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किरदारों की दुकान ( व्यंग्य )


किरदारों की दुकान


अमा यार ................. आप क्या सोचने लगे, ज्यादा ना सोचो, सोचने से लोगों का सिर दुखने लगता है और फिर ........... आपका ये नाचिज खिजमतदार आखिर किस दिन काम आयेगा। लो साहब हम बात कर रहे है किरदारों याने चरित्रों की। साहित्य लिखने वाले हमेशा ही किरदारों की खोज में रहते है। वहीं पढ़ने वाले चरित्र चित्रण को घोटकर पी रहे होते है। अब नामचीन लेखकों को उनके बंद कमरों में वास्तविक किरदार मिलने से रहे। वे अपनी कल्पना की उड़ान से अनोखे, अजीब और बेतुके किरदार पैदा करने की कोशिश करते है। आखिर उनकी कल्पना भी तो उनके कमरे की छत से टकराकर धम्म से नीचे गिरती होगी।

अनेक लेखक रास्ता चलते किरदारों को खोजते रहे है। पागल, भिखारी और पत्थर तोड़ने वाली लेखकों के निशाने पर हमेशा रही रहे है। वो चरित्र वैसे ही रहे, लेखकों ने लिखा और साहित्य पुरस्कार प्राप्त कर लिया। पिछले कुछ वर्षो में पुराने बचे-खुचे बुढे़ साहित्यकारों को भगवान ने अपने पास क्या बुला लिया। युवा साहित्यकारों की तो जैसे निकल पड़ी। अब "होरी" तो बार-बार जिन्दा होने से रहा। बस नये चरित्रों की खोज सब ओर की जाने लगी। अब इन नये लेखकों को लगने लगा की कोई तो दुकान हो जहां किरदार बिकते हो, बस चटपट खरीदो और फटाफट पुरस्कार पाओं। इन लेखकों की यह मजबूरी हमसे देखी नहीं गई। हमने आव देखा ना ताव उनसे कह "अमा यार......... पान वान खाया करों, किरदार मुफ्त में मिलते है।"

बहुतेरे तो समझ गये इसलिये हर साहित्यकार पान जरूर खाता है और जो नहीं खाता है। अपने साहित्य में चरित्रों की कमी हमेशा ही पाता है। पान दुकान.......... याने स्थानीय मिलन स्थल....... पान दुकान याने किरदारों की दुकान छोटी हो या बड़ी हर पान की दुकान में सबसे अहम किरदार तो खुद दुकानदार ही होता है। वो हर आने वाले से बात करता है। अदा के साथ पान पर चुना, कत्था आदि लगता है। कभी-कभी पुछ भी लेता है "आपने ऐक्सिडेंट के बारे में सुना क्या ? " आपने ना कहते ही पूरा वृतांत स्वयं ही बताता है। शहर का कोई हाल जानना हो तो बस पास की पान दुकान पर जाकर थोड़ी बात भर छेड़ दीजिये। आपको पूरी खबर न मिले तो अपना नाम बदल लीजियेगा। उसके अलावा वहाॅ खड़े होकर देखिये आपको एकदम युवा छोकरे सिगरेट का दम भरते और आती-जाती बालाओं पर सर्तक निगाह रखते हुये मिलेंगे। जहाॅ उनकी वाली निकली, उनकी व्यवस्थता प्रारंभ वे जल्दी से पान चबाते हुये निकल लेते है।

कुर्सी से नदारत बाबू, क्लाॅस से भागा शिक्षक और निरीक्षण पर निकला अधिकारी अक्सर ही पान की दुकानों पर मिल जाते है। बाबू को कोई पान खिलाने के लिये लाया होता है। बाबू पान खाता है और जेब में हाथ डालकर खड़ा रहताा है। शिक्षक एक पान को दो बार में खाता दिखता है। क्योंकि पैसे तो उसके जेब से ही जाने है ना। अधिकारी सरकारी गाड़ी मेें बैठा रहता है। ड्रायवर या सहयोगी उतरकर पान बनवाकर उसे पेश करते है। इनके अलावा कुछ फोकटिये भी यही आस-पास देखे जा सकते है। वे दुकान से कुछ लेते नहीं है। बस खड़े रहते है और धीरे से हाथ आगे करके सुपारी या तम्बाकु मांगते है। दुकानदार भी देता है और कभी कोई काम करवाकर ही देता है। दूसरे प्रकार के फोकटिये किसी शिकार की तलाश में रहते है। वे आने वालों से विनम्रता से बात करते है। परिचय निकालते है और जैसे ही पूछा कुछ लोगे क्या ? फटाफट दो-तीन पान बनवा लेते है।

सटोरिये इन दुकानों के पास ही अड्डा जमाते है। लेन-देन पान के साथ ही निपट जाता है। कुछ लोग झुमते-झामते पान की दुकान पर देखे जाते है। ऐसे लोगों पर अंगूर की बेटी मेहरबान होती है। कभी तो वे 10 की जगह 100 का नोट निकालते और कभी पूरे पैसे खत्म हो जाने के कारण बीवी, बच्चों की कसम खाकर पान उधार प्राप्त करते है। ऐसे लोग अक्सर ही तेज सुंगध वाले पानों का सेवन करते है। पान दुकान पर साधु, पीर, फकीर सभी देखे जा सकते है।

कुछ आर्शीवाद की ऐवज में पान लेना चाहते है तो कुछ अपने यजमानों पर घुटना रखकर पान चबाते है। इसी भीड़ में उधार मांगने वाले भी होते है और रंगदारी से पान खाने वाले भी।

वैसे पान दुकान कुछ लोगों के मिलने-जुलने का नियमित केन्द्र भी है। कुछ बुर्जुग लोग पान खाये या ना खाये दुकान पर जरूर ही जाते है। पत्रकारों का एक समुह पान दुकान के आसपास अवश्य ही दिखाई दे जायेगा।

साहित्यकार बड़ी हिम्मत करके पान दुकान तक जाता है। पूरी हिम्मत जुटाकर जेब से सिक्का निकालता है और पान को तमाम खुबियों के साथ बनाने को कहता है। पान हाथ में आते ही उसके चार टूकड़े करता है। एक खाता है तीन रख लेता है।

यहाॅ किरदारों की भरमार है जल्दबाज और फुरसतिया, खिलाने वाले और खाने वाले अड़कबाज और शालीन सब यहाॅ मिलेगे। जिंदगी के सब रंग है पान के रंग में। यहाॅ खुशी है, यहाॅ गम है, यहाॅ हंसी है, यहाॅ मजाक है, यहाॅ वह समा है जो होना चाहिये। इस दुकान पर कमी है तो आपकी और आपके किरदारों की तो आप कब मिल रहे है किरदारों की दुकान पर............. याने पान की दुकान पर।


आलोक मिश्रा

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