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स्वयम्की (व्यंग्य )



स्वयम्की ( व्यंग्य )


आप सोच रहे होंगे मुझे ‘‘स्वयम् की’’ लिखना चाहिये था। लेकिन नहीं सहाब मैं ‘‘स्वयम्की’’ ही लिखना चाहता था और वही लिखा है। अब आजकल जमाना बदल रहा है। हमारी हिन्दी कम्प्यूटर और मोबाईल के इस दौर में नवीन शब्दावली के विकास में पीछे छूटती जा रही है। अतः आप को मैं कहुॅं कि ‘‘क्या संयत्र’’ पर मैंने आप को संदेश भेजा था तो शायद आप समझ ही न सकें, जब तक मैं आपको हिन्दी शब्द ‘‘क्या संयत्र’’ के मायने अंग्रेजी में वाट्सएप न बता दूं। स्थितियाॅं इतनी भी खराब है कि यदि वाट्सएप का हिन्दी संस्करण आ भी जाये तो आपको उसमें ‘‘लास्ट सीन’’ के स्थान पर हिन्दी अनुवाद "अंतिम दर्शन" मिल सकता है।

अब तो अनेक शब्दों को अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करके नहीं वरन हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद करके समझ पा रहे हैं। एक शब्द जिसका शायद हिन्दी में प्रथम बार ही प्रयोग हो रहा है उसे आप भी कैसे समझ सकते है। यह शब्द है ‘‘स्वयम्की’’। ‘‘स्वयम्की’’ क्या? बहुत से लोग अपने-अपने अनुसार समझ सकते हैं। कुछ लोग जो विज्ञप्ति वीर हैं साहित्य को नहीं समझते या आगे नहीं पढ़ते तो इसके आगे गलियों का बड़ा-सा शब्द कोष जोड़ सकते हैं। कुछ लोग जिन्हें किसी की कोई परवाह नहीं है वे इसे अपनी इच्छाओं से जोड़ कर देख सकते है। ऐसी अजब-गजब सोच वाले लोगों के लिए लेखक करे भी तो क्या? आपने भी स्वयं की सोच के अनुसार ही शब्द स्वयम्की के विषय में अवश्य ही सोचा होगा।

चलिए साहब नाटकीयता बहुत हुई। अब आपके सामने है शब्द स्वयम्की याने ‘‘सेल्फी’’। अरे आप तो एक दम ही समझदार निकले। आप तो एक दम ही सब कुछ समझ गए। ‘‘स्वयम्की’’ याने ‘‘सेल्फी’’ आज-कल के दिखावा पसंद समाज को दिखावे के लिए उपयोग किया जाने वाला नवीनतम औजार है। जिसे देखिये जहाॅं देखिए एक हाथ लम्बा किये, उस हाथ में मोबाईल लिए खड़ा है। कोई एकांत में अपने को तैयार करके मुह को दस कोने का बनाकर स्वयम्की लेता है तो कोई कहीं भी खड़ा हो जाता है स्वयम्की लेने। मुझे तो लग रहा है स्वयम्की की बढ़ती हुई इस लत के चलते भविष्य में पैदा होने वाले बच्चों का एक हाथ दूसरे से लम्बा न हो। वैसे भी डार्विन जी बता गए हैं कि हमारा विकास आवश्यकताओं के अनुरूप ही होता रहा है।

अब साहब आप विधायक से मिले सेल्फी, आप नेता से मिले सेल्फी, आप सुअर से मिले सेल्फी, हमारा समाज बिना ज्ञान के भले ही बढ़ जाये, मगर सेल्फी के बिना इसका बढ़ना मुश्किल होता जा रहा है। वो भिखारी को दान दे रहा था। एक हाथ से, दूसरे हाथ से स्वयम्की लेने का प्रयास था। उसने दिया हुआ दान कटोरे से उठा लिया। भिखारी भौचक्का रह गया। वो बोला ‘‘यार सेल्फी सही नहीं आई’’ भिखारी भी मुस्कुरा दिया। दान देते हुए सेल्फी का जोरदार फोटो लेने के बाद ही उसने दान देना पक्का किया।

