गांव की तलाश - 5 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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गांव की तलाश - 5

गांव की तलाश 5

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

- समर्पण –

अपनी मातृ-भू के,

प्‍यारे-प्‍यारे गांवों को,

प्‍यार करने वाले,

सुधी चिंतकों के,

कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

-दो शब्‍द-

जीवन को स्‍वस्‍थ्‍य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्‍थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्‍त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्‍थली श्रमिक और अन्‍नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्‍य देखने का प्रयास करें। इन्‍हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।

वेदराम प्रजापति - मनमस्‍त -

25- हज हमारे गांव –

खुदा से कर रहे मिन्‍नत, तुम्‍हें वो हज मुबारक हो।

यह जीवन धन्‍य हो जाए, सुहाना- हीर हारक हो।।

तमन्‍ना हमनफस तुमसे, बनो खुर्शीद अम्‍बर के।

शबे-महताब जीवन हो, विजयी युग स्‍वयंबर के।

यही पैगाम है रब का, फलक में गांव ही जननत।

इबादत घर है आलम का, बने हज, जिंदगी उन्‍नत।

होय दीदार जहां रब का, तुम्‍हें वह हज मुबारक हो।।

दुआएं हम सभी की है, मुबारक हो, बसर तुमको।

तमन्‍ना है यही, महफिल, कुब्‍बत दे, खुदा सबको।

रहो आगोश में उसके, अजमते रूह, बन जाओ।

सदां मशगूल हो जीवन, फलक के नूर, कहलाओ।

बनो जहां नूर के हमदम, तुम्‍हें वह हज मुबारक हो।।

बना ले – धन्‍य यह जीवन, यही दस्‍तूर है उसका।

नहीं कम जर्फ होना है, फकत ऐलान है उसका।

कहां दुश्‍वार है कुछ भी खुदा का प्‍यार है हज में।

बुलाते गांव- हज बन कर, करो दीदार जा हज में।

पावन भूमि हो जहां की, तुम्‍हें वह हज मुबारक हो।।

जहां हो न्‍याय की धरती, स्‍वस्‍थ्‍य इंसाफ का मंजर।

चैन और अमन का जीवन, नहीं अन्‍याय का खंजर।

बहारों से भरा मौसम, मानवी जहां अमानत हो,

खुदा की , दिव्‍य वाणी का, जहां बहता समंदर हो।

जहां मनमस्‍त हो जीवन, तुम्‍हें वह हज मुबारक हो।।

26- बहुत कुछ सहते रहे -

बहुत कुछ सहते रहे, अब नहीं सहेंगे।

जो अभी तक नहीं कहा, बह सब कहैंगे।

जो चलो तुम चाल, हम सब, जानते हैं।

मान और अपमान को, पहिचानते हैं।

हम करैं मेहनत, तिजोरी आप भ्‍रते।

और हमको मूर्ख कहकर, जुर्म करते।

बहुत कुछ बहते रहे, अब नहीं बहैंगे।।

खेल तुम समझे हमारी जिंदगी को।

अहं से तौला, हमारी बंदगी को।

बन सके, तुम आदमी नहीं आज तक भी।

यह बता देना हमें, कुछ सोच कर भी।

यदि नहीं, अंगार-सोलों तुम दहोगे।।

ढेर सारी जिंदगी हम यौं बिताई।

हाथ धर दो जून भी रोटीन खाई।

कर रहे बेजोड़ मेहनत, खून का करके, पसीना।

पशु से बदतर कहाते, यह भला, जीना भी जीना।

जिस तरह तुम चाहते, हम नहीं रहेंगे।।

