गांव की तलाश - 1 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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गांव की तलाश - 1

गांव की तलाश 1

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

- समर्पण –

अपनी मातृ-भू के,

प्‍यारे-प्‍यारे गांवों को,

प्‍यार करने वाले,

सुधी चिंतकों के,

कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

-दो शब्‍द-

जीवन को स्‍वस्‍थ्‍य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्‍थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्‍त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्‍थली श्रमिक और अन्‍नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्‍य देखने का प्रयास करें। इन्‍हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।

वेदराम प्रजापति - मनमस्‍त -

1- शारदे । गांवों में आओ-

जन-जन मनके, जन-जीवन के, मानस में छाओ।

छोड़ शाह दरबार, शारदे। गांवों में आओ।।

हम गांवों के निपट – अनाड़ी पूजा कम जानें।

पर इतना कह सकें शारदे। तुमको ही, मानें।

तुम हो मइया, हम तब छइया, गोदी बैठाओ।

और हृदय में शाज-सजाकर, बीणा पर गाओ।

हंस-वाहिनी। वीणा वादिनी ।। हमको अपनाओ।।

छोड़ -------------------------- गांवों में आओ ।।

यहां चमेली अरू गुलाब के, पुष्‍प नहीं मइया।

आक, ढाक अरू सिरस, करौंदा, नन्‍दन, किनकउआ।

हृदय-हार मोती, मूंगा के, यहां नहीं पाओ।

घुंघचीं और नदी के शंकुल, पहनो, हरषाओ।

गो रोचन, रोरी नहीं, बिन्‍दी गेरूई की पाओ।।

छोड़ ---------------------- शारदे गांवों में आओ।।

हंस नहीं- बतखों पर, मानस नहीं – तालाबों में।

रेशम त्‍याग, बनैली साड़ी, पहनो गांवों में।

पावन मनके, धूल-धूसरित, बालक अपनाओ।

वाणी करो विमल, अब वाणी, वाणी आजाओ।

युग होगा मनमस्‍त, हमारे गांवों में छाओ।

छोड़ ---------------------- शारदे गांवों में आओ।।

2- आओ मेरे गांव -

आओ मेरे गांव, जो भारत के पांव।

जहां करीलों और बबूलों की भी, शीतल छांव।।

आओ मेरे गांव

आवन में, पावन पांवों का, कंकड़ स्‍वागत करते।

बिछे हुए, मग में कुश-कंटक, सुमन-पांवड़े धरते।

धूल भरी-गलियां मुस्‍काती, जैसे सुमन खिले हों।

चरण-कमल से यौं लिपटत, ज्‍यौं बरसों बाद मिले हों।

झरबेरी-झुक-झूम-झूम कर, सबको करत प्रणाम ।।

आओ मेरे गांव

प्‍यारी गांवों की चौपालें, मानव – मन हरसातीं।

हुक्‍का मनसबदार, चिलम जहां- स्‍वागत की परभाती।

और राग जहां- रमा हुआ हो, आल्‍हा, ढोला जानो।

रामायण की राम कथाएं, मानो, चाह न मानो।

बैठे वृद्ध, बने ज्‍यौं साधू, रटते हैं हरि नाम।।

आओ मेरे गांव

भौंदू दद्दा ओर कुढ़ेरा, किरपा, तुलुआ जानो।

रट्टू और तीतुरा, हल्‍के, सट्टू फैली मानो।

चिनुआं, चौखरिया अरू कसिया, कलुआ, पलुआ प्‍यारे।

गीत, गा रहे हरी, बसन्‍ती झगड़ू के रंग न्‍यारे।

फैंट मार कर बांध सुआफा, भत्‍तू के ये काम।।

आओ मेरे गांव

रमदीना ने सुलफा धरलई, रतुआ ने सुलगाई।

भज्‍जू, भूरा और भरोसा, बैठे आस लगाई।

कमलू, मुन्‍ना, सुन्‍ना डोलें, सुत्‍ती, सुरत लगावें।

भग्‍गू, भूरा और भगुन्‍ता, भजना, मजा उड़ावैं।

