गांव की तलाश - 9 - अंतिम भाग बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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गांव की तलाश - 9 - अंतिम भाग

गांव की तलाश 9

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

- समर्पण –

अपनी मातृ-भू के,

प्‍यारे-प्‍यारे गांवों को,

प्‍यार करने वाले,

सुधी चिंतकों के,

कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

-दो शब्‍द-

जीवन को स्‍वस्‍थ्‍य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्‍थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्‍त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्‍थली श्रमिक और अन्‍नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्‍य देखने का प्रयास करें। इन्‍हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।

वेदराम प्रजापति - मनमस्‍त -

55- पावसी गंध -

सौंधी-सौंधी गंध, अबनि से आई हैं।

पावस की, पहली बारिस ने पाई है।।

मन के तारों में, बजती है, सरगम जैसी।

उल्‍लासित‍ हृदय सी, अवनि सुहाई है।

कितनी मनुहारै, तप्‍त धरा ने की होंगी।

बादल ने तब कहीं, करूण धार बरसायी है।।

ना जाने, कितनी तपन तपी इन बूंदों ने।

संघर्ष करत, अवनी की प्‍यास बुझाई है।।

सच है, तप के बल, मिलता है सब कुछ।

तप ने तो अब तक, हार न कोई खाई है।।

श्रम मूल्‍यांकन से, धरा स्‍वर्ग बन जाती है।

अन्‍यत्र नहीं है स्‍वर्ग, समझ अब आई है।।

इसलिए साधना, श्रम की ही करनी होगी।

जिसके तप से, मनमस्‍त धरा, कहलाई है।।

56- कंटक -

देते हैं शिक्षा ज्‍यादा कुछ, इस बबूल के कांटे भी।

इनसे भी पयार करो, मित्रों कुछ लम्‍बे हैं, कुछ नाटे भी।।

सम्‍पदा रहे प्राकृत ये भी, सुख दुख समान ही भागी है।

कंटक-सुमनों की परिभाषा, दिन-रात सदां प्रतिभागी।

जीवन-मृत्‍यु के समीकरण, सबके भाग्‍यों में बांटे भी।।

सुमनों की रक्षा खातिर में, कांटों ने शीश कटाए हैं।

परहित न्‍यौछावर होने को, हंसकर, आगे ही आए हैं।

करते रखवाली, निशि-वासर, बागड़ में लगकर कांटे भी।।

कंटक ना होने से मित्रों, बे-फिक्र लोग हो जाते हैं।

जीवन के, हर चौराहों पर धोखे बे निश्‍चय खाते हैं।।

युग को बस, सावधान करने, इनको प्राकृत ने छांटे भी।।।

जीवन के, कंटक जालों में, उलझी है, ये दुनिया सारी।

कंटक से, सुमनों की शोभा सुमनों से कंटक की न्‍यारी।

चरितार्थ कहावत हैा जग की, निकलें कांटों से कांटे भी।।।

57- बिटिया ही बेटा है -

कौन कहेगा उसको बिटिया,

वह है मेरा छोटा छोटू।

एक क्षणिक में दौड़ लगाता,

एक क्षणिक में, लोटक पोटू।

तुतलेपन संग वो मुस्‍काने,

दो दांतों की, दीर्घ कहानी।

भोली सी चितवन से निकले,

अनचाही-सी कोई रवानी।।

ठुमुक-ठुमुक घुंघरू की रूनझुन,

गिर कर उठना और मचलना।

मनमौजी-सी, ये अठखेलीं,

जैसे हों, जीवन के गहना।

बार-बार मां-लला पुकारे,

