लाल - हरी लाईट
हम तो ठहरे छोटे से कस्बे में रहने वाले छोटे से आदमी । जब हमारे कस्बे में कोई कालेज खुल जाये , कोई अस्पताल दस से बीस बिस्तर का हो जाए या किसी चौक पर किसी महापुरूष की मुर्ति स्थापित हो जाए ; तब हमें अपने कस्बे के विकसित होने का पता लगता हैं। भला हो मंत्रियों का जो अक्सर भूमिपूजन और उद्घाटन करके हमारे कस्बे के विकास से हमें परचित कराते रहतें हैं। हमारे कस्बे में पुरानी टाकीज थी ,जिस दिन मॅाल खुला हमारा और आपका सीना छप्पन इंच का हो गया । कस्बे ऐसे ही कछुए की गति से विकास करते हैं हमारे कस्बे को यह गति पसन्द नहीं हैं । बस हमारे कस्बे ने एक दम से छलांग लगा कर शहरों में शामिल होने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया । इस प्रयास के चलते पहले तो कस्बे में पिज्जा औा बर्गर मिलने लगे फिर कुछ आई.सी. यू. और बड़े होटल खुल गए ।
हमारे कस्बे को इतने से ही संतोष कहॉं था ? हम अक्सर बड़े शहरों में जाते तो चौक -चौबारों पर लाल- हरी लाईट देखते । हमें लगता ये लाईट जिस दिन हमारे कस्बे मे लगेगी उस दिन ही हमारा कस्बा भी शहर हो जाएगा । हुआ भी ऐसा ही एक दिन हमारे कस्बे में भी ट्रेफिक सिग्नल लग गए । अरे वाह ...... अब तो हम भी शहर में रहने वाले हो गए । अब ये लाल- हरी बत्तीयॉ दिन-रात अपनी गति से जलती रहती है और लोग अपनी गति से आते जाते रहते है । ऐसा लगता है कि हमारा कस्बा पूरे वर्ष दीपावली मनाने के मूड में हो । एक दिन एक बाहर की कार वाला चौक पर लाल लाईट देख कर रूक गया । आस-पास से जाते हुए हमारे कस्बाईयों ने उसे ऐसे देखा जैसे उससे बड़ा मुर्ख आज तक देखा ही न हो । वो बेचारा शर्मा गया और लाईट के हरे होने के पूर्व ही उसने अपना कृष्णमुख कर लिया ।
इन जलती- बुझती बत्तियों ने हमारे शहर को जो खूबसूरती प्रदान की है उसका वर्णन करना आसान नहीं है । हमें लगा था कि इन ट्राफिक लाईट रूपी फलदार पेड़ों की छाया में कुछ ट्राफिक वाले अपने फल का जुगाड़ तो कर ही लेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं । वे तो अब भी बिना लाईट वाले चौकों पर बड़ी तादाद में जमा हो कर जेबभरो आंदोलन चलाते रहते है । मुझे ऐसा लगता है कि इस पुनीत आंदोलन के लिए कुछ लोग अपना अतिरिक्त समय भी देते हांेगे । अन्यथा स्टाफ की कमी से जुझ रहे विभाग के पास इतना बड़ अमला आता कहॉ से है । लोगों को मालूम है कि इस आंदेालन से बचना कैसे है । लोग भी उनसे रास्ता बदल कर निकलने के लिए इन्हीं ट्राफिक सिग्नल वाले चौकों का प्रयोग करते है ।
एक दिन किसी बड़े अफसर को लगा कि कस्बे के लोग कितने मूर्ख है जो इन लाल- हरी लाईट तक को समझ नहीं पाते , बस उसने बिना किसी ठोस व्यवस्था के लोगों को सिग्नल पर स्वतः कैसे रूके यह सीखने का पुनीत अभियान प्रारम्भ कर दिया । हमारे कस्बे के सीधे -सादे लोग अब सुबह पॉच बजे भैसों को भी ‘‘सिग्नल पर कैसे रूकना’’ का अभ्यास कराने में लगे है ।
कस्बा बड़ा हुआ तो रोडें भी बढ़ी ,वाहन बढ़े और पैदल चलने वाले भी बढ़े । वाहनों की धमाचौकड़ी के बीच जेब्रा क्रॉसिंग हो तो कोई गधा भी उस पर चल कर जेब्रा हो जाए । यहॉ तो जेब्रों के लिए कोई क्रासिंग ही नहीं है । फुटपाथ पर तो गुमटी वाले और दुकानदारों का कब्जा है । बेचारा पैदल आदमी जाए तो जाए कहॉ ? एक पैदल आदमी को मैने लाल लाईट पर स्वतः ही रूकते देखा तो मै आपा ही खो बैठा । मेरी इच्छा उसके चरणस्पर्ष करने की हुई । भावनाओं पर नियंत्रण करते हुए मैनें उसे पूछा ‘‘ भाई साहब आप क्यों रूक गए ?’’ वो बोला ‘‘ वैसे मुझे रोकने वाला यहॉ कोई है तो नहीं परन्तु मुझे लगा शायद मेरे रूकने से किसी को यहॉ की व्यवस्था का ख्याल आ ही जाए ।’’
मुझे लगने लगा है कि जैसे इन चौकांे को ट्राफिक सिग्नलों के भरोसे छोड़ कर सब सो गए है ; कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जनता को भी उन्होनें हमारे हाल पर छोड़ दिया हो । हो सकता है कि ये ट्राफिक सिग्नल ‘‘सोनम गुप्ता बेवफा है ’’ जैसा ही कोई गुप्त संदेष हो जो हमें यह बताने का प्रयास कर रहा हो कि अपनी - अपनी व्यवस्था स्वयम् देखो ; हमसे कोई अपेक्षा मत रखना । अब हमें सावधान तो उस बोडऱ् को पढ कर ही हो जाना चाहिए जो हमारे कस्बे में प्रवेष करते समय बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा दिखाई देता है । जिस पर लिखा होता है ‘‘ मुस्कुराईए कि आप .......... में है ।’’
आलोक मिश्रा