गांव की तलाश 6
काव्य संकलन-
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
- समर्पण –
अपनी मातृ-भू के,
प्यारे-प्यारे गांवों को,
प्यार करने वाले,
सुधी चिंतकों के,
कर कमलों में सादर।
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
-दो शब्द-
जीवन को स्वस्थ्य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्थली श्रमिक और अन्नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्य देखने का प्रयास करें। इन्हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।
वेदराम प्रजापति - मनमस्त -
32- कविता क्या -
वह कविता, आलेख, लेखिनी जिसको सेती।
जो अन्दर के अशुभ कर्म को पिघला देती।
मां सी ममता, अहा। अधीरा को धीरज क्या?
जो गाती आलिप्त वही सच्ची कविता क्या?
घिरी हुई गीदड़ जंगल में, नारी की पीड़ा, नहिं कविता।
इतनी दबी कि सकी बोलना, नारी क्रन्दन क्या नहिं कविता।
सुविधा भोगी आज त्रस्त कहां उनके संग, रातों में शशिता।
अन देखा कर दिया, देख सब, घर विहीन क्यों होती कविता।।
आतंकन की शाम, असह अंधियारा, कविता।
बह सहमा संवाद, सभी कुछ रोदन, कविता।
अश्रु भरा संसार, तारिका अनमन-जीवन।
रात्री लेत उसांस, दर्द-दर्दीली टीभन।।
वैशाखिन पर प्रकृति चल रही, देखा भाई।
असमयता, विन समय, जीत को उससे पाई।
कविता का संसार, बहुत विस्तृत तुम जानो।
जिधर देखते उधर, रूप कविता पहिचानो।।
जन पीड़ा अहसास, अश्रु का रोदन कविता।
टूटन की सब घड़ी, देश का बटना कविता।
जो विमर्श नहीं लिखे, विके बिन पैसा कविता।
इतनी जब स्वछन्द लेखिनी, तब क्या कविता।।
33- प्रश्न खड़ा है द्वार -
बाजारू दिल, भाव चढ़े, बाजार बन गया।
मौजों के दरबार, भाव बिन, सदां विक गया।
पारदर्शिता सर्व विदित, कुल, वंश तुम्हारी।
बीत गया वह समय, हमारी अब है बारी।।
पाप-पुण्य का दंश, आज तक सता रहा है।
खोजो नव प्रतिमान, समय सब बता रहा है।
बनता क्यों किरकिरी, हमारा उन्नत होना।
हम भूंखे रह जिऐं, तुम्हारा ऐसा सोना।।
वैभवशाली बना कहां से, आंखें सीलीं।
प्रश्न खड़ा है द्वार, लगा कुछ ज्यादा पीली।
सोचा। कुछ मन को बहलाने बाहर आया।
लौटा तो नजाने, क्या-क्या संग ले आया।
वो गांवों के गीत कहां, झूलों का सामा।
मधुकर की गुंजार, कहां विरहिन के नामा।
बासन्ती की छटा, घटा की काली साया।
रिमझिम गीत मल्हार, कहां बह धनुषी माया।।
और अने कन छुअन, जहां कंपता मन मेरा।
कितने- क्या संवाद, बनाऐं मेरा घेरा।
सब प्रश्नों- का हल आज खोजने चलो गांव में।
सब कुछ वहां मिल जाय, सोचलो गांव छांव में।।
34- ब्रम्ह से अवतार -
गांव क्या है, ब्रम्ह के अवतार हैं।
मानवी की चेतना के द्वार हैं।
झूंठ का व्यापार, यहां होता नहीं।
कर्म पथ पर, हर समय तैयार है।।
पढ़ रहे यहां, कर्म की गीता सभी।
देखलो, कुरूक्षेत्र भी, जीता सभी।
कृष्ण अर्जुन बन खड़े हैं हर कहीं-
विजय होती है सदां, सोचा कभी।।
