उजाले की ओर - 33 Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 33

उजाले की ओर
------------------ स्नेही व आद.मित्रो !

नमस्कार !

ज़िन्दगी कभी उथल-पुथल लगती है ,कभी समाधि लगती है ,कभी रौनक से भरपूर प्यारी लगती है तो कभी काँटों भरी फुलवारी लगती है | किन्तु किसी भी परिस्थिति में ज़िंदगी अपनों के साथ न हो तो सूखी सी लगती है |लगता है, अपने मित्र व संबंधी बहुत दूर हैं उनसे मिलना नहीं हो पाता, कभी पास रहते हुए मित्र व संबंधी से भी मिलना दुष्कर हो जाता है| वास्तव में ज़िंदगी का प्रत्येक लम्हा एक नई कहानी लेकर उपस्थित होता है और हमें एक नवीन संवेदना से भर देता है |

मरीचिका सी इस ज़िंदगी को जीने के लिए सामाजिक व्यक्ति को कुछ ऐसे अपनों की आवश्यकता होती है जो समय पर उसके साथ आकर खड़े हो सकें ,संवेदना से भरपूर हों ,दुःख-सुख में काम आ सकें, जो एक अहसास हों,एक आस हों ,एक विश्वास हों |

मनुष्य कितना ही बड़ा क्यों न बन जाए ,कितना भी धन क्यों न कमा ले,कितनी ही प्रसिद्धि प्राप्त क्यों न कर ले जब तक उसके पास कुछ अपनों की संवेदना नहीं होती तब तक वह सूखा ही बना रहता है ,वह संवेदना को तलाशता रहता है और जब उसे अपनापन प्राप्त हो जाता है तब वह तृप्त होता है ,उसके सूखे चेहरे पर फूलों सी मुस्कान खिल जाती है |

मुझे याद आ रही हैं एक वृद्धा जो बालपन में मेरे जीवन का हिस्सा बन गई थीं |वो एकाकी थीं और माँ के घर के पास ही रहती थीं |किसी विशेष परिस्थिति में वे पहाड़ों से समतल शहर में लाई गईं | समाज की दृष्टि में वह एक बेचारी ,अकेली स्त्री थीं जिन पर कोई भी अपना अधिकार जमा सकता था |

जब मैं छोटी थीं ,तब युवा थीं वे | छोटे शहर के लोग यूँ तो बड़े पैसे वाले समाज के प्रतिष्ठित लोग थे और उनके सामने वे तुच्छ सी प्राणी ! लेकिन उनके सुंदर यौवन पर समाज की आँखें गिद्द सी चिपकी रहतीं | समाज के तथाकथित बड़े लोग कनखियों से उन्हें ऐसे ताड़ते मानो आँखों ही आँखों में कच्चा निगल जाएंगे | उन्हें छिप-छिपकर रोते देखकर छोटी होने के कारण मैं कुछ समझ ही न पाती थी | समझ में तब आने लगा जब मैं बड़ी होने लगी |

सामने वाले चाचा जी ,पड़ौस के ताऊ जी ,पीछे वाले भैया ,सामने वाले लाला जी ---कोई भी तो उन्हें चैन से नहीं रहने देता था | वह अपनी संवेदनाएँ माँ से साँझा करतीं | माँ उन्हें अपने साथ आर्य-समाज ले जातीं | वहीं कुछ लोगों ने उन्हें समझने की कोशिश की | उन्हें समझाया और उनके सच्चे मित्र बने |

तब कहीं उनका अकेलापन कुछ दूर होने लगा |पहले उन्हें पढ़ना नहीं आता था | आर्य-समाज के छोटे से पुस्तलकालय में ही उन्हें अक्षर-ज्ञान मिला | उसके बाद उन्होंने दयानन्द सरस्वती जी से संबंधित काफ़ी पुस्तकें पढ़ीं |सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा | एक समय ऐसा आया कि पुस्तकें उनके अकेलेपन की साथी बन गईं |

फिर उन्हें किसी की ज़रुरत न थी | वे पुस्तकें पढ़तीं ,उनमें से कुछ उपयोगी बातें लिखतीं और उन्हें हर रविवार को आर्य-समाज में या किसी छोटे समूह में बैठकर सुनातीं |इस प्रकार पुस्तकें उनकी मित्र बनीं और उन्होंने अपना अंतिम समय पुस्तकों के सहारे काटा |

वो बड़े मज़े में अपने पास-पड़ौस के बच्चों से कहा करती थीं |

रखड़ोगे तो बनोगे गँवार,पढ़ोगे तो होगे होशियार |

जग में नाम कमाओगे ,कुछ बनके दिखलाओगे |

आज भी उनके ये शब्द याद आते हैं तब लगता है कितना सच कहती थीं वे !

आपकी मित्र डॉ. प्रणव भारती