राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 2 राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 2

बाणकालीन पाराशरी भिक्षु

राधारमण वैद्य

जब कभी नाम रूप से एक समान दिखने वाला व्यक्ति, समुदाय या समाज के भीतर से अपने आचार-विचार में भिन्न होता है और उसकी भिन्नता की कड़ी पकड़ में नहीं आती है, तब क्रमबद्ध अध्ययन करनेवाला जिज्ञासु हैरान-सा दिखाई देने लगता है। उसे बार-बार अपने अध्ययन में शृंखला का अभाव खटकता रहता है। प्रबुद्ध मनीषी और प्रकाण्ड अध्येता डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल भी अपने ’’हर्षचरित- एक सांस्कृतिक अध्ययन’’ में इसी प्रकार की एक उलझन से बार-बार जूझते नजर आते हैं। वे लिखते हैंः ’’बाण के समय में पाराशरी भिक्षुओं का ब्राह्मणों से बड़ा विरोध था। ये पाराशरी कौन थे, किस मत या दर्शन के अनुयायी थे और क्यों ब्राह्मणों से इनका वैर था, यह एक गुत्थी है, जिस पर प्रकाश पड़ना आवश्यक है। अभी तक इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर हमारे सामने नहीं है, (पृ0 188)।’’ इसी प्रकार, अन्यंत्र ;पृ0 110 पर वे कहते हैंः ’’पाराशरी भिक्षुओं का उल्लेख तो पाणिनि की अष्टाध्यायी में भी मिलता है, किन्तु चैत्यपूजा करने वाले इन पाराशरियों का प्राचीन पाराशरी भिक्षुओं से क्या सम्बन्ध था, इसे स्पष्ट करने वाली कड़ियाँ अविदित हैं।’’

अब हमें सर्वप्रथम यह विचार करना है कि कैसे इनके विभिन्न रूप दिखाई दिये। पाणिनिकालीन पाराशरी भिक्षु पाराशर्य व्यास के विरचित भिक्षुसूत्र या वेदान्त-दर्शन का अभ्यास करने वाले साधु थेः ‘ पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः (4।3।110)ः पाराशरिणो भिक्षवः’। वेबर का मत है कि यहाँ पाणिनी बुद्धकाल से पूर्व के ब्राह्मण-भिक्षुओं का उल्लेख कर रहे हैं। ’कमन्द के ग्रंथ के विषय में अधिक ज्ञात नहीं है, किन्तु पाराशर्य कृत भिक्षुसूत्रों में सांख्यसूत्रों का पूर्वरूप था। उसकी रचना भिक्षु पंचशिख ने की थी। महाभारत के अनुसार, यह पाराशर्यगोत्रीय थाः

पाराशर्यसगोत्रस्य वृद्धस्य सुमहात्मनः।

भिक्षोः प´्चशिखस्याहं शिष्यः परमसम्मतः।।

(शान्तिपर्व, पूना-सं0, 308/24)

पंचशिख के इस सूत्रग्रन्थ का झुकाव वेदान्त की ओर अधिक था। कुछ भी हो, मूल भिक्षुसूत्रों की रचना वैदिक चरण के अन्तर्गत हुई, व्यक्तिविशेष का उनके साथ सम्बन्ध आनुषंागिक था। मूलतः, ऋग्वेद की वाष्कल-शाखा के अन्तर्गत पाराशर्य-चरण की स्थ्तिि थी। इसी चरण के कल्पसूत्र का अध्ययन करने वाले पाराशर कल्पिक ’पराशराः’ और भिक्षुसूत्रों के अनुयायी ’’पाराशरिणः’ कहलाते थे (पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ0 330)।’’ इसके बाद बाण की मित्र-मण्डली जो काफी बड़ी थी में चौआलीस व्यक्तियों के नाम उसने गिनाये हैं। पाराशरी ’सुमति’ उनमें से एक था। डॉ0 वासुदेवशरण अग्रवाल के कथनानुसार, धार्मिक इतिहास की दृष्टि से ’हर्षचरित’ का एक अपना महत्वपूर्ण स्थान है।

