दो आशिक़ अन्जाने - 2 Satyadeep Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दो आशिक़ अन्जाने - 2

नियम कहता है कि हर किसी को अपनी गलती सुधारने का एक मौका मिलना चाहिए। हालांकि प्रकृति की श्रेष्ठतम संतान होने के नाते, प्रकृति ने मनुष्य को सुधरने के कई मौके दिये हैं। लेकिन गाय ममतावश अपने बछड़े को कभी-कभार इतना चाट देती है कि बछड़े को घाव हो जाता है। मानव के साथ भी प्रकृति ने यही किया। कुदरत नज़रंदाज़ करती रही और इंसान अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करता रहा।

यह कहना गलत न होगा कि मनुष्य को जब-जब अपनी शक्तियों का घमंड हुआ है, प्रकृति ने उसकी ग़लतफ़हमी दूर कर दी है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। अपने विलक्षण ज्ञान की आधारशिला पर मनुष्य ने साइंस और टेक्नोलॉजी के कमाल से न केवल पशु-पक्षी, वनस्पति, नदी-तालों और पर्वत-पठारों को क्षति पहुँचायी बल्कि अपने लिए भी ख़तरे पैदा करने शुरू दिये। सौ-दो सौ सालों के अंतर में, धरती से जीवों की अनगिनत प्रजातियाँ विलुप्त हो गयीं। इक्कीसवीं सदी के महामानवों की करतूत से, समस्त पृथ्वी के अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगा। पानी जब सिर से ऊपर हो गया तब थक-हारकर क़ुदरत को कमान अपने हाथों में लेनी पड़ी। दैवीय आपदाओं के रूप में उसने भूकंप, महामारी, सुनामी, अकाल आदि करतब दिखाने शुरू किये।

नवंबर 2019 के दौरान चीन में कोरोना वायरस नाम के एक ऐसे ही खतरनाक वायरस का जन्म हुआ, जिसने महीने भर के भीतर देश में सैंकड़ों ज़िंदगियाँ निगल लीं। देखते ही देखते कोरोना की यह प्राणघातक बीमारी; महामारी में तब्दील हो गई और अब यह वायरस; एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे देश में बड़ी तेजी से फ़ैल रहा है। एक-एक करके दुनिया के लगभग सारे देश इसकी चपेट में आते जा रहे हैं। लोग बेमौत मर रहे हैं। बेटों के सामने बाप मर रहे हैं, बाप के सामने बेटे। परिजनों को शव ले जाने तक की इजाज़त नहीं है। अस्पतालों में बेड और कब्रिस्तानों में ताबूत कम पड़ने लगे हैं। दुनिया के आला विज्ञानियों, शोधकर्ताओं, डाक्टरों की टीमें जी जान से जुटी हुई हैं, मगर इस वायरस का तोड़ नहीं निकल पा रहा। चंद्रमा पर झंडे गाड़ने वाले विश्वस्तरीय विज्ञान को एक वायरस ने पंगु बना डाला है। एक नन्हें से विषाणु ने वो तांडव किया है जो बड़े-बड़े परमाणु बम न कर पाए।

कोरोना वायरस की संक्रमण दर हालांकि धीमी है लेकिन नए तरह का वायरस होने के नाते विशेषज्ञों को इसकी वैक्सीन तैयार करने में खासी दिक्कत आ रही है। और दूसरी तरफ़ संक्रमित होने वाले व्यक्तियों की संख्या दिनोंदिन बेतहाशा बढ़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य परिषद यानी डब्ल्यूएचओ ने दिशा-निर्देश जारी करके कोरोना को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया है और सभी देशों को यह सुझाव दिया कि वे अपनी सभी तरह की गतिविधियों को अगले कुछ महीनों के लिए रोक दें।

भारत सरकार ने भी वायरस के प्रसार को रोकने के लिए देशभर में लॉकडाउन की घोषणा कर दी। प्रदेशों के बॉर्डर सील कर दिये गए हैं, उड़ानें रोक दी गईं हैं, ट्रेनों के पहिये थम गए हैं और उद्योग-धंधों पर ताले लटक चुके हैं। लोग आजीविका के लिए पूरी तरह से अपनी जमापूंजी पर आश्रित हो गए हैं। बड़े-बड़े दार्शनिकों को एक ही झटके में रुपये की अहमियत पता चल गई है। राशन स्टॉक किया जा रहा है। लोग अपने ही घरों में कैदी हो गए हैं। लेकिन मजदूर वर्ग के लिए इस लॉकडाउन में आगे कुआँ और पीछे खाई वाली स्थिति पैदा हो गई है। बाहर निकले तो बीमारी मारेगी और अंदर बैठे तो भूख। कुदरत के भी अजीब किस्से हैं। वो हमेशा पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों को सबक सिखाने के लिये पैंतरे बदलती है, और हर दफ़ा उसकी चपेट में अनपढ़; बेसहारा लोग फँस जाते हैं।



क्रमशः