गांव की तलाश - 3 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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गांव की तलाश - 3

गांव की तलाश 3

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

- समर्पण –

अपनी मातृ-भू के,

प्‍यारे-प्‍यारे गांवों को,

प्‍यार करने वाले,

सुधी चिंतकों के,

कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

-दो शब्‍द-

जीवन को स्‍वस्‍थ्‍य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्‍थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्‍त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्‍थली श्रमिक और अन्‍नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्‍य देखने का प्रयास करें। इन्‍हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।

वेदराम प्रजापति - मनमस्‍त -

12- पथ का लक्ष्‍य -

मीलों लम्‍बा मेरा रस्‍ता, नहीं भटका हूं, निर्जन वन में

मुझे लक्ष्‍य तक जाना साथी, हार-जीत नहीं सोची मन में।।

आशाओं के तार पुरे हैं, कहीं निराशा जगह न पाती।

उन्‍नत चोटी की धरती पर, मैंने बांची निरभ्‍य पाती।।

नहीं अंधेरे मग टकराए जल का प्‍लावन था, हर घन में।।

हाथों में थी विमल रोशनी ज्‍वलत दीप थे सूरज चंदा।

चीर दिया था, तम का सीना, नहीं फसा मैं, जग के फंदा।।

झंझाऐं नहीं रोक सकेंगी, अंगद पैर, जमे है मग में।।

विजय चूमती मेरे पग को, अडि़ग पगों से, छोटा भा मग।

नहीं बुझी लौ, उम्‍मीदों की, उम्‍मीदों से है सारा जग।

रस्‍ता, अपने आप बन गया, देरी लगी नहीं, एक क्षण में।।

नाम जिंदगी का जानो अब, बदलावों का भरा समंदर।

नहीं रोक पाएंगे मुझको, कितनेऊ गहरे, खाई खन्‍दर।

भटका वही, जो चला नहीं है, चाह लक्ष्‍य की, साथी मन में।।।

13- शैहत के केन्‍द्र गांव –

मेहनत के सब साज, अखाड़ा यहां मेहनत का।

कहां कुपोषण रोग, केन्‍द्र यह है शैहत का ।

छोटे- मोटे रोग, गांव तो जान न पाते।

कब आते हैं, और कबै वापिस हो जाते।

सब कुछ देखत गांव, दूर दृष्टि है उसकी।

फिर भी है अंजान, प्‍यार की अनुपम बस्‍ती।।

पूत पालने पांव, देख लेता है भाई।

और कौंख में पली बात नहिं छुपै – छुपाई।

दीवालों के पार उसी ने सब कुछ जाना।

लगे लंगोटी दाग, सिकन को भी पहिचाना।

आंखें, भौंह मिशाल, पांव की ठुमका ठुमकी।

जानत-शास्‍त्रीय अर्थ, वे बिंदिया कैसे चमकी।।

सडक नहीं तब राह बना, मेहनत बोता था।

अब कितना बेचैन, चैन से जो सोता था।

सड़क शहर से आय, गांव को खींच रही है।

खिंचत दिखे हैं गांव, बात अनकही, कही है।

चलन, सभ्‍यता आदि, बदलती दिखी गांव की।

पहुंच गया बाजार, बिक गई छांव, गांव की।।

सब कुछ बिकते दिखा, गांव ही, हाट हो गया।

बदल गया ब्‍यौहार, सही में भाट हो गया।

बिछे सड़क के जाल, गांव की अजब कहानी।

सुख का वह संसार, हो गया – पानी –पानी।

समझ नहीं कोउ सके, बदल दी चाल हमारी।

बिन कीमत हो गए, उधड़ रही खाल हमारी।।

पटवारी के साथ, शहर गांवों में आया।

लिए दरोगा संग, शहर ने रौब जमाया।

रिश्‍वत, लालच-जाल, जाल में फंस गया गांव।

