दो आशिक़ अन्जाने - 10 - अंतिम भाग Satyadeep Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दो आशिक़ अन्जाने - 10 - अंतिम भाग

खाली बैठा इंसान समय काटने के मक़सद से जो भी काम करता है, उन सभी कामों को दो प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। कान की खूँट निकालना, नाखूनों से मैल निकालना, बालों की लट  बनाना या फ़िर ख़ाली-पीली हवा में हाथ हिलाना (किसी ख़ास मक़सद से हाथ हिलाना, कल्पनाशीलता  का चरम बिंदु है;) आदि कामों को हम पहली श्रेणी में रखते हैं जबकि, भविष्य की योजनाएं बनाना, व्यापार के लाभालाभ पर मनन करना, निवेश का विचार करने इत्यादि को हम दूसरी श्रेणी में रख सकते हैं। इसके अलावा एक तीसरा काम भी है, जिसे हालांकि अधिकतर लोग करते तो हैं, पर इसका रचनात्मकता से कोई खास सम्बंध है नहीं। बावजूद इसके यही वह सर्वसुलभ सत्कर्म है जिसे हर कोई,हर जगह बड़ी आसानी से करता हुआ देखा जा सकता है। यह काम है मोबाइल स्क्रीन पर बेमक़सद अँगूठा घिसना। अर्जुन, फ़िलहाल यही कर रहा है।

मोबाइल फोन असल में देखें तो एक बाज़ारू औरत की तरह है। ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल कर लेने पर जी उकताने लगता है। नज़दीकी से दिमाग़ जब भन्नाने लगे तो बंदे का मोहभंग हो जाता है। अंतर्मन धिक्कारने लगता है कि रे पापी! कैसे चक्कर में पड़ा है मूर्ख, छोड़ दे। और फ़िर वो पापी अपनी वासना को क़ाबू करने की ठान लेता है। मगर तबतक उसे औरत की लत लग चुकी होती है। अब वो रोज़ सुबह मन में वहाँ ना जाने का प्रण लेकर उठता है, मगर शाम होते-होते उसके क़दम अपने-आप बहकने लगते हैं। वहाँ से लौटते हुए उसका मन पश्चाताप से भरा होता है, पर वह अपनी कामेक्षा के हाथों विवश होता है। उसकी ये लत फ़िर तभी छूट पाती है जब या तो इंसान खुद-या फ़िर वह वेश्या बीमार पड़ जाये। यह बिछुड़न- यह एकाकीपन पहले पहल तो बहुत सालता है;कचोटता है, मग़र धीरे-धीरे जब उसके बग़ैर रहने की आदत पड़ जाती है- तब कहीं जाकर मन को असली शांति मिलती है-असल निर्वाण प्राप्त होता है। लेकिन इन सबकी पहली शर्त यही है कि आपको अपनी लत छोड़नी होगी। अपना जी कड़ा करके; कुछ देर के लिये ही सही, अपने फ़ोन को अपनी जेब में ठूँसना पड़ेगा। 

अर्जुन को अभी निर्वाण की चाहत नहीं है,बावजूद इसके उसने अपने दस-हज़ारी फ़ोन को; उसने अपनी चुस्त जेब में सरका दिया है। हालाँकि इस मौके पर यदि स्वयं ब्रह्मा उसे मोक्ष का वरदान भी दें, तो वो बड़ी सहजता से मना कर देगा। उसका स्वर्ग-उसकी अप्सरा तो यहीं है, इसी ट्रक में। सुबह की ठंडी बयार ने उसे मदमस्त कर रक्खा है। रह-रहकर उसे लड़की की मख़मली जाँघ का ख़याल आ जाता है, शायद इसीलिए वो कभी अपनी गदोलियों को छूकर तो कभी दबाकर देखता है, और फ़िर एकाएक ही दोनों हथेलियों को मिलाकर होंठों से चूमने लग जाता है। इस दौरान हथेलियों में बसी एक भीनी जनाना खूशबू; उसकी नाक में घर कर जाती है।

अर्जुन को एक हल्का सा झटका लगा, और ट्रक चल पड़ा। हवा की थपकियों से उसे झपकियां आने लगीं हैं। उसने अपनी ऑंखें बंद मूँद लीं। अभी थोड़ी देर पहले तक जो कुछ घटा था, वो सब एक-एक करके उसकी आँखों के आगे थिरकने लगा। उसका मीनाक्षी के करीब जाना, उसका खूबसूरत चेहरा, वो पहली छुवन, सबकुछ। ये सब कुछ उसके दिल में; अब ज़िंदगी भर के लिए जज़्ब हो जाएगा। उसे पता ही नहीं लगा कि कब उसे नींद आ गई।