पौध सारी रौंदकर, बगिया उजाड़ी।

जो किया तुमने, नहीं करना अगाड़ी।

यदि संभलना है समय अब भी है प्‍यारे।

है विपल्‍वी नांद यह, समझो इसारे।

नहीं तो फिर क्‍या करैं, करकैं रहेंगे।।

27- सावधान होना ही होगा -

वातानुकूलित कक्षों भीतर, तप्‍त दोपहरी बात।

गांव-धूल के, गंवारों से, क्षदमावेशी, घात।

जटिल कहानी है भूंखों की, कोई नहीं कहता।

दूर-दूर मत पूंछो, उनसे ईश्‍वर भी रहता।।

आज समस्‍याओं में उलझे, इतने छुब्‍ध हुए।

अन्‍तस्‍थल में उठ, प्रश्‍नों ने इतने अधिक छुए।

दुख के मग में, परम्‍पराएं, सम्‍मुख आज खड़ी।

युग को दोष लगाते सब ही, इतनी बात बढ़ी।।

सब कुछ देख रहे हो तुम भी, फिर क्‍यों मौन खड़े।

अब तक तुमने कितने पहाड़े दुख के नहीं पढ़े।

सावधान होना ही होगा, धरती दरक रही।

चुप्‍पी साध, रहोगे कब तक, कहदो बात सही।।

तुम से आस लगाए बैठे, अरू तुम दूर खड़े।

इस धरती की कुछ तो सुनलो, जिद पर काहे अड़े।

भूल और सच्‍चाई यहां पर, क्‍यों कर टकरातीं।

उलटे पहाड़े क्‍यों पढ़ डाले, जन गण यह गाती।।

गांव-गांव और गली गली में, चर्चा यही रही।

सूखे पेड़ बरस रही आगी, छाया झुलस रही।

उस कुअला का घाट कह रहा, सब बूढ़ी कहानी।

गांवों की खुशहाली मिलती, नानी की कहानी।।

28- ओ शब्‍द साधको -

स्‍वर्ण मृगा की खातिर में, बह धनुष उठाए कौन दौड़ता।

तुलसी, नीम छीनकर हमसे, डंकल-अंकल कौन रोपता।

धुआंधार लंका सी जलती, किस बानर ने, आग लगाई।

कहां चले गए, पीपल, बरगद, यूकोलिप्‍टस बना जमाई।।

अस्‍मत का व्‍यापारी बोलो। अन्‍न, भूंख का भाव करेगा।

काव्‍य सृजन को, जो नहिं जाना, समालोचना क्‍या करेगा।

कुण्‍ठाओं से कुंठित जीवन, घृणित नग्‍नता की चाहत में।

फिर भी परदा, कैसा पर्दा जीवन गुजरा हो, आहत में।।

किसको नहीं खटकते होंगे, छली व्‍यवस्‍था के आडम्‍बर।

फिर भी मौन साधना कैसी,? जब कि, कांप रहा है अंबर।

ओ भाषा विद शब्‍द साधको। कैसा चिंतन जगा रहे हो।

खुशामदी वाली भाषा में जी हुजूरता लजा रहे हो।।

यह परिपाटी, आज बदल दो, विषम परिस्थिति आगे ठाड़ी।

कैसा-कितना नगन नृत्‍य यह, तड़फ रही है, जीवन गाड़ी।

ऐसा कुछ भी तो कर डालो, जीवन को जीवन, रहने दो।

वातानुकूलित क्‍यों बन, बैठे सच्‍चाई को तो, कहने दो।।

तुमसे ज्‍यादां अच्‍छे हैं, गांवों के वे सच्‍चे अनपढ़।

छली प्रबंचना नहीं जानते, देवालय के कंगूरे, मढ़।

बने व्‍यर्थ क्‍यों शब्‍द सारथी, अब भी जागो और जगाओ।

अगर सीखना है यह सब कुछ, गांवों की धरती अपनाओ।।

29- रोटी चांद उन्‍हें हैं लगता -

शून्‍य हुआ अब कुंज विहारण, यमुनातट पर, राशन होता।

पीड़ा ग्रस्‍त कहीं पर राधा, कृष्‍ण निराशाओं में रोता।

खेल आज भी ऐसे खिलते, तुमने भी शायद देखा हो।

भैसों की अंधड़ कुलेल में, बुधना का, कुचलन देखा हो।।

क्‍या देखते हो कनखीभर, रंगशाला, मधुगोष्टि नहीं है।

उदर पूर्ति को लगी पंक्ति यह, जीवन पथ, उच्‍चेष्‍ठ नहीं है।

