प्रवक्ता जी Alok Mishra द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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प्रवक्ता जी


प्रवक्ता जी

हाँ तो साहब बात को प्रारम्भ से ही प्रारम्भ करते है , हम आप से पूछना चाहते है कि क्या आप सखाराम को जानते है ? हमने इतना कठिन प्रश्न तो नहींं पूछा ...... अरे... वही सखाराम जो आजकल बड़ी- बड़ी चैनलों पर अपनी पार्टी का बचाव करते दिखाई देते है । अरे आप तो जानते ही है उन्हें ; अरे वही हमारे शहर के पुराने प्रवक्ता जी । सखाराम को हमारा पूरा शहर आज से नहीं तब से जानता है जब वे हमारे शहर में सायकिल पंचर की दुकान चलाया करते थे और सारा शहर उन्हे प्रवक्ता जी के नाम से जानता था । इधर सखाराम सायकिल का ट्युब खोलता उधर उनका मुह खुलता तो जब तक ग्राहक चला न जाए खुला ही रहता । कुछ ग्राहक तो उनके अधिक बोलने से परेशान हो कर उधर न आने की कसमें खाते । कुछ पूरा शहर पार कर के केवल हवा भरवाने मुफ्त के मनोरंजन के चक्कर में आते ।वैसे हमारे शहर में उनके शब्द बांणों के सामने टिकने की हैसियत किसी भी "मुख योद्धा" में नहीं थी सिवाय उनकी धर्मपत्नि के । कुछ लोगोंके अनुसार सखाराम घर में मौन साधे रहते थे । यहाँ दो सौ किलो की एक अदद् बीबी मुखयोद्धा बन कर दनादन बांण छोड़ती रहती । इन सभी प्रहारों को सखाराम अपनी मौन की ढ़ाल पर झेल जाते । करीबी लोगों के अनुसार मुखयोद्धा सखाराम की असली गुरू उनकी पत्नी ही थी ।
वैसे तो सखाराम छोटी से दुकान चलाते थे परन्तु उनका मुह बहुत बड़ा था सो वे अनेक छोटे और बड़े संगठनों में सक्रिय दिखाई देते । वो किसी भी संगठन में हो रहते प्रवक्त ही । अक्सर संगठनों मे सारे पद बांटने के पश्चात प्रवक्ता पद सखाराम के लिए बचा रहता । ऐसा भी भी कहा जाता है कि प्रवक्ता पद के लिए उन्हें चुनौती देने वाला न कभी था और न कभी होगा । सखाराम पंचर जोड़ते , प्रवक्तागिरी करते और जो समय बचा रहता उसका प्रयोग मंच संचालन में करते । शहर में मंत्री-संत्री आऐं , कव्वाली हो या दशहरे का जलूस मंच संचालक के रूप में सखाराम हर जगह ड़टे रहते । अब शहर के लोग उन्हे " माईक का भूखा " या " प्रवक्ता जी " जैसे उपनामों से संबोधित करने लगे ।
हमने सुना था मुहजोर के गधे भी बिकते है ।बस हमारे प्रवक्ता जी के गधे बिकने लगे और वो धीरे -धीरे राजनैतिक होते गए । वे छोटे से बड़े और बड़े से और बड़े स्तर पर पहुँच गए । अब वे अक्सर हमें समाचार चैनलों पर शाम के समय वाद - विवाद करते नज़र आते है । गोल -गोल उल्लू सी आंखें , रंग बिरंगे कुर्ते में सजे वे कभी इस चैनल पर तो कभी उस चैनल पर दिखाई देते है । वे कभी इस विषय पर बोल रहे होते और कभी उस विषय पर । अब हम उन्हें और उनकी वाचालता को देख कर ही दंग रह जाते है । कभी - कभी व्याख्याता और प्रवक्ता के मध्य तुलना करके हमें उधसे जलन होने लगती । अक्सर तो वे वही बोलते जो उधकी पार्टी द्वारा उन्हे बताया जाता । इन पत्रकारों से भगवान बचाए कभी - कभी वे कुछ भी उटपटांग पूछ लेते है । बस ऐसे ही समय हमारे प्रवक्ता जी की वाकपटुता काम आती है और वे अपनी बातों को जलेबी की तरह घुमाने लगते है । उनसे बार - बार पूछने पर भी वे अपनी बातें बोलते जाते और मूल प्रश्न को छूते भी नहीं । शाबाश ........ प्रवक्ता जी ....... शाबाश ।
कभी- कभी ऐसे अवसर भी आते जब किसी चैनल पर हमारे प्रवक्ता जी जैसे शेर को सवा शेर मिल ही जाता है । यहाँ प्रवक्ता जी तार्किक रूप से जब उस सवा शेर से हारने लगते है तो चैनल पर चल रहे वाद-विवाद को संसद के किसी हंगामा सत्र के रूप में बदलने में देर नहीं लगाते । ऐसे समय वे लागातार बोलने और बोलते जाने की पद्धति अपनाते है । जिसके करण सुनने वाला किसी की भी बात ठीक से सुन नहीं पाता ।प्रवक्ता जी को क्रोध कम ही आता है परन्तु उनके पास दूसरों को क्रोध दिला कर पटरी से उतारने के भी हथियार मौजूद है । वे अक्सर ही वाद-विवाद के दौरान इन अस्त्र -सस्त्रों का प्रयोग करते हुए नजर आते है । जब कोई उनकी पार्टी पर बेईमानी और भ्रष्टाचार के आरोप लगाताहै तो प्रवक्ता जी उनके ही गड़े मुर्दे उखाड़ने लगते । जब कोई उनके शीर्ष नेताओं पर आरोप लगाता तो वे पलट कर विपक्षियों के आदर्श पुरूषों पर ही कटाक्ष करने लगते । हमारे प्रवक्ता जी शहर से चले तो प्रवक्ता थे आज भी प्रवकँता ही है । वे अब इतना उठ गए है कि प्रवक्ता बन सकें लेकिन इतना नहीं कि किसी को अपना प्रवक्ता बना सकें। चाहे कुछ भी हो हमारे शहर का पंचर जोड़ने वाला सखाराम जिसकी बक-बक कोई सुनना नहीं चाहता था ;आज उन्ही बक-बक पूरा देश सुन रहा है ।
आलोक मिश्रा