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सेब क्यों गिरा

सेब क्यों गिरा

एक दिन मैं यूॅ ही स्कूल के गलियारे में टहल रहा था । छुट्टी का समय होने के कारण छात्र-छात्राएँ भी कक्षाओं से बाहर यहाॅं-वहाॅं टहल रहे थे । एक कक्षा में बैठे कुछ छात्र हॅसी-मजाक में आपस में बातचीत कर रहे थे । एक छात्र दूसरे से बोला - ‘‘यार ये न्यूटन के सिर पर सेब क्यों गिरा?’’ दूसरा बोला - ‘‘हाॅ यार न न्यूटन के सिर पर सेब गिरता और न भौतिकी में एक अध्याय बढ़ता ।’’ तीसरा बोला - ‘‘मै तो सोचता हॅूं पूरा पेड़ गिर जाता तो ठीक होता।’’ पहला फिर बोला -‘‘लेकिन हम इतने भाग्यशाली कहां है ?’’ एक छात्र बोला " यार जब वो शौच जाता होगा तब भी तो कुछ गिरता होगा फिर सेब के गिरने पर बवाल क्यों ? " छात्र ने शौच के लिए खड़े शब्दों का प्रयोग किया । दूसरा ठहाके लगाता हुआ बोला " वो कभी गया ही नहीं होगा !"

मैं बच्चो की बातों को सुनकर सोचने लगा कि बस्ते के बोझ से दबे बच्चे अब यह सोचने लगे है कि सेब गिरा ही क्योंं ?’ अब मै उनके स्थान पर खुद को रखकर सोचने की कोशिश करने लगा । अरे भाई ..............अकबर महान था तो हुुआ करे हमें क्या फर्क पड़ता है । लेकिन नहीं हमें तो याद ही करना पड़ेगा क्योंकि हमारी बुद्विमता तो इसी बात से नापी जाएगी ना कि हमें यह मालूम है कि नहीं कि अकबर की महानता के कारण क्या थे। फिर पूरा इतिहास मेरे सामने से गुजरने लगा । चन्द्र्रगुप्त मौर्य से लेकर सिकंदर तक, नेपोलियन से लेकर हिटलर तक और न जाने क्या-क्या । इतिहास की पुस्तकों में लिखे अनेक बिन्दुओं पर इतिहासकार स्वयं एकमत नहीं थे । उनके एकमत होने या नही होने से क्या फर्क पड़ता है । पुस्तकों का रट्टा लगाना ही हम छात्रों की मजबूरी है ।

मेरा ध्यान गणित जैसे विषय की ओर चला गया । बताइये .......... प्राथमिक शालाओं में जोड़ना, घटाना, गुणा और भाग सीखा था क्या उससे जीवनयापन नहीं हो रहा है । इन गणितज्ञों का क्या करें स्वयं को विद्वान साबित करने के चक्कर में जिन्होने सैकड़ो, हजारों तरह के सूत्र और विधियाॅ खोज डाली । अब उन्हें सीखने के चक्कर में रोज ही छात्र स्कूलों के बाद ट्यूशन टीचरों के घर जा जाकर अपनी चप्पलें घिस रहे है । उस पर तुर्रा यह है कि एक प्रश्न हल हो भी जाए तो अगला मॅुह चिढ़ाता है। गणित से बुद्वि कितनी बढ़ती है यह तो नहीं मालूम लेकिन भारी पुस्तकों का बोझ उठाने से हम छात्रों को हम्मालों जैसा मजबूत शरीर जरूर प्राप्त होता है । अब बताइये इन रसायन शास्त्रिओं का क्या करें? इन्होनें दिमाग में न घुसने लायक रासायनिक क्रियाओं से पूरी किताब भी भर दी है । बेन्जीन को याद करे तो एल्कोहल भूल जाते है। एल्यूमिनियम को याद करें तो लोहा दिमाग से लोहा लेने लगता है । इतना ही नहीं ये तो उन छोटे कणों में भी घुस गए जिन्हें जिंदगी भर हम और हमारी सात पुस्ते भी देख न पाएंगी । इसलिये तो किसी छात्र कवि ने तुकबंदी की है -

हिस्ट्री, कैमिस्ट्री बड़ी बेबफा ।

रात को रटो सुबह सफा ।।

वाह-वाह ,वाह-वाह..........वाह-वाह ।

इन कवियों और लेखकों के विषय में भी सोचेंं । अरे भाई ........... आपने स्वान्तः सुखाय लिखा था न तो कम से कम डायरी तो जलाते जाते । नहीं ........ उसे छोड़ गये दूसरों को पढ़ने के लिये । ऐसा लगता है सभी कवियों और लेखकों को ‘‘छपास’’ रोग होता ही होगा । तभी तो वे अपना लिखा हुआ छपवा-छपवा कर छोड़ जाते है । अब हम छात्र उनके लिखे का अर्थ-अनर्थ निकाल रहे है उनके लिखे टेढ़े-मेढ़े को भी सीधा-सीधा समझने की कोशिश में अपनी प्रतिभा खपा रहे है ।

अब साहब सेब पर वापस आ जाते है । सेब याने.............. वनस्पति विज्ञान का विषय था लेकिन नहीं सेब ने भौतिक को बदल दिया । अरे सेब गिरा था तो खा लेते । नहीं खाएंगे कैसे दिमाग में कीड़ा जो बुलबुला रहा था । अब न्यूटन साहब को कौन समझाए अच्छा हुआ आप सेब के पेड़ के नीचे बैठे थे नारियल के नहीं । यदि नारियल गिरा होता तो शायद छात्र आज कोई और ही विज्ञान पढ़ रहे होते ।

आर्कमिडीज भी कोई कम नहीं थे । टब में नहाओंगे तो पानी बाहर गिरेगा ही ऐसा तो सभी के साथ होता है । सब तो चुपचाप नहा लेते है न । आर्कमिडीज नहाना धोना छोड़ निकल पड़े सड़को पर अपनी विवस्त्र विद्वता का प्रदर्शन करने लगे। आइन्स्टीन रंग तो पहचाना नहीं पाते थे और खोज निकाला सापेक्षता सिद्वांत । ऊपर से कहते है मान लो आप प्रकाश के कण पर सवार हो । वाह भई......वाह कुछ भी मान लो कुछ भी साबित कर दो ।

मै फिर सोचने लगा क्या मसला सेब के गिरने भर का है? मुझे लगा कि मसला हॅसी-मजाक और सेब से कहीं बड़ा है । मसला है उन छात्रों का जिनकी बौद्विकता की जाॅंच के लिये आज भी पुराने तरीकों का प्रयोग हो रहा है । मसला है उन छात्रो का जो 95 प्रतिशत लाने के बाद भी कम प्रतिशत वाले छात्रों में शामिल होते है । मसला है उन छात्रों का जो मजबूर है उन्हीं घिसे-पिटे संकायों में से एक को चुनने के लिए । छात्र पूरी मेहनत व लगन से खुद को साबित करना चाहता है । इसके लिये सुबह से शाम तक ट्यूशन क्लासों के चक्कर लगाता है और रातों को बैठ कर पढ़ता है। इस सब के बावजूद वह स्वयं को एक लम्बी कतार में पीछे खड़ा पाता है । इन परिस्थितियों में वो क्यूॅं न सोचे ‘‘आखिर सेब क्यों गिरा?’









(आलोक मिश्रा)



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