मोबाइल, टीबी, टेलीफोन, विरह वेदना आराधक नहीं।

शब्‍द नहीं अभिव्‍यक्ति देते, होता भयावाह जीवन कहीं।।

सुन्‍दरता का अनुपम साधन, तुम को चांद भले हो लगता।

बुझता चूल्‍हा आग पेट में, रोटी चांद, उन्हें है लगता।।

चोरों के आने पर खांसो न, चुप रहना कायरता होगी।

करो जागरण, अब भी चिंतक, नहिं तो, यहां, मानवता रोगी।

मानवता की खातिर, तुमको, पुन.: गांव गलियों में जाना।

बिछा हुआ है आज वहां पर, सत्‍य अहिंसा ताना बाना।।

भूंखा नहीं कोई सोता है, हिलमिल पेट सभी भरते हैं।।

गांवों की धूलें हैं चन्‍दन, मस्‍तक को शीतल करते हैं।।

30 जाओगी मेरे गांव

- आज तुम्‍हारी अमर स्‍मृति, सुख देती और राह जगाती।

दुखड़ों के कर टुकड़े-टुकड़े, रात-रात भर, रात जगाती।।

छाया पथ रूपी पत्‍थर पर कौन टे रहा, तलवारों को।

लगा डराने की कोशिश है, भूल-सुनो इन ललकारों को।।

चैन नहीं, उद्विग्‍न बनाती, कोई कामना, दिवस-रात भर।

किन्‍तु अनूठी उम्‍मेंदें ही, देत सांत्‍वना, शीश उठाकर।

लिए भरोसों की उम्‍मीदें, जागे, रात-रात भर हम भी।

उन तारों में कहां छुपी हो, भेजे मन के मेघदूत भी।।

सांय-सांय करती आती हैं, चहू तरफ से, शून्‍य आहटें।

रात-रात भर, रहीं हिलातीं, हृदय कटोरा-पूर्ति, चाहते।

भिंगो दिया है जिसने आंचल आंखों की बहती धारा से।

पूंछ न पाया, नहीं कह सका, कौन निकल पाया, कारा से।।

चाह तुम्‍हारी सदां सदां से, कभी दूर, नजदीक खेलती

स्‍वप्‍न टेंहनी की फुनगनियां झूम-झूम कर राह ठेलतीं।

अन्‍दर की मधुमती वेदना, स्‍वयं आप हो, नहीं जानता।

जीवन की परिभाषा तुम हो। मन मेरा मनमस्‍त मानता।।

आशाओं के दीप जला कर, डगर गांव की पर मैं बैठा।

शर्दी गर्मी या वर्षा हो, बांध खड़ा हूं, शिर पर फैंटा।

लगता है तुम इसी डगर से, मेरे गांव अवश्‍य जाओगी।

जीवन में, जीवन बरसाते, वे ही गीत – पुन: गाओगी।।

31- प्रदूषण -

साहस कर कुछ कहो, और कुछ सुनलो भाई।

औरों की बातों ने, कब क्‍या बात बनाई।

बार-बार क्‍यों, उस अतीत को कोंच रहे हो।

अरे बे सुधो क्‍यों न, आज पर सोच रहे हो।।

मर्मान्‍तक पीड़ा है बेटी चुप होकर सहना पड़ता।

शास्‍त्र नहीं उपचार हमेशा, फिर भी कुछ कहना पड़ता।

पर्यावरण प्रदूषित, दूषित यमुना तट भी।

सारी जगह निरापद, शापित वह पनघट भी।।

अशुभ लक्षणों का, राजा सिर सींग उगा है।

असंसदीय बचनों पर भी कौन जगा है।।

व्‍याकरण रहा रोय, शब्‍द संधारण हारा।

अटपट ऊल-जुलूल विधा की अंघी कारा।।

संस्‍कृति का रूप-हो गया, यहां दुरारचरण।

कोई लज्‍या नहीं, विगुल बजता ना कारा।।

आयु का नहिं ध्‍यान, कौन, किससे क्‍या कहता।

इतना रंग विहीन आज का दरिया बहता।।

क्‍या भविष्‍य का हाल, कभी सोचा क्‍या भाई।

किधर सभ्‍यता द्वार, दशा विपरीत दिखाई।।

सब बाजार हो गया, नहीं यहां, न्‍याय मिलेगा।

आओ मेरे गांव, सुभूषण वस्‍त्र सिलेगा।।