करैं परिश्रम सच्‍चे मन से, लिए भरोसा राम।।

आओ मेरे गांव

हर द्वारे पर, धूल-धूसरित, बालक खेल, खेलते।

वर्षा, सर्दी अरू गर्मी को, नंगे खड़े झेलते।।

पर चेहरे पर नांच रही हो, जीवन लाली, लाली।

स्‍वागत में, हर समय बसन्‍ती बहती हो मतवाली।

कर्म शील-जीवन है गीता, नहीं चाहत है नाम।।

आओ मेरे गांव

3- सचमुच यह भगवान -

देखो। सुघर किसान, सचमुच यही भगवान।

घनी दोपहरी में भी गाता, जीवन-दायी गान।।

भोला भाला रूप है इसका, भोली-भाली बानी।

सब कुछ जानत है, जीवन को, फिर भी है अज्ञानी।

घनी निशा में ताराओं को पढ़कर, समय बताता।

दिन में भी सूरज को नापत, ठीक समय का ज्ञाता।

जिसकी आतम में, घडि़यों की घडि़यों का अनुमान।।

हरक्षण पर ही, प्रकृति परीक्षा, लेने यहां खड़ी है।

कदम न पीछे, ऐसी गीता, इसने यहां पढ़ी है।

स्‍वप्‍न अवस्‍था में भी, जिसका मन, खेतों पर देखे।

करता है, वो ही है कर्ता कर्तव्‍य जीवन लेखे।

वह पहले ही जग जाता है जग नहीं पाता भानु।।

सदां सनां है मिट्टी में ही, खेत बिछौना जाने।

मिट्टी की सारी है दुनियां, पावन मिट्टी माने।

जीवन के प्रश्‍नों को सच में, हल से हल करता हो।

सत्‍यापन करके खुशियों से, जीवन को भरता हो।

शिर पर बंधा अंगौछा, जिस पर न्‍यौछावर भगवान।।

सर्दी, गर्मी अरू वर्षा को, जिसने हंसकर झेला।

जाड़ों की रातों में, गाती मारे, पानी मेला।

वृष के सूरज ने, आतय से, दुनिया को झुलसाया।

किन्‍तु कृषक के जीवन पथ को, रोक कभी नहीं पाया।

देख-देख, हरियाली हर्षित, हंसते गाता गान।।

बड़ी दयालू धरती मइया, महिमा तेरी जानी।

दाने मिट्टी में खोए थे, वापिस किए भवानी।

कितना छोटा बीज कि, जिसमें वट-सा वृक्ष समाया।

एक बीज से, सहस्‍त्र बीज गए, आज समझ में पाया।

तुम तो, सच में रचनागर हो, मैं जो था, अज्ञान।।

हर्षाती सी, आज दिख रही, इस धरती की काया।

यह है सच्‍चा जीवन, जिससे-जीवन जीवन पाया।

खलिहानों में भरा हुआ है, जीवन का गिरिराज।

कैसे भुला सकेंगे साथी, जीवन का यह नाज।

हो मनमस्‍त, बांटता सबको, धन-धन तुझे किसान।।

इतने सच्‍चे जीवन को लख प्रकृति परीक्षा हारी।

चलता रहा, अडि़ग जीवन भर, कभी न हिम्‍मत हारी।

यह है पथिक कि जिसके श्रम से, पथ छोटा हो जाता।

जिसके जीवन गीत हमेशां, सारा जग ही गाता।

ईश्‍वर- भी, जिस पर न्‍यौछावर, धरती का भगवान।।

4- जीवन परिभाषा -

जीवन की परिभाषा कितनी बदल गई है, चिंतन किया हमें बतलाओ।

अगर नहीं तो प्रश्‍न खड़ा है सबके आगे हल खोजो, हमको समझाओ।।

कोयल- आज करील कुंज में, फूक रही क्‍यों।

अहा। बबूलों की छाया, क्‍यों जीवन सोया।।

अजब-लुटेरों की बस्‍ती में, जन-जीवन ने,

विमल जिंदगी का, सारा संचित धन खोया।

भूंखों पेट, जिंदगी ने जीवन सीखा है।

कितनी स्‍वांसें और, गिनो, गिन कर बतलाओ।।

बुनियादी जीवन पत्‍थर मंजिल के क्‍या कहते हैं।

कभी सुनी मानव ने, उनकी करूण कहानी।

कौन कहे उन पर कैसे, क्‍यों घास उगी है,

कब-कितना बरसा उनकी आंखों से, जीवन पानी ।

साहस बांधो। समय गवाना ठीक न होगा।

बोलो- खुद को, कितने दिन अब और छुपाओ।।

धरती का मासूम कलेबर दरक रहा है।

