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फाँसी के बाद - 4

(4)

हमीद सीमा की कोठी के पिछले भाग की ओर आया था । इस्तना उसे मालूम था कि रनधा अपने आदमियों के साथ जिस इमारत में दाखिल होता है, उस इमारत के पिछले भाग पर अपना आदमी अवश्य तैनात रखता है । इसलिये उसने एक कंकरी उठाकर अंदर कम्पाउंड में फेंकी, मगर जब कोई प्रतिक्रिया प्रकट नहीं हुई तो वह दीवार पर चढ़ गया और धीरे से कम्पाउंड में उतर गया । उसने देखा कि एक आदमी दीवार की ओर से पोज़ीशन लेता हुआ कम्पाउंड की ओर बढ़ रहा है । और फिर दूसरी ओर भी उसे एक आदमी की झलक दिखाई दी जो उसके अनुमान के अनुसार रनधा की टोली का आदमी नहीं हो सकता था ।

वह पेट के बल रेंगता हुआ इमारत की ओर बढ़ने लगा । फिर जैसे ही कोरिडोर में पहुंचा वैसे ही एक कमरे के दरवाज़े के निकट उसे एक औरत की परछाई दिखाई दी । वह उधर बढ़ा ही था कि कम्पाउंड की ओर से एक चीख की आवाज़ आई और फिर उस औरत की चीख उभरी जो परछाई रूप दिखाई दी थी । और फिर हमीद ने उस औरत को गिरते हुए देखा ।

हमीद तेजी से उस औरत की ओर बढ़ा । उसी समय उस कमरे से तीन आदमी निकले जिसके सामने वह औरत गिरी थी । तीनों में से एक उस औरत को उठाने के लिये झुका ही था कि हमीद उसके सिर पर पहुंच गया और गरज कर बोला ।

“अपने हाथ ऊपर उठा लो वर्ना मैं गोली मार दूंगा ।”

मगर उन्होंने हाथ उठाने के बजाय हमीद पर हमला कर दिया और हमीद ने अपने बचाव के लिये फायर करना आरंभ कर दिया । मगर इसका विचार रखा था कि गोलियां सीने पर न पड़ने पायें । एक के बाद दूसरी और तीसरी चीख उभरी ।

“क्या हो रहा है ?” – कमरे के अंदर से गरजदार आवाज आई – “इतनी गोलियां क्यों चलाई जा रही है ?”

“म...म... पुलिस...!” – बाहर से एक ने कराहते हुए कहा ।

इतने में हमीद कमरे के अंदर दाखिल हो गया था । कमरे में एमरजेंसी बल्ब जल रहा था । उसने उसकी रौशनी में रनधा और लाल जी को देखा । रनधा कमरे में हमीद को देखकर चकित रह गया । हमीद ने न तो ख़ुद रनधा पर फायर किया और न उसने रनधा को इतना अवसर दिया था कि वह उस पर फायर करता । उसने रनधा पर छलांग लगा दी थी और रनधा को रगेदता हुआ दीवार तक ले गया था ।

बाहर रनधा के तीनों साथी कराहते हुए उसी कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़ रहे थे । शायद वह सब अपने सरदार रनधा को बचाना चाहते थे, मगर वे सफल न हो सके । इसलिये कि रमेश रनधा के उन साथियों को ख़त्म करके वहां पहुंच गया था जो कम्पाउंड की देखभाल पर तैनात थे । ठीक उसी समय सर्च लाइट का प्रकाश उस पर पड़ा । उसने सोचा कि अब तो पुलिस आ ही गई । इसलिये खिसक जाना चाहिये । मगर उसी समय उसे एक औरत की चीख सुनाई दी जो कह रही थी ।

“तुम डैडी को देखो, मेरी चिंता मत करो !”