स्वयम्की याने सेल्फी साधारण शौक से आगे बढकर रोग का रूप लेने लगा है।। लोग नहाते-धोते, उठते-बैठते और खाते-पीते सेल्फी लेना चाहते है या उसके विषय में सोचते है। अब हर ओर कैमरों की भरमार और सेल्फी लेते युवाओं को देखकर हमें हमारा ‘‘क्लिक थर्ड’’ का जमाना याद आता है। जब हम एक रोल में छत्तीस फोटो खींचते, वो भी श्वेत-श्याम, एक माह बाद जब फोटो आती तो पता लगता कि हम तो फोटो खींचते ही रहे, हमारी तो एक-भी फोटो नहीं है। अब तो तुरंत खींचों और देखो पसंद न आये तो हटा दो। अधिक पसंद आ जाये तो अपने दोस्तों को तुरंत को भेज दो। और अधिक ही प्रचार करना हो तो ‘‘चेहरा पुस्तक’’ याने फेसबुक पर छाप दो याने पोस्ट कर दो। फिर इंतजार करो कि लोग उसे पसंद करे याने लाईक करें, उस पर अपनी राय दें याने कमेंट करें या फिर साझा करें याने शेयर करें। आप बहुत चर्चित हो तो लाईक, कमेंट भी अधिक ही होंगी। वो घर की सब्जी लाना भूल जाता है पर बिना नागा रोज स्वयम्की डालना नहीं भूलता।

यह शौक इस खतरनाक हद तक पहुॅंच चुका है कि कुछ लोग दुनिया की ऊंची ईमारतों पर, कुछ लोग ऊंचाई से कूदते हुए और कुछ लोग तेज वाहनों पर भी सेल्फी लेना चाहते हैं। उस युवा की तो आखिरी सेल्फी थी। उसे वो स्वयम् नहीं देख सका। उसकी बहुत इच्छा थी शेर के साथ स्वयम्की ले। वो सफल रहा और शेर भी। फोटो बहुत ही जोरदार थी उसका पूरा मुह शेर के मुह में था। शौक हो तो ऐसा, जिसमें जिंदगी तक की परवाह न रहे।। काश उस युवा ने अपनी यह ऊर्जा किसी ओर काम में लगाई होती। करवा ली न उस युवा ने ‘‘स्वयम्की’’ के चक्कर में स्वयम् की.........। हालांकि एक बात और है युवाओं के पास कोई काम-धंधा तो है नहीं। पढ़ने-पढ़ाने में भी उनका दिल-विल लगता तो है नही। सो अब उनके हाथ में एक खिलौना तो है खेलने के लिए। अब यदि चार युवा बैठे हो तो वे चारों अपने-अपने खिलौनों में व्यस्त रहते हैं। कोई स्वयम्की लेते हुए, कोई उसे पोस्ट करते हुए, कोई उसे संशोधित याने एडिट करते हुए और कोई केवल देखते हुए। व्यस्त सभी है बिना काम के। उनकी व्यस्तता देखते ही बनती है।

वैसे देखा जाए तो यह सब वक्त का तकाजा ही है। अब युवा खेल-कूद से दूर है। चार कदम चल कर हांफ जाता है। कहाॅं रहा गिल्ली-डण्डा, पतंगबाजी और कुस्ती। कहाॅं रह गए दौड़, कूद और कबड्डी। वो तो टी.वी. देख कर बड़े हुए हैं। उनके लिए मेहनत के काम हराम है। अब करे भी तो क्या करें? जो उन्हें आता है बस वे उसी में लगे हैं। एक दिन तो मैंने देखा वो घर से बन-ठन कर निकला। मुझसे बोला ‘‘अंकल मेरी एक सेल्फी लेलो न।’’ मैं सोचता रहा मैं उसकी फोटो खींच रहा हुॅं या सेल्फी।







आलोक मिश्रा


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