प्‍यारे उपवन, सूख रहे हैं, सूने-सूने।।

फलदायक पौधों की जड़ को, दीमक चाटें।

कंटकदाई पौधे, बढ़ रहे दूने-दूने।

इतना क्‍यों विपरीत हो गया प्‍यारा मौसम,

इसे बदलने के कुछ तो अनुमान लगाओ।।

श्‍वेत पोश –ऊसर काया, बन रही धरा

जिससे – आशा के पौधे, अब नहीं निकलते।

करलो कुछ उपचार, धरा को स्‍वर्ग बनाने,

संक्रामक रोगों के, सागर यहां मचलते।

सच मानो। विपल्‍व के बादल मंडराते हैं,

अब भी जागो और सभी को, यहां जगाओ।।

विषम वादियों की, संख्‍या बढ़ती जाती है,

अनचाहे जालों के जालें, उलझ गए हैं।

हर क्षण पर, टकराव खड़ा अंगड़ायीं लेता,

चिंतक भी बे-समय, होश तज, सोय गए हैं।

कैसे चलै जिंदगी की यह जीवन गाड़ी,

हर क्षण पर, गड़बड़ घोटाले सुनते जाओ।।

5- आई पाती -

वे झरने सूखे हैं, जो कि – सदां रहे झरते।

यह मौसमी गुहार, आप से आज सभी करते।।

दर्दों की दरियाप्‍त, आप बिन, कौन कहां करते।

आई पाती श्रीमन पढ़लो। गांवों के घर ते।

असहनीय दर्दों को सहते, लोग यहां जीते।

उपवासों के गांव, घुटन के घूंट रहे पीते।

निर्भर, नदियों की धाराऐं टूटीं कभी नहीं।

बैठ रेत पर लहरें लिखतीं पाती निज करते।

पानी दार, हुई बे-पानी, यह बंजर धरती।

आवरणों के बांध, बंध रहे, पर प्‍यासी-मरती।

बे पानी सी देख, धूप की नई-नई चालें।

फरियादें सी, आज कर रही, यह प्‍यारी धरती।।

कितनी तपन सही धरती ने, आप तरस खाओ।

यही आस, पाती भेजी है, आप बरस जाओ।

देख रहे हैं, आसमान को, नदियों के जाले-

यही आस लेकर बैठे हैं, जरा समझ जाओ।।

श्रीमान, स्‍वीकार करो। अब इसका अभिनंदन।

धूल भरे गलियारे करते, श्रीमन का वंदन।

विटप डोलते, झूम-झूम कर, स्‍वागत की भाषा-

मन सुमनो के सुमन हार से, सहस्‍त्रों अभिनंदन।।

आस तुम्‍हारी लिए, यहां पर, जन-जीवन जीता।

फटी हुई गुदड़ी को, अनमन-कब से है, सींता।।

आशा खड़ी हुयी कर जोरे, विनती ही, करते-

कब-मनमस्‍त बनेगी धरती, आश प्‍यास पीता।।

6- प्‍यारे गांव -

गांव हमारे, कितने प्‍यारे, चलते अपने पांव ।

हो जाता न्‍यौछावर यहां पर, वह बैकुण्‍ठी धाम।।

जहां घडि़याल पहर पर बोले धौरा मधुरी वाणी।

सूर्य आगमन के स्‍वागत में, मुर्गा कहत कहानी।

चिडि़यां जगा रहीं पेड़ों को, फड़फड़ पंख हिलातीं-

चाकिन पर, ललनाएं मधुरे-जीवन गीत सुनातीं।

यहां प्रकृति मनमस्‍त सौम्‍य गति, चलती अपने पांव।।

कृषक सूर्य उगने से पहले, पहुंच खेत पर जावैं।

बैलों को पुचकार, प्‍यार दे, इस विधि से समुझावैं।

मेरे भइया आज जोतनों, इस बंधिया के लाने-

परसों मावस है, जाई से, कालईं बीज बुवानैं।

ऐसे जुट जाओ मिलकर के, बन जाएं सब काम।।

धन्‍य प्रभू। यह फसल उगाई, जैसें खिली जुन्‍हाई।

अवनी-साज, अबनि पर आई, चूनरि-हरित सुहाई।

जिस पर मोती-ओस विन्‍दु के, जगमग-जगमग होती-

अहा प्रभाती उन मोतिन के हार मनोरम पौवै।

अर्ध्‍य सूर्यको अर्पित करके, पाती मन: विश्राम।।

फसल कहैं या अवनि हृदय की, पुलक रही है छाई।

जहां कृषक की बाला हंस-हंस, चिडि़या रही भगाई।

सिर पर धार मटुकिया गृहणी, हाथ कलेवा-धारे।

जीवन द्रव्‍य, अधर, उर झलके, नयना हौं- कजरारे।

घूम-घुमारौ लहंगा-मोहनि, चूनरि नाचत काम।।