द्वार लिपते, सूर्य के सम्मान में।
कर्म-गीता ही पढ़े नित, ध्यान में।
सुबह के, नव नाद केा नहीं भूलते-
समय के सुख पालने के ध्यान में।।
गांव का संवाद, सबसे है अलग।
प्रेम और व्यवहार, सबसे है अलग।
षट विकारों की धरा, यहां है नहीं-
चाल-ढालों की व्यवस्था है अलग।।
ब्रम्ह के अवतार की, धरती यही।
रमण रेती, धूनियां पुजती यहीं।
गांव की मनुहार, सबसे है अलग-
गांव है अवतार-जीवन के सही।।
35- गांवों का देश भारत -
गांवों से समृद्ध बना है, भारत प्यारा देश।
सब कुछ ही, गांवों में सुन्दर, वेश और परिवेश।
अस्सी प्रतिशत गांव हमारे, भारत की रंगशाला।
पग – पग जड़े हुए हैं इसमें, अनगिन रत्न दुशाला।
रंग कर्मी ने, सात रंग से, धरती को रंग डाला।
भारत-भू की प्यारी अबनी, पहन खड़ी, मणिमाला।।
विश्व धरोहर, मेरा भारत, अनुपम, मनहर वेश।।
पूर्व से पश्चिम तक प्रति दिन, सूरज चन्दा डोलें।
उत्तर से दक्षिण को बहती, नदियां हर-हर बोलें।
बाट-बाट और घाट-घाट पर जन-मन करत कलोलें।
अतुलनीय है भारत भूमि, कभी न तुलती, तौले।
प्राच्य संस्कृति के अनगिन है, शिलालेख, अभिलेख।।
ज्ञान संस्कृति, धर्म संस्कृति विश्व गुरू है यहां की।
नालन्दा, खजुराहो, जयपुर, झांको जाकर झांसी।
अनुपम कला-संस्कृति जहां की, टांकी-टांकी, टांकी।
विश्व संस्कृति की यह जननी जय हो भारत मां की।
स्वर्ग सदां बलिहार इसी पर, धन-धन भारत देश।।
हिम, सागर है, जहां पहरूए, राम कृष्ण की धरती।
ब्रह जहां, बालक बन खेले, अवतारों की धरती।
कण-कण जिसका, स्वर्ण कणों-सा, दमक रही है धरती।
सब रहते, सुख चैन, यहां पर, अनुपम, प्यारी धरती।
सुख का सागर, यहां लहराता, दर्द नहीं लवलेश।।
भारत और नहीं है कुछ भी, गांवों की है काया।
जन-जीवन सुख चैन यहां पर, सब गांवों की माया।
शीतल, सुखद समीर बह रहा, ग्राम बटों की छाया।
इससा और न कहीं विश्व में, देश कोई दरसाया।
है निश्चित मनमस्त ये धरती, ज्यौं अविनाशी केश।।
36- जौ औरों घर पला -
तुम्हें मुबारक ब्रम्ह, हमें चर्चा नहिं भावे।
जीवन का अवशाद भरा, संसार दिखावे।
गहरा साया और हुआ, अंधियारा प्यारे।
चौराहों पर विपदग्रस्त सीता अवला रे।।
बहुत पढ़े, लिख दिए, ग्रन्थ, कई भाष्य बखाने।
मन की पढ़ी किताब, करो क्यों आज बहाने।
क्या- क्या कहते लोग, समय सीता फिर रोई।
कोई अपना नहीं, नहीं अवसर पर कोई।।
बंधन-मुक्त न हुए, बात यह आज कही है।
अपने में मनमस्त, शेष-अफसोस यही है।
अब तक अपने, रात दिना, नहिं हम कर पाए।
छीन रहा है कौन सांझ, यह दर्द सताए।
गीत और गीता दोनों ही, एक सरीखे।
जो औरों घर पला, उसे क्या देवें सीखे।
अपने घर की खोज करो, गांवों में जाकर।
पाओगे आनन्द नौन सरिता में नहा कर।।
37- अवतार भू -
कई अवतार की जननी, यह भारत – भू हमारी है।
धरोहर विश्व की अनुपम, हमें प्राणों से प्यारी है।
हिमालय सा मुकुट इसका, यमुन गंगा-धबल धारा।
रजत से है शिखर अगणित, जहां गुंजार औंकारा।