पाँचवे उच्छ्वास में अपने पुनः पाणिपल्लवप्रमृष्टैरात।भ्ररागैर्नयनपुटैः कमण्डु भिश्च वारि वहन्तो गृहीतव्रता मुण्डा विचेरूः’ वाले अंश की धार्मिक सम्प्रदाय से सम्बद्ध व्याख्या प्रस्तुत करते हुए डॉ0 वासुदेवशरण जी इसे पाराशरी भिक्षुओं का वर्णन स्वीकारते हैं। द्वितीय उच्द्वास में ’कमण्डलुजलशुचिशयचरणेषु चैत्यप्रणतिपरेषु पाराशरिषु’ (पृ0 80़) वाक्यांश में कमण्डलु के जल से हाथ-पैर धोकर चैत्य-वन्दन करने वाले पाराशरियों का उल्लेख है। इनका ब्राह्मण विरोध भी पाराशरी ‘ब्राह्मण्यो जगति दुर्लभः’ (पृ0 181) से सिद्ध है। अन्तिम उच्छ्वास का दिवाकरमित्र भी, जिसकी सहायता से या जिसके आश्रम में राज्यश्री के अग्नि-प्रवेश होने का समाचार हर्षवर्द्धन को मिलता है, पाराशरी ही है। शबर-सेनापति भूकम्प का भाँजा निर्घात, जो विन्ध्याचल के पत्ते-पत्ते से परिचित था, दिवाकरमित्र को पाराशरी भिक्षु के रूप में ही बताता है। यद्यपि वह मैत्रायणी शाखा का ब्राह्मण था, तथापि उसका आश्रम बौद्धविद्या का एक आदर्श संस्थान था। वहाँ अतिविनीत शिष्य चैत्य-वन्दन-कर्म में तत्पर रहते थे (चैत्यकर्म कुर्वाणः)। वे बु;द्ध, धर्म और संघ इन तीन रत्नों की शरण में जाते थे (त्रिसरणपरैः) और ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि दिवाकरमित्र के आश्रम में कमण्डलु, भिक्षा-पात्र और चीवर वस्त्रों के अतिरिक्त वाण ने चैत्यांकित मिट्टी की लाल मुहरों का भी उल्लेख किया है। (निकटकुटीकृतपाटलमुद्राचैत्यक-मूर्त्तयः,235)। डॉ वासुदेवशरण जी के मतानुसार, शंकराचार्य के काल में भी यह सम्प्रदाय विशेष उल्लेखनीय रहा है और वे उनके ’जटिलो मुण्डी लु´्चितकेशः काषायाम्बरबहृकृतवेशःः’’ वाले पद्यांश में चार सम्प्रदायों को पाते हैं- जटिल (कापिल), मुण्डी (पाराशरी), लु´्चितकेश (केशलुंचन करने वाले जैन) और काषायाम्बरधारी (बौद्ध)। इस प्रकार, आरम्भ में भिक्षुसूत्र या वेदान्त का अभ्यास करने वाले पाराशरी ही आगे छठीं-सातवीं शती में पूर्णरूपेण बौद्ध, चैत्यपूजक और ब्राह्मण विरोधी हो गये।

