो सिर के बल पानी पर आ गिरा. बस यही अंतिम संघर्ष था. अब वह हिम्मत हार चुका था. एक बेहोशी अब उस पर अपना अधिकार जमाती जा रही थी.
और इधर घर में भी खलबली मच गई थी. मामा, नाना सभी इसे इधर-उधर ढूंढ रहे थे. ‘ पिंकू-पिंकू’ की हल्की पुकार गिरते वक्त उसने भी सुनी थी.
‘छपाक’ की आवाज आते ही एक टार्च कुएं के भीतर भी रोशनी बिखेरी गई, फिर को तुरंत ही सीढ़ी लगाया, डॉक्टर और न जाने क्या-क्या इंतजाम होने लगा. पिंकू के मंझले मामा तुरंत उतर पड़े कुएं के भीतर और पिंकू को ऊपर निकाल लाए सीढ़ी के सहारे.
डॉक्टर हैरान कि लड़का इतनी देर पानी के भीतर रह कर भी जिन्दा! काफी देर बाद पिंकू की चेतना लौटी और तब एक बार फिर बुदबुदा उठा -हिम्मत हारुंगा नहीं
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