खेले ब्रम्ह जहां गोदी, अनूठी गोद बारी है।।
गंध कस्तूरी-कश्मीरी, हिमांचल गर्व-सा गौरव।
सभी के दिल बसी दिल्ली, यू.पी. चांद-सा सौरभ।
हठीले, बान के पक्के, विहारी से, विहारी हैं।।
हृदय हो एम.पी. जिसका, असम- महाराष्ट्र भुज दोनों।
गजब मैवाड़ की धरती, उगल-गुजरात दे सोनो।।
छवि – छत्तीसगढ़ न्यारी, केरल कर्म धारी है।।
मनोहर बन यहां के हैं, स्वर्ग को मात-जो देते।
सूरज-चांद से मिलकर, धबल आकाश कर देते।
ऋषि मुनियों की यह धरती, स्वर्ग से भी तो प्यारी है।।
पूर्व लालिमा देता, पश्चिम प्राण का रक्षक।
उत्तर है, अबनि उत्तर, दक्षिण देत्यों से रक्षक।
चहुदिसि, दिव्य देवों से, सजी अबनी हमारी है।।
38- व्यवस्था रोदन -
सच को जाने नहीं, हमें शंका होती है।
क्यों बैठे चुप शान्त, व्यवस्था यहां रोती है।
कहां गया अनुराग, कृषक हड़तालें ठाड़े।
लगता है तुम बने, किराए कैसे भांड़े।।
जीवन-उत्सव प्रेम, कहां कब किसने पाया।
इतनी सस्ती हुई, जिन्दगी की यह छाया।
कीट-पतंगों में भी, प्रभु की छवि यदि दिखती।
देशी और विदेशी, लेखिनी कैसे लिखती।।
वर्जित का दुख देख, पैर क्यों ठिटकन पाई।
क्या आकर्षण छिपा, बर्जना में यहां भाई।
किसने –क्या कुछ कहा, बढ़ी आफत क्यों मन में।
इस तनाव के बीच, भटकते हों किस बन में।।
क्यों पढ़ते इतिहास पुरा साहित्य, बहाना।
दु:ख निशा का भोर, तुम्हारे हाथ कहां ना।
मात्र कल्पना, नहीं, उठो, साहस से पाओ।
चाहत के अनुसार, सृजन के पथ पर आओ।।
इस विमर्श के बीच, गहन निंद्रा यहां कैसी।
क्या जीवन पथ यही, समय की रेखा कैसी।
अब भी जागे नहीं, व्यर्थ जगना फिर होगा।
तुम पर ही मनमस्त, विश्व का दर्शन रोगा।।
39- गांवों की पहुनाई -
ओ बाबू कैसे बिसराऊं, गीत तुम्हारे कैसे गाऊं।
कितना नेह लिए हो उर में, ऐसा और कहीं ना पाऊं।।
प्यार तुम्हारा अनुपम जाना, कितने गाऊं गीत अजाना।
हिलन-मिलन की अलग लगन है, आतम-मन को नहीं पहिचाना।।
वह चितबन, वे बोल अनूठे, हंसते रहते, कभी न रूठे।
मिलन भरी बे प्यारी आंखें, नेह, प्यार के हर क्षण भूंखे।
सब कुछ कह देते, बिन बोलें, क्या-क्या कह, कैसे बतलाऊं।।
समझदार हो बहुतहि , भाई रह-रह याद, सदां ही आई।
मना करैं, पर नैकन मानें, चरण पकड़ लै गम नहिं खाई।
हृदय के संताय मैंटते, बांह पकर कर, भेंट-भैंटते।
छलक रहे आंखों के प्याले, जीवन छाले सभी मैटते।
बहुत मिले पर, मिल नहिं जाने, ऐसी कहां, पहुनाई पाऊं।।
सच्चे समधी, सम धी वाले, अंदर धबल, धारणा वाले।
पगडन्डी-सा जीवन जीया, कष्ट – हलाहल पीने वाले।
अश्रु जल से जीवन धोया, साहस, धैर्य कभी नहिं खोया।
लहलहात जीवन कीं क्यारी, सारा जीवन, जीवन पोया।
जीवन में जी-बन हर्षित है। नवल नेह जल सदां नहाऊं।।
लघु शरीर पर भरकम भारी, चाल ढाल है तेज तुम्हारी।
वाणी मधुर, ओर मित भाषी, मृदु मुस्कान, प्यार मनुहारी।
विस्तृत है संसार तुम्हारा, वसुधा कुटुम्ब-धबल उजियारा।
हिलन-मिलन है अजब-अजब ही, मिलन याब तुमसे ही हारा।