अब प्रश्न है कि यह परिवर्तन कब, कैसे और क्यों हो गया ? इस गुत्थी को सुलझाने में दिवाकरमित्र के आश्रम की भौगोलिक स्थिति से सहायता मिल सकती है। इसे समझने के लिए मलावराज द्वारा कैद की गई राज्यश्री के निकल भागने पर विचार करना होगा। घटना क्रम इतिहास प्रसिद्ध है। कन्नौज का मौखरि राजा ग्रहवर्मा मालवराज द्वारा मार डाला जाता है। राज्यश्री कैद कर ली जाती है। राज्यबर्द्धन के द्वारा मालवराज परास्त होता है और मार डाला जाता है। गौडाधिपति इसी अवसर की बधाई देते समय निःशस्त्र राज्यवर्द्धन को मार डालता है। राज्यश्री कारावास से निकल भागती है और विन्ध्याटवी में चली जाती है। अतः, अब मालवों की स्थिति, कन्नौज को जाने और वहाँ से लौटनेवाला मार्ग और विन्ध्यावटी की स्थिति विचारणीय है। डॉ0 बूहलर ने मालवराज की पहचान देवगुप्त से की थी, जो सर्वसम्मत है। बाण के समय तक मालव लोग अवन्ती आ चुके थे और अवन्तिप्रदेश मालव कहलाने लगा था, क्योंकि कादम्बरी में, बाण उज्जैन की क्षिप्रा में मालवी स्त्रियों के स्नान का वर्णन (कादम्बरी, वैद्य0 51) करता है। कालिदास का भी मालव-वर्णन इसी स्थल से सम्बन्ध रखता है। मन्दसौर के लेखों (सन् 404 और 436 ई0) में मालव-संवत् का उल्लेख होने से भी यही विदित होता है। अतएव, मालवराज देवगुप्त विदिशा, चेदि (चन्देरी), बेतवा के पश्चिम से, कालपी, जालौन एवं औरैया होता हुआ कन्नौज पहुँचा होगा और वहाँ उसने ग्रहवर्मा को, जिस दिन सम्राट प्रभाकरवर्द्धन के मरने की खबर कन्नौज में फैली, उसी दिन मार डाला और ’भर्तृदारिका राज्यश्री को पैरों में बेड़ी पहनाकर कान्यकुब्ज के कारावास में डाल दिया’’- ऐसा संवादक नाम के परिचारक ने रोते-पीटते आकर राज्यवर्द्धन को सुनाया था। फिर जब हर्षबर्द्धन ने मालवराज की सेना को जीतकर परिबर्ह (छीने हुए साज-सामान) के साथ लौटे राजकुमार भण्डि से पूछा कि राज्यश्री की क्या गति हुई ? तो उसने कहा कि ’’देव, राज्यवर्द्धन के स्वर्ग जाने पर जब गुप्त नाम के व्यक्ति ने कान्यकुब्ज (कुशस्थल) पर अधिकार कर लिया, तब राज्यश्री भी पकड़ी गई। पर, वह किसी तरह बन्धन से छूटकर परिवार के साथ विन्ध्याचल के जंगल में चली गई-यह बात मैने लोगों से सुनी है।’’

प्राचीन भूगोल में विन्ध्याटवी उस घने जंगल की संज्ञा थी, जो विन्ध्य पर्वत के उत्तर चम्बल और बेतवा के बीच पड़ता है, जहाँ आटविक राज्यों का सिलसिला फैला हुआ था और कुछ दिन पहले उन्हीं के भौगोलिक उत्तराधिकारी बुन्दलेेेखण्ड के छोटे-छोटे रजवाड़े थे। महाभारत (वनपर्व) में इसे घोर अटवी, दारूण अटवी, महारण्य, महाघोरवन कहा गया है। बाण के समय, यह आटविक सामान्त व्याघ्रकेतु के अधिकार में था। अब यदि वही सब आज की भौगोलिक परिस्थिति में देखें, तो ग्वालियर जिले से ’’पारबती’’ और सिन्धु के संगम पर स्थित पवायाँ (पùावती) से लगभग सोलह या बीस मील सीधे दक्षिण पूर्व की ओर एक स्थान ’परासरी’ (दतिया जिले में) है। इस परासरी गाँव से डेढ़ मील पूर्व की ओर पहूज नदी है और एक या डेढ़ मील दक्षिण में अशोक गुजर्रा-स्थित शिलालेख है। यह वह सुप्रसिद्ध (मक्सी के बाद दूसरा) शिलालेख है, जिसमें अशोक नाम आया है। यहाँ अशोक ने धर्माचरण के लिए धर्मोपदेश लिखाया। बौद्धधर्म में दीक्षित होने के डेढ़ साल बाद का यह समय है और राजधानी से वह अपनी धर्मयात्रा की दो सौ छप्पनवीं रात यहाँ (गुजर्रा में) बिता रहा है।

