दावत-अदावत (व्यंग्य ) Alok Mishra द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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दावत-अदावत (व्यंग्य )

दावत-अदावत (व्यंग्य )
दावत शब्द सुनते ही लज़ीज पकवानों के की महक से मुंह में पानी आना स्वाभाविक ही है । शादी - ब्याह हो , जन्म दिवस या कोई और ही दिवस बिना दावत के सब अधूरा ही रहता है । दावत न हो तो उत्सवों की रौनक ही अधूरी रहती है । आप और हम भी किसी अवसर की सफलता और असफलता को स्वाद के पैमानें पर ही नापते है । अब दावतों के इस चलन ने समुह भोज का रूप ले लिया है ।

हम तो ठहरे ठेठ देहाती टाईप के आदमी , कहीं शादी - ब्याह का निमंत्रण मिला कि बस बालों में तेल - फुलेल ड़ाल कर टीप -टाप तैयार होकर समय से पहले ही पहुॅच जाते है । साथ ही घरैतिन को ताकीद भी कर देते है कि आज हमारा खाना न बनाए और हो सके तो वो भी साथ ही चले । स्कूलों से लाई हुई टाट पट्टी बीच में परोसने वालों के लिए स्थान छोड़ कर बिछाई गई होती है । हम अपनी पारखी नज़रों से जयजा लेकर यह अंदाज लगाने का प्रयास करते है कि एक बार में कितने लोगों को बिठाल कर खिलाया जा सकता है । दूल्हा - दुल्हन को देखनें के बजाए एक बार रसोई का चक्कर लगा कर यह भी पता करना जरूरी होता है कि खाने में क्या - क्या है । पहली पंगत प्रारम्भ होते ही जल्दी से टाट पट्टी पर पहले अपना स्थान सुरक्षित किया ,फिर अपनी चरण पादुका अर्थात चप्पल को भी तो सुरक्षित करना होता है सो उन्हे रख कर उसी पर बैठ जाना सबसे सरल और सहज उपाय है । अब खाना परोसने वाले पत्तलों और दोनों में खाना परोसने लगे । मिठाई परोसने वाला एक - .एक ही दे रहा था , हमनें दो की दरकार की तो उसने हमें खा जाने वाली नजरों से देखा । हमें क्या ..... हमने अपनी पत्तल पर ध्यान केन्द्रित कर लिया । हमने अपने पीछे देखा तो चार लोग खड़े थे और वे रास्ता देख रहे थे कि कब हम उठे और वे हमारा स्थान ग्रहण करें । हुआ भी ऐसा ही हम ठीक से उठ भी नहीं पाए थे कि उन चारों में हमारे स्थान को पाने के लिए धक्का -मुक्की प्रारम्भ हो गई ।

एक दावत में देसी और विदेशी मेल का तड़का देखने में आया । दावत देने वाले का समाज बड़ा था और बफे का सलीकेदार भी नहीं था उनके लिए पंगत में भोजन कराना मजबूरी हो गई । परन्तु परोसने वालों का सूटेड़- बूटेड़ दल किराए से बुलवा लिया । परोसने वाले लड़के और लडकियाॅ बेरोजगारी के मारे । लड़के चुस्त जींस , शर्ट और टाई में और लड़कियाॅ शर्ट ,शार्ट और टाई में । बेचारे खाना परोसते तो टाई दाल और सब्जी का आनंद लेती । लड़कियाॅ एक पंगत में परोसती तो उनके पीछे की पंगत वाले दादा जी कहते बेटा कपड़े तो ठीक से पहन लेती ।

