पिताजी की कहानी SAMIR GANGULY द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पिताजी की कहानी

संध्या हिंदी की किताब में से जोर-जोर से रट रही थी-अलंकार वे शब्द होते हैं जो भाषा की सुंदरता बढ़ाते हैं.

और पास बैठा किशु, बंशीलाल के बारे में ही सोच रहा था. पिछले कुछ दिनों से किशु ने अपनी कल्पना से एक बंशीलाल की रचना कर डाली है. दरअसल यह घटना फेंटम, शक्तिमान, स्पाइडरमैन, सुपरमैन,चाचा चौधरी जैसे कई कॉमिकों को पढ़ने के बाद घटी है. अब तो उसका दिमाग इस बंशीलाल के पीछे ही दौड़ता रहता है. उसका बंशीलाल बहादुर पर थोड़ा बेवकूफ, वैज्ञानिक किस्म का आदमी है जो नंबरी पेटू भी है. किशु का अक्लमंद बंशीलाल नई-नई यात्राओं पर निकलता है और कई बार तो अजब देश में अजीब लोगों के बीच यूं फंसता है कि उनके बीच से उसे बचाते-बचाते किशु को सुबह से शाम हो जाती है.

दीदी के अलंकार संबंधी शब्द शिशु के कान में भी पड़े. वह तुरंत बोल उठा, संध्या दी, तब तो पिता जी अलंकारों का खूब प्रयोग करते हैं, है न?

संध्या उत्तर में सिर्फ़ मुस्करा कर रह गई. फिर क्षण भर बाद ही उसका मुंह उतर आया और वह किशु की तरफ दुख से देखने लगी.

मां ने शादी के बाद आकर पिताजी का सिगरेट पीना और छुट्टी के दिन सुबह से शाम तक नदी पर जाकर मछली मारने जैसी आदतों को तो छुड़ा दिया था पर पिताजी की बात-बात पर गाली या अश्लील शब्दों के इस्तेमाल की लत को वह लाख कोशिशों के बाद भी नहीं छुड़ा पायी थी.

किसी वस्तु, जगह या खास बात बताते समय वह अपनी बात पर जोर देने के लिए गालियां दे डालते थे. सब जानते थे कि इसके पीछे उनकी कोई बुरी भावना नहीं थी. बस आदतन ही ऐसा करते थे.

अगले तीन दिन किशु काफी गंभीर रहा. बंशीलाल और वह इस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श करते रहे. सिर्फ़ संध्या दीदी ने एक बार संदेह करते हुए पूछा था, ‘‘ क्यों रे किशु! दो तीन दिनों से तू पिताजी के कमरे में क्या करता रहता है? और टेप-रिकार्डर को राहुल भय्या के कमरे से कहा ले गया है?’’

राहुल भय्या , संध्या दीदी और अड़ोस-पड़ोस के कई शुभचिन्तक टोक-टोक कर हार गए थे और खुद चाहकर भी पिताजी अपनी ये आदत छुड़ा नहीं पाए थे.

किशु के जन्म दिन पर संध्या की सहेलियों ने मिल कर उसे उपहार में एक साईकिल भेंट की तो साईकिल की तारीफ में भी पिताजी के मुंह से दो-तीन अश्लील शब्द टपक पड़े. बस फिर क्या था संध्या की सभी सहेलियों के चेहरे शर्म से लाल हो गए और गर्दन नीची हो गई. संध्या तो काफी रात तक उस दिन रोती ही रही थी.

पिताजी ने अगली सुबह उससे वादा किया कि आज दफ्तर से लौटते वक्त वे अपनी इस गंदी आदत को भी कहीं फेंक आएंगे और उसके बाद पूरे सप्ताह भर पिताजी ने एक-एक शब्द तोल कर मुंह से बाहर निकाला, पर टीवी पर भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देखते हुए उत्तेजना में भरकर फिर से चींखने-चिल्लाने लगे थे- अपनी पुरानी आदत से मजबूर. वे अपना वादा पूरा नहीं कर पाए थे.