इतना कहकर वह फिर चीखने लगी । पहले तो रमेश समझ ही न सका कि मामला क्या है । मगर जब ध्यान से देखा तो पता चला कि उन तीनों में से एक ने उस औरत को पकड़ लिया है – उसने उस औरत को पहचान भी लिया । वह सीमा थी । उन तीनों ने जब रमेश को देखा तो बौखला गये । फिर सीमा को छोड़कर फायर करते हुए कम्पाउंड की ओर भागे । रमेश वहीँ रुका रहा ।

उसी समय रनधा कमरे से बाहर निकला । उसके हाथों में टामीगन थी । वह अंधाधुंध फायरिंग कर रहा था । उसे इसकी भी चिंता नहीं थी कि उसकी गोलियों का निशाना कौन बन रहा है । वह अपने ही एक साथी की लाश पर पाँव रखता हुआ बाहर आ गया और एक खंभे की आड़ लेकर फायरिंग करता रहा ।

रमेश पहले तो चीखता गया था । फिर पेट के बल रेंगता हुआ रनधा की ओर बढ़ने लगा । रनधा का विचार था कि रमेश उसकी गोलियों का निशाना बन गया होगा । इसलिये वह रमेश की ओर से निश्चित था और रमेश को भी यह नहीं मालूम था कि उसके पीछे भी कोई रेंगता हुआ आ रहा है । वह रेंगता हुआ रनधा के निकट पहुंच गया और उसके पैरों को पकड़कर झटका दिया । रनधा ने टामीगन की नाल नीचे की ओर झुकाना चाही ताकि रमेश पर फायर करे, मगर उसी समय एक भरपूर हाथ उसकी गुद्दी पर पड़ा और वह लहरा कर गिर पड़ा ।

“फायरिंग बंद कीजिये !” – रमेश ने अपने पास ही हमीद की आवाज सुनी और चौंककर दाहिनी ओर देखा । हमीद रनधा पर सवार था और उस पर घूंसे बरसा रहा था । उसकी टामीगन दूर पड़ी हुई थी ।

फायरिंग बंद हो गई और फिर इन्स्पेक्टर आसिफ़ दिखाई पड़ा । उसके अधरों पर विजय मुस्कान थी । उसने रनधा के हाथों में हथकड़ियां डाल दीं ।

***

रनधा के चार साथियों की लाशें मिली थीं । पांचवा ख़ुद रनधा था जो गिरफ़्तार कर लिया गया था । मगर छटवें आदमी का पता न चल सका और न वह स्टेशन वैगन ही मिल सकी जिसके बारे में सरला ने रमेश को बताया था और जिसे ख़ुद रमेश और हमीद ने भी सड़क पर खड़ी देखी थी ।

बहरहाल पुलिस की नज़रों में जो कुछ था वह रनधा ही था और रनधा गिरफ़्तार हो चुका था इसलिये एक प्रकार से सारा केस ही समाप्त हो चुका था । मगर अब भी दुख की बात यह थी कि वीना न मिल सकी थी और न उसका कोई सुराग़ मिल सका था ।

विनोद बाहर गया हुआ था । जब वह लौटकर आया तो उसने समाचार पत्रों में हमीद, रमेश और इन्स्पेक्टर आसिफ़ के कृत्यों के विवरण पढ़े और मुस्कुराकर रह गया ।

“आपने किसी प्रकार की आलोचना नहीं की ।” – हमीद ने कहा ।

“मैं अधिक से अधिक बधाई दे सकता हूं ।” – विनोद ने कहा ।

“सच्ची बात यह है कि आसिफ़ अकारण ही क्रैडिट ले रहा है । उसने तो कुछ किया ही नहीं । रह गया रमेश – तो विश्वास कीजिये कि अगर मैं न पहुंच गया होता तो रनधा की टामीगन ने उसकी खोपड़ी हज़ारों भागों में विभाजित कर दी होती ।”

“तुम लाल जी के कमरे में क्या कर रहे थे ?” – विनोद ने पूछा – “तुम्हें तो रनधा के पीछे ही कमरे से निकलना चाहिये था ।”

“मैं रनधा के पीछे झपटा था मगर ठोकर लग जाने के कारण गिर पड़ा ।” – हमीद ने कहा । मगर सच बात यह थी कि वह रनधा का घूंसा खाकर गिरा था और उसी समय अपने साथी के मुख से ‘पुलिस’ का नाम सुनके रनधा बौखलाकर कमरे से बाहर आ गया था – वर्ना हमीद का ज़िन्दा बच पाना असंभव ही होता । रनधा अवश्य उसे गोली मार देता ।

“इसका अर्थ यह हुआ कि सेहरा तुम्हारे सर बंधना चाहिये ।” – विनोद ने हंसकर कहा ।

“वह तो अपनी किस्मत में ही नहीं !” – हमीद ने ठंडी सांस खींचकर कहा । फिर सीना ठोंककर बोला – “मुझे तो अब इस बात का यकीन हो गया है कि मेरी आने वाली सात पुश्तों में किसी के सर सेहरा न बंध सकेगा ।”

“तुम्हें विश्वास है कि रनधा को फांसी दी जायेगी ?” – विनोद ने पूछा ।

“विश्वास न करने का कारण ?”