लगता है सब कुछ ही पाया, युगों-युगों तक यादों – गाऊं।।
40- कैसा फन यह मौन –
तुमको सुनने, बहुत, आज जन-गण का मन है।
अच्छा लगता नहीं, आज यह कैसा फन है।
डरे हुए यदि रहे, समय व्यवहार मिटेगा।
घृणा, द्वेष का ज्वार, इस कदर, नहीं घटेगा।।
आज दासता पुन: यहां पर फन फैला रही।
भुंसारे के गीत, शाम से यहां गा रही।
क्यों निरीह बन रहे, बात अपनी कह डालो।
जीवन के अनमोल समय को, आज संभालो।।
सभा बीच जो नग्न खड़ा हो, क्या है अच्छा।
निडर बनो मनमस्त, करो तो सही समीक्षा।
अगर यही तब हाल, कहो आगे क्या होगा।
जीवन का वह गीत, कहो, कितना यहां रोगा।।
प्रणता लेकर चलो, धरा के दर्द मिटाने।
जीवन के अनुकूल बनोतो, बनो अहाने।
बाट जोहता समय, समय का साथ निभाओ।
समय साध्य उपयोग यहां पर तुम कर जाओ।।
समय बुलाता, गाओतो तुम, गीत गांव के।
सघन दोपहरी में भी हंसते-प्रीती छांव के ।
जीवन का सुख-सार, सदां गांवों में पाओ।
करना नहीं अवार, आज ही गांवों आओ।।
41- बीत गए वे दिवस -
सावन घन की आस, गीत नहिं गा-मन रागी।
आंख मूंद नहीं बैठ, जलै जब बस्ती आगी।
बीत गए क्या दिवस, रात को दिन करने के।
जीवन कर अनमोल, नहीं सौ दिन जीने के।।
छोड़ो कल्पित भाव, कहां दिन हैं, फुरसत के।
क्या सोचो मनमस्त, गए दिन क्या चिंतन के।
अपनी पीड़ा, आप समझ, कब-कौन जनाबे।
वे दिन बीते आज, समझ तेरी नहिं आबै।।
सुमन- सूत्र नहीं कटै, काहे को, यौं दिन काटे।
इतना हृदय कठोर, हीर-छेनी ही काटे।
जीवन के वे सूत्र कहां गिरवी धर आए।
पाखण्डी अनुवाद, कहां से तुम ले आए।।
आशा नहिं थी आज, तुम्हारा यह फन होगा।
जन-जीवन का सार, इस तरह यहां पर रोगा।
करो सुरक्षा अभी समय कुछ शेष रहा है।
कहना था तो नहीं, मगर फिर आज कहा है।।
नहीं कहने कुछ रहा, शब्द अब, व्यर्थ न बोलो।
वे दिन बीते आज, विभाषी खुद को तोलो।
गाओ तो मनमस्त गांव की संस्कृति गाओ।
धूल जहां का प्यार, चांदनी – मन हरषाओ।।
42- मेरा गांव –
मचलें खुशियां सुधर सलौनी, शाम-सुहानी गांवों में।
धूल छुए मस्तक वन चंदन, बनै पांबड़े पांवों में ।।
सूरज किरण समेट रहा है, उस पर्वत के कोने से।
चन्दा मामा आता होगा, लगता जैसे गोने से।
शीतलता फैली है पग-पग नदी किनारे ठांवों में।।
गांऐं लौट रही जंगल से, बछड़ों की ले यादों में।
चूल्हों से उठ रहे धुआं जो, रोटी के संवादों में।
पनिहारी कुअला से लौटीं, पायलिया के नांदों में।।
मोहन की बजती है वंशी, आमों की अंबराई से।
कोयलिया, पपीहा की सरगम, लगे सुहानी खाई से।
मल्हा गीत अलाप रहे हैं, बैठ आपनी नावों में।।
शंखघोर संग घण्टे बजते, मंदिर की अंगनाई से।
मनमस्ती संग, मिल रहे बालक हंस हंस अपनी ताई से।
गई भोर से लकड़ी बीनन, छाले पड़ गए पांवों में।।
मेरा भारत बसा हुआ है, गांवों की मनुहारों में।
मिलत यहां मानवता हंसती, हर दहरी और द्वारों में।
सच्चा – सा बैकुण्ठ यहां है, फूंस झोंपड़ी छांवों में।।