बंशीलाल के बारे में सोच रहे किशु के दिमाग में अब पिताजी की अलंकार समस्या भी आ समाई थी. उसे ख्याल आया, क्यों न बंशीलाल से सहायता ली जाए. शायद वह कोई रास्ता निकाल सके.

‘‘ दीदी, मैंने बंशीलाल को ‘ऑपरेशन अलंकार’ सौंपा है. उसी पर काम हो रहा है. बस तीन-चार दिन और चुप रहना.’’ किशु ने जासूसी उपन्यासों के हीरो की अदा से आंखे मटका कर कहा था. पर दीदी कुछ भी न समझ पायी थी.

एक सप्ताह बाद .

रात के दस बज चुके थे. इसी समय शोर-बातचीत की शक्ल में खिड़की के सामने से आने लगा. पिता जी चौंके. मां को बुलाकर वे बोले, ‘‘ देखो तो कौन बदतमीज हमारी खिड़की के नीचे लड़ रहे हैं?’’

मां ने खिड़की खोली. तभी बातचीत रूक गई. वे बोली, ‘‘कहां? यहां तो कोई नहीं.’’

अगली रात लगभग उसी समय किसी के जोर-जोर से हंसने और भद्दे शब्दों की गूंज ने पिताजी को बौखला दिया. वे चिढ़ कर बोले, ‘‘ कोई सुअर का बच्चा शराब पीकर आ मरा है, यहां हमारी खिड़की पर.’’ और बुदबुदाते हुए जब वे उस खिड़की के पास पहुंचे तो आवाज पहले दिन की तरह अचानक बंद हो गई.

तीसरी रात आवाज ने खिड़की की जगह बाथरूम की पोजिशन ले ली. और मजे की बात, पिताजी के अलावा घर के सभी समझ गए कि हकीकत क्या है.

छटे दिन की बातचीत में इतने अधिक अपशब्दों और गालियों का आदान-प्रदान हुआ था कि पिताजी तिलमिला उठे. उन्हें बहुत बुरा लग रहा था कि बेटे-बेटियों वाले घर के सामने कोई ऐसे बातचीत करे. पर साथ ही बातचीत कुछ जानी-पहचानी भी लगी.

सातवीं रात उन्होंने गालियां बकते टेपरिकॉर्डर को रंगे हाथ पकड़ लिया, और यह भी जान लिया कि वह रहस्यमय बुरा व्यक्ति जिससे वे भी घृणा करते है और कोई नहीं खुद वे ही हैं. अब शर्म और लज्जा से उन्होंने सर पीट लिया. अपनी ही नजर में वे बौने हो गए थे.

सबके सामने कान पकड़ते हुए वे हार की मुद्रा में बोले, ‘‘ बच्चों, अनजाने में गालियों का इस्तेमाल करते हुए मैंने कभी महसूस नहीं किया था कि वे सुनने में कितनी बुरी लग सकती है. बुरे शब्द भले ही बुरे इरादे से न कहे गए हों पर होते तो बुरे ही हैं. इसका अहसास भी मुझे पहली बार हुआ है. एक सप्ताह में ही जब मैं बौखला उठा हूं तो सोच रहा हूं तुम सब एक मुद्दत से कैसे बर्दाश्त करते रहे. मैं अब वादा...?

‘‘ ठहरिए पिताजी!’’ किशु आगे बढ़ आया, ‘‘वादे की कोई जरूरत नहीं. आप पर पहरा अभी हटेगा नहीं. मैं बाजार से एक तोता खरीद लाया हूं जो आपके कमरे में ही रहेगा. याद रखिएगा, आपकी खूबियों और खामियों दोनों को ही वह दोहराएगा. गालियों के उत्तर में गालियां ही देगा.

पिताजी के पास अब कोई जवाब न था. वे हारे खिलाड़ी की तरह अपने कमरे की तरफ चल पड़े.

इधर मां, भैय्या, दीदी सभी जैसे तैयार खड़े थे. सभी ने उसकी पीठ थपथपा कर शाबाशी दी और प्यार से गाल खींचे. और किशु ने मुस्कराकर धीमें से कहा, ‘‘शुक्रिया बंशीलाल. ऑपरेशन अलंकार सफल हुआ है.’’

***