इसी के साथ ’हर्षचरित’ के आठवें उच्छ्वास में दिवाकरमित्र के द्वारा मुक्ताफलों की मन्दाकिनी नामक एकावली (इकलड़ी माला) हर्ष को देते समय के कथन को नहीं भूलना चाहिए। उसमें जहाँ कवि कल्पना का उद्भावन है, वहाँ कुछ प्रतीक रूप में इतिहास कथन भी हो गया है। हो सकता है कि जनश्रुति पर आधृत सत्य होने के कारण उसका यह रूप हो गया हों बाण कहता हैः ‘‘एक बार उदयाचल से उठते हुए तारापति ने समुद्र के विमल जल में पड़ी हुई अपनी परछाई देखी और काम-भाव से तारा (बृहस्पति पत्नी) के मुख का स्मरण करके विलाप करने लगा। समुद्र में उसके आँसुओं के गिरने से जो मोती बने, उन्हें पाताल में वासुकि नाग ने किसी तरह प्राप्त कर लिये और एकाबली बनाई और मन्दाकिनी नाम रखा। कुछ समय बाद नाग लोग भिक्षु नागार्जुन को पाताल में ले गये और वहाँ नागार्जुन ने वासुकि से उस माला को माँगकर प्राप्त कर लिया। रसातल से बाहर आकर नागार्जुन ने मन्दाकिनी नामक वह एकाबली माला अपने मित्र त्रिसमुद्राधिपति सातवाहन नाम के राजा को प्रदान की और वही माला शिष्य परम्परा द्वारा हमारे (दिवाकर मित्र के) हाथ आई। यद्यपि आप (हर्ष) को किसी वस्तु का देना एक अपमान है, तथापि औषधि समझकर विष से अपने शरीर की रक्षा करने के लिए आप (हर्ष) कृपया इसे स्वीकार करें।’’ भिक्षु नागार्जुन और सातवाहन नरेश का मैत्री सम्बन्ध ऐतिहासिक तथ्य है। कहा जाता है कि नागार्जुन ने अपने मित्र सातवाहन को बौद्धधर्म के सार का उपदेश करते हुए एक लम्बा पत्र लिखा था। सुहल्लेख नामक उस पत्र का अनुवाद तिब्बती भाषा में अभी तक सुरक्षित है। यहाँ तक तो डॉ0 वासुदेवशरण जी ही ले आये हैं। वासुकि नाग से एकाबली प्राप्त करने की बात भी प्रतीक रूप में सत्यता रखती प्रतीत होती है। ’अग्निपुराण’ में लगभग अस्सी प्रकार के विभिन्न नागों का सविस्तार वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार अनन्त, वासुकि, पù, महापù, तक्षक, कुलीर, कर्कोट और शंख नाग परम्परा के सर्वाधिक मान्य पात्र थे। यह समस्त विन्ध्यावटी नागों के अधिकार क्षेत्र में तो थी ही, उधर अहिच्छत्रा और मथुरा पर भी इनका आधिपत्य इतिहास-प्रसिद्ध है। विदिशा, पùावती और कान्तिपुर नागवंश की राजधानियाँ थीं। कनिष्क ने इन्हें हटाकर इनके बहुत बड़े इलाके पर अपना अधिकार कर लिया था। इन्हीं में से किसी वासुकि नागराजा से यह एकावली प्राप्त की गई हो, और इसे ही शिष्य परम्परा में दिवाकर मित्र ने पाया हो, यह भी सम्भव है।