चले समेटते शहर ओर, अपने सब सांमां।

चुस रहे जौंक संमान, पुलिस हो या अधिकारी।

रांधी मेहनत खीर, चर गए सब – सरकारी ।।

सब्‍जी, दूध, अनाज, पसीना, शहर चला है।

लोभ – सुरा का रोग, गांव में आज पला है।

पुडि़या बो रही जहर, सिगरेट, यहां मौत को।

जानबूझ कैं मरबैं, इन्‍हें समुझाय, बहुत को।

भोले-भाले गांव, जहां जीवन था – भोला।

शहरों की खा हवा, बदल लओ, अपना चोला।।

14- गांव देश पहिचान -

मैड़े का वट- पीपल, म्‍हांरे गांवों की पहिचान।

स्‍वागत में फैलाकर बांहैं, करता है सम्‍मान।।

आओ साजन, बैठ छांव में कुछ क्षण तो सुस्‍ता लो।।

कुअला पानी पियो प्रेम से, कुछ तो समय बितालो।

इसी शैर से चलते जाना, यही गांव की शान।।

गांव, देश पहिचान।।

मंदिर ऊपर, सुघर-सुराही बह है मेरा गांव।

झण्‍डा बुला रहा फहराकर, चलो – अपन पौ – पांव।।

मंदिर घाट, सरित के तीरे, सीढिन सरित नहाय।

घने वृक्ष लूमत तट प्‍यारे, पंचवटी – सी छांव।

शीतल जल से, सरित भरी जो गाती निर्झर तान।

गांव, देश पहिचान।।

ताल वृक्ष वे, खरी जुन्‍हैया, में भी, मार्ग बताते।

भटक नहीं पाओगे साथी, हौलें से, बतियाते।

पत्थर कोल्‍हू खड़ा तिराहा, पहाड़ी करके, जाओ।

पहुंच जाओगे, अपने ही घर, मंदिर घंटा गाते।

चौपालों पर बैठे होंगे, कोई वृद्ध – सुजान।।

गांव देश पहिचान।।

गढ़ी दिख रही उस पहाड़ी पर, वह है गांव हमार।

उच्‍च सुराही है वाड़े की पीपल ठाड़ा न्‍यारा।

ऐसी कई एक पहिचानें , गांव गांव में पाओ।

शहरों की भटकन से बचलो, यह मनमस्‍ती नारा।

जरा आओ तो । देश के गांवनें, बनो गांव मेहमान।।

गांव देश की शान।।

15- आदिम युग की झलक-गांव -

उलझत – सुलझत सब रहते जहां सगुन जाल में।

जहां छींक के, अधिक भाव में, रमण काल में।

बिल्‍ली काटत गैल, मिलै बिध्‍वा जो अकेली।

सांप दर्श कहीं होय, राह मिलै कान्‍हा, जेली।

ज्‍योतिष तांत्रिक ठगा, यहां अनभिज्ञ गांव है।

अपशगुनों की विषम बाढ़ में पला गांव है।।

आदिम युग को लिए, गांव फिरता है फूला।

वर्तमान की छांव, अभी तक, वह नहीं भूला।

जहां इन्द्रियां शुद्ध शुद्ध सब, गांव जानता।

अलख चरित्री खेल, उसे बह नहीं मानता।

पंचों का जो न्‍याय, मानता ईश्‍वर लीला।

जीवन जीता रहा, बंधा ऐसे दृढ़ कीला।।

धर्म, जाति का दम्‍भ्‍, संस्‍कृति मान रहा है।

परबस कितना हुआ, सभी कुछ जान रहा है।

युग का क्‍या परिवेश, उसे वह नहीं जानता।

जो कुछ मिल जाए हाल, उसे उपलब्धि मानता।

शिक्षालय है गांव, सीख उससे कुछ ले लो।

और अधिक शुभ ज्ञान, बैठ चौपालें बयलो।।

गहरा सेवा भाव, शहर से अधिक गांव में।

हंसकर सब ही मिलै, बैठकर नींम छांव में।

समता का व्‍यवहार, चलन में अपना बैठा।

सच्‍चे मन से जियत, चलाता अपना रैंटा।

हिलमिल करता प्रीति, सुखों का जहां बसेरा।

लगता है जन मीत, राम राज्‍यी-सा डेरा।।

16- है नमन ग्राम रज -

है नमन – है नमन, ग्राम्‍य रज – रेत को,

जिससे प्‍यारा, दुलारा, ये जीवन बना।

उसके प्‍यारों को मनमस्‍त,, भूला नहीं।

नेह, स्‍नेह पाया, घना सा घना।।

शूल-भी, फूल से बनके प्‍यारे लगे,