ताई की गोद छिप जाना।

उछल-उछल अरू कूंद-कूंद कर,

ताई जी ही, सदां बुलाना।।

ऊषा सी मुस्‍कान निराली,

नित्‍य गोद, बाबा की आता।

सियाराम जय, सिया राम जय,

कक्‍का के संग, ताली बजाता।

हाथों की, अदभुत अठखेली,

मनहु बांसुरी मधुर बजाता।

झूम रहा ज्‍यौं मस्ताना कोई,

जैसे कोई जीवन नाता।।

खेल,खेलता मृदुल तौंद पर,

स्‍मृति सपना बन, कह जाती।

मैं मनमस्‍त रहा जीवन भर,

वे यादें भूलीं नहिं जातीं।

जीवन खेला, खेल खिलौना,

खूब भुलाता, भूल न पाता।

ओ मनमस्‍त कहां तूं भटका,

इसका रहस्‍य न कोई पाता।।

58-- बेटी बचा- बेटी प़ढ़ा --

चिंतनों के ओ मसीआ। कलम तो कर ले।

आज के परिवेश पर, कुछ गौर तो करले।

क्रूर क्रन्‍दन अरू रूदन, अव-साद यह कैसा-

बेटी बचा बेटी पढ़ा, ध्‍यान तो धर ले।।

बेटी हमारे दिलों में, पावन है ओस-सी।

आंगन बहारों से भरैं, किलकन-संतोष-सी।

जीवन के सभी मोड़ पर, दिखती है वे खड़ी-

भटके कहीं तो आ गई सच्‍चे उपदेश सी।।

दुतकारना उनको नहीं, बेटी को प्‍यार दो।

बेटों से कहीं अधिक-सा, उनको उपहार दो।

चलना तुम्‍ही से, राह पर, सीखा है उन्‍होंने-

बेटा को मोटर साइकल, तो बेटी को कार दो।।

जीवन के, हर मोड़ पर, अपने को संवारा है।

हंसती रहीं है हर समय, सह दुख अपारा।

स्‍पर्श खुरदुरे में भी, नहीं पंथ से डिगीं।

दोनों कुलों की आनि को, बेटी ने संवारा।।

बेटे पुजे हैं, बहुत कम, पुजतीं हैं बेटियां।

बेटों से सदां दो कदम, आगे हैं बेटियां।

दोनों कुलों की आनि है, दोनों की शान है-

बेटे अगर हीरे हुए, तो मोती है बेटियां।।

करो सम्‍मान बेटी का, भला बेटा नहीं, बेटी।

न रोको, आने दो उसको, सुखद संसाद है बेटी।

क्‍या दुनियां है नहीं उसकी, खेलने दो उसे हंसकर-

सृजन का सार है बेटी, वृहद संसार है बेटी।।

करो भगवान से मिन्‍नत कि बेटी आए घर मेरे।

बेटी सरस्‍वती है, लक्ष्‍मी, सौभाग्‍य है तेरे।

बैकुण्‍ठ होगा घर तेरा, बेटी के आने से-

बुला लो बेटियां हंसकर, मिटेंगे तेरे भव फेरे।।

59- गांव के गीत -

ग्राम्‍य मल्‍हारों की गमक मनचाहे सम्वेत।

अनचाहत बादल यहां, नित वर्षा कर देत।।

कृषक खेत की मैढ़ पर, खुलकर गाते गीत।

प्रकृ‍ति ताल दे नाचती, सुन सच्‍चे संगीत।।

रसना रसियों से भरी, रस मीनी गुंजार।

रंग-विरंगी हो गई, फागुर की बौछार।।

बस में रही न बसंती, महकी महुअन बीच।

भन भनात भंवरान सी, खेलत कुंज पुनीत।।

हो बाबरी बतरान में, बरबस खींचत बांह।

समझत आली है मेरी, नहीं समझी निज नांह।।

चेतन भई न चेतहत, इठलाती ज्‍यौं बा‍लि।

अपन- पराए नहीं लखत, गोरी भई, गुलाल।।

झुकि-झुकि झूलन-झूलती, अमुआं की ही डारि।

नहीं जाने, टूटे कबै, हिय के, हीरक हार।।

असन-बसन यौं उड़ रहे, हो बे पर्दी प्‍यार।

पंचबाण के साथ में, आया हो स्‍मार।।

है इतनी मनमस्‍त मन, जोवन-योवन सार।

कब ऊपर, नैचै कबै, भू-आकाशी पार।।

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