राजकुमार भण्डि के अनुसार, राज्यश्री किसी तरह बन्धन से छूटकर परिवार के साथ विन्ध्याचल के जंगल में चली गई। यह बात भी उसने लोगों से सुनी। इधर डॉ0 आर0एस0 त्रिपाठी के मतानुसार, राज्यश्री को गौडाधिपति ने सेनापति भण्डि और उसकी सशक्त सेना का ध्यान बँटाने के लिए कन्नौज के कारावास से छोड़ दिया था (हिस्ट्री ऑव कन्नौज, पृ0 67)। हो सकता है, इसी गौडाधिपति ने ही शीघ्रता से निकल भागने और विन्ध्यावटी की ओर पहुँचने में भी सहायता दी हो। निश्चित ही उसकी यह भाग-दौड़ वर्तमान स्थल-जालौन, कोंच और भाण्डेर होते हुए बेतवा और पहूज के बीज के जंगलों में पहूज के किनारे हुई होगी। लगभग इसी मार्ग से सिन्ध और पहूज के बीच या पहूज और बेतवा के बीचवाले आटविक मार्ग से, पहूज के किनारे की ओर भटकता हुआ, हर्ष भी विन्ध्यावटी में प्रविष्ट हुआ, क्योंकि इसके मार्ग के पड़ौसी प्रदेश में रहने वाले कुटम्बिक (कुणबी, आधुनिक कुरमी) लोग सब ओर से लकड़ी काटने के लिए आ रहे थे (हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ0 181) और हर्षचरित उच्छ्वास 8, पृ0 241, में पाराशरी भिक्षु ने जिस नदी-तट पर घूमते हुए बहुत-सी स्त्रियों के रोने का शब्द सुना था, वह नदी पहूज (पुष्यजा) ही होगी। वर्तमान परासरी गाँव से पहूज डेढ़ मील पर है, जहाँ आज बालाजी नामक एक तीर्थ है, तथा जैसा ऊपर कहा जा चुका है, गुजर्रा का अशोक-शिलालेख भी इस परासरी से एक या डेढ़ मील दक्षिण में स्थित है।

पाराशरी भिक्षुओं में बौद्धमत के प्रति अभिरूचि भी कुषाण-काल में जग गई होगी, जबकि यह क्षेत्र पùावती (पवायाँ) के नागराजाओं के अधिकार-क्षेत्र से कनिष्क के अधिकार में पहुँच चुका था और तभी दक्षिण कोशल में जनमें सुविख्यात बौद्ध विचारक नागार्जुन के धर्म प्रचार के प्रभाव में आकर बौद्धमत में दीक्षित हो चैत्यपूजक हो गये होंगे। इस सम्भावना की पुष्टि पास ही बड़ौनी से प्राप्त मिट्टी की पाटल (लाल) मुद्राओं से भी होती है, जिनके बीच में चैत्य चिन्ह और कोई जप का मंत्र अंकित है। (मंत्र का पाठ अभी अज्ञात है) ऐसी बहुत सी मिट्टी की पाटल मुद्राएँ हर्ष ने पाराशरी दिवाकर मिश्र के आश्रम में भी देखी थी, जिनका उल्लेख हर्ष ने निकटकुटी- कृतपाटल मुद्रा चैत्य मूर्तयः (0़8/235) कहकर किया है।

ये पाराशरी भिक्षु बाण के काल में ’मुण्डी’ शब्द से अभिहित थे और बाद में शंकराचार्य ने भी ’मुण्डी’ के रूप में उल्लेख किया है। आज भी दतिया में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का एक आस्पद ’मुड़िया’ नाम से प्रख्यात है, जिसका स्त्रोत उन्हें भी अज्ञात है तथा पास ही एक गाँव ’मुड़िया कर्रा’ कहलाता है। दतिया में एक मुहल्ला ’मुड़ियन का कुआँ’’ ही कहा जाता है।