दावतें तो हमने बहुत सी उड़ाई । एक दावत दावत कुर्सी- टेबल पर परोस कर खिलने वाली थी । देसी खाना ठेके पर था । ठेकेदार को अपनी बचत की चिंता थी और मेजबान को अपनी । ठेकेदार के परोसने वाले हाथ में दो रोटी पकड़ते और और टेबल के सामने निकलते हुए कहते ‘‘ पोड़ी........पोड़ी......... ’’ ,जब तक हम कहें ‘‘दो ’’ तब तक वो चार लोगों को पार कर चुका होता । हमें वो हल्के से ले रहा था । हम ठहरे घाघ दावतिए सो हमने आराम से रोटीयों को खत्म की और बैठ गए । उसको दूर से आते देख कर अपने हाथ को टेबल से बाहर किसी चुंगी नाके की तरह निकाल दिया । उसने रूक कर रोटी दी और जाते - जाते हमें बेशर्म होने का सम्मान देता गया ।

अब जमाना बदलने लगा है । जहाॅ देखिए ‘‘ बफे ’’ याने वृषभ भोज है । जैसे भैसों को सानी लगाई जाती है उसी तरह आप को आमंत्रित कर आपके लिए सानी लगाई जाती है । उस पर तुर्रा ये कि खाना भी अपनी सहूलियत से ही प्रारम्भ होता है । बस भीड़ इतनी की खाने तक पहुॅचना भी मुस्किल होता है । ऐसे में शर्मा जी की दाल वर्मा जी के कोट पर , ठाकुर सहाब की आइस्क्रिम के निशान श्रीमती जैन की साड़ी पर दिखाई देते है । यहाॅ तक तो गनीमत है कुछ लोग वहीं नींचे बैठ कर खा रहे हैं । चोपड़ा जी किसी वीर योद्धा की तरह पूरी प्लेट भरने का जंग जीत कर बचते- बचाते बाहर निकल ही रहे थे कि नीचे बैठ कर खाती हुई एक महिला से टकरा ही गए । उनका और उनकी प्लेट का संतुलन बिगड़ गया बड़ी मुस्किल से उन्होंने प्लेट को सम्भालते हुए संतुलन तो बना लिया लेकिन प्लेट में रखी पूड़ीयों को वे सम्भाल नहीं पाए । वे उनकी प्लेट से उछल कर खुद ही उस महिला की प्लेट में स्थापित हो चुकी थी । इस भीड़ का यही तो मंत्र है जिसने जो पाया वो उसका । कभी - कभी तो प्लेटें ही कम पड़ जाती है । कुछ लोग खा रहे होते और कुछ लोग प्लेटों का इंतिजार । हमारे बोहरा जी ऐसे मौके पर अंदर जा कर प्लेट धो कर अपनी व्यवस्था स्वयम् ही कर लेते है । एक साहब ने पहले रबड़ी खाई , फिर काफी पी और आइस्क्रिम भी खाई । उनका सिद्धांत एक दम सरल है भाई प्रिपेड दावत है , लिफाफे में पेमेंट किया है तो पूरा चुकता करना होगा ।

कुछ तो ऐसे भी है जो इस पूरे वातावरण में भोजन तक पहुॅच भी नहीं पाए है । ऐसे लोगों से भी बिदाई के समय मेजबान पूछता अवश्य है ‘‘ भोजन किया ....... भोजन ठीक तो था न........।’’ ऐसे लोग भी महान होते है भूख से कुलबुलाते हुए पेट के साथ भी सभ्यता के दायरे में रहते हुए मुस्कुरा कर भोजन लेने और अच्छा होने का औपचारिक बयान दे का घर की ओर खिचड़ी खाने हेतु चल देते है । ये अलग बात है कि हम जैसे कम महान व्यक्तियो के साथ एक तो ऐसा हादसा होता ही नहीं और अगर हो भी जाए तो तैयार हो कर तो घर से निकले ही है घर में खाना भी नही बना है , सो कोई और पंड़ाल या मेजबान देख कर पेट पूजा करके ही हम घर की ओर प्रस्थान करते है। अब हम कर भी क्या सकते है आखिर दावत है पेट से अदावत तो नहीं ।
आलोक मिश्रा "मनमौजी"