“क्या तुमको यह याद नहीं रहा कि पिछली बार भी उसे फांसी की सजा हुई थी मगर वह जेल से भाग निकला था ।”

“इस बार ऐसा नहीं हो सकता ।” – हमीद ने कहा ।

“क्यों नहीं हो सकता ?”

“इसलिये कि पिछली बार बहुत दिनों तक मुक़दमा चलता रहा था – इसलिये उसे भागने का अवसर मिल गया था ।”

“वह तो इस बार भी होगा ।” – विनोद ने हंसकर कहा “पहले सेशन फिर हाई कोर्ट और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ।”

“ठीक कहते है आप मगर इस बार जेल के कर्मचारी पूरी तरह सतर्क रहेंगे इअलिये कि पिछली बार उन लोगो को काफ़ी सज़ा भोगनी पड़ी थी ।”

“देखो क्या होता है ।” – विनोद ने कहा “वैसे रनधा की फाँसी के बाद भी तुम्हारा काम बाकी रह जाता है ।”

“मेरा काम !” – हमीद ने चौंककर कहा “मैं समझा नहीं ?”

“वीणा कहाँ है ?” – विनोद ने पूछा “रनधा की गिरफ़्तारी के बाद उसे तो मुक्त हो जाना चाहिये था – फिर ऐसा क्यों नहीं हुआ ?”

“तो क्या आप यह कहना चाहते है कि रनधा के अतिरिक्त कोई और भी है जो या तो रनधा का बाप है या फिर रनधा के बराबर का आदमी है ?”

“मेरे कहने की बात छोडो और केवल यह सोचो की रनधा को फाँसी हो भी सकेगी या नहीं और उसकी फाँसी के बाद भी खतरा समाप्त होगा या नहीं ?”

“यह सब आप सोचिये – और जो करना हो कीजिये ।” – हमीद ने कहा ।

“मुझे कुछ नहीं करना है इसलिये कि मैं लन्दन जा रहा हूँ ।”

“मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप क्या करते फिर रहे है । इधर कई दिनों से आप ग़ायब थे और अब आप लन्दन जा रहे है । मैं भी चलूंगा ।”

“नहीं – तुम्हें तो यहाँ रहकर रनधा को फाँसी दिलानी है ।” – विनोद ने कहा ।

“वह तो हो ही जा.....।”

अचानक हमीद को चुप हो जाना पड़ा था इसलिये कि एक नौकर ने अन्दर दाखिल  होकर किसी का विजिटिंग कार्ड विनोद को थमा दिया था और विनोद उसे देखने लगा था ।

“किसका कार्ड है ?” – हमीद ने पूछा ।

“मैं नहीं जानता मगर मेरा विचार है की तुम अवश्य जानते होगे इसलिये तुम्ही मिलो । मैं तो चला ।” – विनोद ने कहा और कार्ड हमीद को देकर अन्दर की ओर चला गया ।

हमीद ने कार्ड देखा । उस पर सीमा का नाम लिखा हुआ था । उसने नौकर से कहा ।

“भेज दो ।”

नौकर चला गया और हमीद अकड़कर बैठ गया । वह इस समय अपने को बहुत बड़ा आदमी समझने लगा था – और इसी समझने की प्रतिक्रिया यह थी कि जब सीमा कमरे में दाखिल हुई तो वह उसका स्वागत करने के लिये नहीं उठा – बस रस्मी तौर पर इतना कह दिया की “तशरीफ़ रखिये ।”

उधर सीमा की नज़रे इस प्रकार झुकी हुई थीं जैसे वह हमीद से अत्यंत प्रभावित और आतंकित हो । वह हिचकिचाती हुई बैठी और रुक रुक कर कहने लगी ।