जिसकी माटी ने, इस तन को शक्ति दई।

जिन्‍दगी की बहारौं को मौसम दिया,

खुशनुमा –सी, इस जीवन की राहैं भईं।

उन ही राहों पर, चलते रहे हम सदां,

राहगीरों सफर – सा, सुहाना बना।।

चांदनी रात में, खेल खेल कई,

रोशनी के सुहाने सफर को जिया।

गुलशनों की बहारैं मिलीं हर कहीं,

गीत, गाते अजाने ही, जीवन जिया।

राह, हंसते सितारों से नजरें मिलीं,

चांद से भी, घना दोस्‍ताना बना।।

सारीं खुशियों का, वो ही खजाना रहा,

मोद, आमोद के स्‍वप्‍न साजे सभी।

सुख पाया घना-सा तेरी गोद में,

याद सब कुछ है अब तक, न भूला कभी।

बहुत ऐहसान तेरे हैं मुझ पर, वतन,

होता बलिहार, स्‍नेह तुझसे घना।।

17- प्रेम की धरती गांव -

सच में गांव प्रमाण गांव की भाषा बोलत।

कितने हल्‍के शहर, तराजू पर, सब तौलत।

इतने भावुक राम, बेर शबरी के खाए।

सच्‍चा प्रेम निर्वाह, बिदुर घर, कृष्‍ण अघाए।

पारलोक- सा धाम, गांव है, गांव सरीखा।

उपमा में, बे-जोड़ करो चाहे, लाख परीक्षा।।

रच-पच मन में बसा, गांव का प्‍यारा जीवन।

अपने घर में बैठ, सीं रहा, उधड़ी-सींवन।

शुद्ध हवा, जलधार, गांव में ही मिल पाती।

बिना रोग के यहां, रबी की किरणें आतीं।

सब कुछ सह कर जिएं, गांव के भोले वासी।

मान, पान, अभिमान, त्‍याग, बन गए, सुख राशि।।

शुद्ध संस्‍कृति जहां, घूमती है गलियारे।

मिलत प्रकाशित यहां, द्वीप दीपक उजियारे।

शहरों में भर गई, नशीली-नफरत लीला।

गांव इन्‍हीं से दूर, जियत- जीवन, कर गीला।

नहीं देखे जिन गांव, लगै सब, झीना झीना।

अधिक समझना अगर, गांव में आकर, जी ना।।

अक्‍सर भटका मिला शहर में नव पीढ़ी नर।

अपनी गलती आप-कोशता है, जीवन भर।

सुनकर भी नहीं सुने, बुजुर्गों की, सत वाणी।

नहीं सुनने की चाह, क्‍या उपदेश कहानी।

भाग दौड़ इतनी कि, बचपन बीत गया कब।

आता है जब होश, बहुत पछताता है तब।।

18- प्रकृति प्रेयसी -

प्रकृति प्रेयसी आन खड़ी है, इस बसंत के द्वार।

रंग-बिरंगे, कुशुम दलों, का पहनाने मृदु हार।।

अरमानों की अमित गंध ने, डाला यहां बसेरा।

नव-ऊषा, मुस्‍कान लिए ही, आया यहां सवेरा।

हंस-मुस्‍कातीं चलीं तारिका, रून-झुन गीत सुनातीं।

चिडि़यों के कलख से भागा, मानो यहां अंधेरा।

सुमन-सुअर्पण हंसते कर रही, ज्‍यौं उपहार, बहार।।

कितनी मधुर लग रही देखो, कलियों की अरूणाई।

नई कौयलों ने अंगड़ाकर लई नई अंगड़ाई।

दृग कोरौं में, दिग-दिगन्‍त है, स्मित हॉस, नया सा-

सोहैं गेशू घन-बादल से, अंगड़ाती, अंगड़ाई।

देह-यष्टि की अनुपम झांकी पर बलि है, स्‍मार।।

गलियन उड़त पराग मनोरम, भ्रमर नृतय अलबेला।

आम्र मंजरी, डोलि बुकाती, दे-दे करके हेला।

गूंज रही कोयलिया सरगम, अंग अनंग, अनंग-

बौराईं-सी दसौं-दिशा भईं जिसे नियति हंस, झेला।

डम-डम डमरू बजा, खड़े शिव, तांडव-नृत्‍य-विहार।।

धरा-गगन आश्‍चर्य भरे हैं, ऋषियन खुल गई तारी।

मरियादाएं छोड़ चल पड़े, अग जग जंगम सारी।

सृष्टि प्रलय क्‍या। चिंतित ब्रम्‍हा चतुर मुखों से झांका।

धन्‍य-धन्‍य हो। ऋतुराज तुम यौं, कह, ब्रम्‍हा पुकारी।

ततक्षण सब मनमस्‍त हो गया, मरियादित संसार।।