जहाँ तक पाराशरी भिक्षुओं के विश्वास का प्रश्न है, स्पष्ट है कि आरम्भ में ये पाराशर्य व्यास के विरचित भिक्षुसूत्र या वेदान्त दर्शन का अभ्यास करने वाले साधु थे, जैसा पाणिनि के सूत्र से पता चलता है। हो सकता है कि ये वाष्कल-शाखा के अन्तर्गत पाराशर्यचरण के कल्पसूत्र का अध्ययन करने वाले पाराशर या भिक्षुसूत्र के अनुयायी पाराशरिन अतिकाल तक अपने दर्शन और विश्वास को सम्पूर्ण निष्ठा से रखते रहे हों, जिसे पाणिनि ने देखा और पतंजलि ने जाना (पंतजलिकालीन भारत, पृ0 166-167)। इसके बाद अशोक का इनके इस आश्रम (आधुनिक परासरी) के पास अपनी दो सौ छप्पनवीं रात बिताने और अपना प्रख्यात (गुजर्रा का) शिलालेख अंकित कराने की प्रक्रिया नेे, सम्भव है, इनके विचारों को प्रभावित किया हो या इनमें बौद्धमत को समझने की सहिष्णुता पैदा की हो। इसके बाद अन्धकालीन कुषाण-युग (ईसवी की दूसरी शती) इनके दिशा परिवर्तन का युग रहा होगा और इसी काल के महान् व्यक्तित्व ने, जो हे्नसांग के मतानुसार दक्षिण कोशल में जनमें, बौद्धदर्शन में माध्यमिका कारिका या माध्यमिका सूत्र की रचना करके एक अलग सम्प्रदाय प्रवर्तित कर दिया, जिसका दर्शन-जगत् में कोई उपमान नहीं पाया जाता। नागार्जुन ने अवश्य ही इन पाराशरियों को, जो अपने वेदान्त-दर्शन के कारण उनके विचारों के अल्यधिक निकट थे, बौद्धधर्म में दीक्षित कर चेत्यपूजक बना दिया होगा, जैसा पाराशरी दिवाकरमित्र के गुरू-परम्परा ज्ञान से पुष्ट होता है। यही वह काल है, जब नागवंशी राजाओं का आधिपत्य इस क्षेत्र में समाप्त हो गया था। यहाँ कुषाणों का केवल अधिकार ही नहीं हुआ था, वरन् यहाँ उनका बौद्धधर्म प्रसार मथुरा को केन्द्र बनाकर हो रहा था, जिसके चिन्ह पवायाँ और बड़ौनी (छोटी) में प्राप्त पुरा-भग्नावशेषों से स्पष्ट है।

प्रच्छन्न बौद्ध कहे जाने वाले शंकराचार्य के दादागुरू और माण्डूक्यकारिका के रचयिता श्री गौडपादाचार्य की दार्शनिक स्थिति बहुत कुछ इसी प्रकार की थी। अनेक आधुनिक विद्वानों की धारणा है कि गौडपादाचार्य ने बुद्ध-धर्म के तत्वों का ही प्रतिपादन वेदान्त रूप में किया है (आगमशास्त्रः अनु0 भदन्त आनन्द कौसल्यायन)। वे खुले शब्दों में ’’द्विपदाम्बर’ और ’सम्बुद्ध भगवान बुद्ध के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हैं (राहुल सांकृत्यायनः दर्शन-दिग्दर्शन, पृ0 808) गौडपादाचार्य का दर्शन नागार्जुन के शून्यवाद के बहुत समीप है। यह स्थिति छठीं शती के उत्तरार्द्ध और सातवीं सती के पूर्वाद्ध मे थी, जब बाण हुए। सम्भवतः अन्यान्य स्थानों पर भी बाह्य आचार विचारों में बौद्ध भिक्षु और पाराशरी भिक्षु एक सा व्यवहार कर रहे हों। यह तो सब जानते हैं कि विचार आमूल नहीं बदलते। वे अपने संस्कारों की रक्षा नये परिवेश में करते हुए एक नया रूपमात्र ले लेते हैं।