 

-“ए चलो भाई! चलो-चलो! माझिघाट आ गया। उतर जाओ सब लोग। ट्रक आगे नहीं जाएगा।”  नौजवान खलासी अपनी मिमियाती आवाज़ में हाँक लगा रहा है। बीच-बीच में बोलते हुए वो ट्रक की बॉडी पर भड़भड़ा भी देता है। इसी भड़भड़ाहट से आख़िरकार मीनाक्षी की नींद खुली। 

-"चलिए माताजी, ऐ भैया जरा जल्दी करलो तुम लोग।" लोग धड़ाधड़ ट्रक से कूद रहे हैं। आगे अभी लंबा सफ़र तय करना है। मीनाक्षी ने भी फ़टाफ़ट अपना सामान उठाया और नीचे उतर आयी। पिता आगे-आगे चल रहे हैं। लेकिन मीनाक्षी के पैर तो मानों बढ़ते ही नहीं, एक कदम चलना भी दूभर है। इस रेले में उसकी आँखें जिसे ढूंढ रहीं हैं वो नदारद है। मीनाक्षी सोचने लगी- 'इतने सारे लोग-इतने सारे चेहरे, लेकिन वो कहाँ है?? भाग गया होगा कूद के। मर्द सारे होते ही ऐसे हैं, भौंरा। रस पी लिया, उड़ गया। रात में तो देखो कितनी हिम्मत थी कमीने में। कैसे फ़ौरन आके झट से हाथ पकड़ लिया, और फ़िर….फ़िर एकदम से चिपक गया देह से। अब दिन में हाथ नहीं पकड़ा जाएगा हरामी से। यही होता है।’

आगे उसने स्थानीय भाषा में कुछ भुनभुनाया जिसका शाब्दिक अर्थ निकलता है कि रात के आशिक़ दिन के उजाले में गायब हो जाते हैं।

मीनाक्षी आवेश में पुरुष जाति को और न जाने क्या-2 कह गई होती, अगर माँ ने पीछे से कंधे पर धक्का न मारा होता।

"ऐ किरनी! चलती काहे नहीं रे?"

"चल तो रहे हैं अम्मा।"

"हाँ तो इधर-उधर का ताक रही है, सोझा चल!" माँ ने डपटते हुआ कहा। 

अच्छा! तो हमारी नायिका का असल नाम किरण है। तब तो अच्छा होगा कि हम भी आगे उसे इसी नाम से सम्बोधित करें। किरण चल तो रही है मगर बड़े अनमने ढंग से। वो माँ को बता नहीं सकती, कि इधर-उधर देखने का कारण क्या है। बढ़ते क़दमों के साथ उसकी आशा धूमिल होती जा रही है। अपने आप से बातें करती हुई वो बढ़ती जा रही है। 

उसने देखा ही नहीं कि सामने से कोई और भी चलता चला आ रहा है....

“-अरे-अरे! ......दिखत नाई का? देहि पे कहाँ गिरा जा रहा है?" 

सीधी टक्कर थी। किरण झुंझला उठी। 

“-कुत्ता-कमीना, हराम,,,,,,,,"

.....होश ठिकाने आने पर अचानक किरण को आभास हुआ, कि उसकी हथेलियों पर कुछ चिपका हुआ है। किरण ने मुठ्ठी खोली तो पाया कि कागज़ की एक मुड़ी-तुड़ी सी पर्ची है। वो एकदम से चौंक पड़ी। अभी तो हाथ में कुछ नहीं था। किरण ने प्लास्टिक का अपना नन्हा सा झोला बगल में दबाया और जल्दी-जल्दी पर्ची खोलने लगी। आख़िरी तह खुलते ही उसकी बड़ी-2 आँखों में चमक आ गई। नीली स्याही से; हिंदी के टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा हुआ है-

‘आई लभ यू’

 99xxxxx09

 सतेंदर।

किरण फ़ौरन पलटी, मगर उसका सतेंदर भीड़ में गुम हो चुका है। सूरज सिर पर चढ़ने लगा है। हवा में ख़ुश्की है और माहौल में उमस बढ़ती जा रही है। लेकिन किरण को देखने से ऐसा लगता है  कि जैसे महीना वसंत का हो। मुस्कुराकर उसने पर्ची को अपने दिल से चिपका लिया। वो जानती है कि मंज़िल अब ज्यादा दूर नहीं है । 

समाप्त