“मैं क्षमा चाहती हूँ ।”

“किस बात के लिये ?” – हमीद ने चौंककर पूछा ।

“आज दस दिन बाद आपका शुक्रिया अदा करने आई हूँ ।”

“मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया था – इसमें शुक्रिया अदा करने की क्या जरुरत है – वैसे आपके पिता लाल जी मुझसे मिल लिये थे ।”

“वास्तव में तीन दिनों तक तो मैं अपने होश हवास ही में नहीं थी । फिर मैं मिस्टर रमेश से मिली थी । वह मेरी सहेली सरला है ना.....।”

“वह बदसूरत लड़की !” – हमीद ने बात काटकर कहा “मेरी समझ में नहीं आता कि सरला जैसी निकम्मी लड़की को आपने अपनी सहेली कैसे...... ।”

“सीमा लाखो मै एक है ।” – इस बार सीमा ने बात काटी “हाँ तो मैं यह कह रही थी कि इन्ही कारणों से एक एक दिन व्यतीत होता गया और मैं आपसे न मिल सकी । आप लोगों ने जो कारनामा किया है उसकी प्रशंसा करना सूरज को चिराग दिखाना है । आप लोगों की यह कृति तो भुलाई ही नहीं जा सकती ।”

“मगर सच्ची बात तो यह है कि अगर आपने उस दिन फोन न किया होता तो आज भी रनधा उसी प्रकार दनदनाता फिर रहा होता ।”

“कर्नल साहब मौजूद नहीं नै ?” – सीमा ने पूछा ।

“क्यों ?”

“आज सन्ध्या को डैडी ने आओ लोगों के सम्मान में डिनर की व्यस्था की है ।”

“इसके लिये तो हमें क्षमा ही कीजिये क्योंकि हम लोग इस प्रकार के निमंत्रण स्वीकार नहीं करते । यह हमारा सिध्धांत है ।”

“बात अब सिद्धांत की आ गई है तब तो मैं कुछ नहीं कह सकती । अच्छा, अब आज्ञा दीजिये ।” –सीमा ने कहा और उठ गई । हमीद को सलाम किया और मुड़कर दरवाज़े की ओर बढ़ी ।

हमीद ने सोचा कि यह तो कुछ भी नहीं हुआ । अब आगे भी सीमा से बेतकल्लुफ़ होने का कोई साधन नहीं रहेगा, इसलिये वह उठा और दरवाज़े की ओर बढ़ा । आहट पा कर सीमा ने गर्दन मोड़ी और हमीद को अपनी ओर आता देख कर यही समझी कि वह उसे छोड़ने आ रहा है । इसलिये वह रुक गई और हमीद की ओर घूम कर बोली – “आप मुझे लज्जित कर रहे हैं !”

“इसकी मंज़िल बाद में आयेगी ।” – हमीद ने कहा ।

“जी !” – सीमा बौखला कर बोली । वह हमीद की इस बात का अर्थ समझ नहीं सकी थी ।

“मैं इस समय खुल कर आपसे बातें नहीं कर सकता, क्या आप संध्या को मुझसे मिल सकती हैं ?”

“मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी । आप संध्या को मेरी कुटिया पर आ जाइयेगा ।”

“आपके घर पर नहीं, बल्कि आर्लेक्चनू में ।”

“मुझे स्वीकार है ।”

“साढ़े सात बजे मैं लाउंज में मिलूंगा ।” – हमीद ने कहा और अचानक चौंक पड़ा । क्योंकि पहले तो उसने यही सोचा था कि सीमा ख़ुद अपनी कार ड्राइव करके आई है, मगर अब वह कार की ड्राइविंग सीट पर एक आदमी को देख रहा था । वह आदमी भी बराबर हमीद को घूरे जा रहा था ।

सीमा कार में बैठ गई और कार स्टार्ट हो कर कम्पाउंड के फाटक से गुज़र भी गई मगर हमीद वहीं खड़ा रहा । वह उसी आदमी के बारे में सोच रहा था । था तो अपरिचित ही, मगर हमीद को यही लग रहा था कि उसने उस आदमी को पहले भी देखा था । मगर यह याद नहीं आ रहा था कि उसे कब और कहां देखा था ।

***

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