फाँसी के बाद - 2 Ibne Safi द्वारा जासूसी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फाँसी के बाद - 2

(2)

यह नगर का वह भाग था जहां आधी रात व्यतीत होने के बाद भी चहल पहल रहती थी । इसका कारण यह था कि शरीफ़ों की इस बस्ती से मिला हुआ वह भाग था जो रेड लैम्प एरिया कहलाता था । किसी ज़माने में यहां रातों में खोये से खोये छिलते थे । लोगों की नज़रें उपर ही की ओर उठी रहती थीं । मगर कई वर्ष पहले जब यहां का कूड़ा पूरे नगर में फैला दिया गया था तो यहां नाच गाने का बोर्ड लग गया था । मगर पुराने ग्राहक – शौकीन मिज़ाज तथा औसत आमदनी वाले – अब भी रातों में यहीं मंडराते रहते थे ।

इस चहलपहल का एक कारण यह भी था कि यहां एक आलीशान होटल था जिसमें चौरासी कमरे थे और संध्या होते ही उस कमरों में वह कूड़े भरने लगते थे जो पूरे शहर में फैला दिये गये थे । यहां हर धर्म के हर प्रकार के लोग नज़र आते थे ।

ठीक बारह बजे रात को उसी होटल के छः कमरों के द्वार एक साथ खुले और हर कमरे से एक एक आदमी निकल कर सीढियों की ओर बढ़े । निचे आकर सब मिल गये और एक साथ चलने लगे । कुछ दूर जाने के बाद वह सब एक चौड़ी गली में मुड़ गये । इसी गली में सेठ दुमिचंद का तिन खंडो वाला मकान था । मकान पुराने ढंग का था और दो तीन वर्ष पहले उसे नया बनाने का भी यत्न किया गया था । मकान का सदर दरवाज़ा जालीदार लोहे का था । दीवारें इतनी ऊँची थीं कि उन्हें पार करने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता था । गली में चाय की दुकानें थीं हो आम तौर से एक बजे रात तक खुली रहती थीं – और आज भी खुली हुई थीं ।

वह छः आदमी लोहे के फाटक तक आये । फाटक बंद था । फाटक के दूसरी ओर एक सशस्त्र संतरी स्टूल पर बैठा ऊँघ रहा था । फाटक के पास इतने आदमियों को देख कर वह चौंका और फिर इसके की वह उठे – जाली के अंदर से गुज़रती हुई रायफल की नाल उसके सीने से जा लगी । फिर उनमें से एक ने मंद मगर फुफकार भरी आवाज़ में कहा ।

“फाटक खोल दो वर्ना गोली तुम्हारा सीना बेधती हुई दूसरी ओर निकल जायेगी । मैं रनधा हूं !”

“गोली मार दो ! दरवाज़ा नहीं खुलेगा !” – संतरी ने कहा ।

“क्या तुम यह समझ रहे हो कि मैं केवल धमकी दे रहा हूं ?”

“नहीं । मैं जानता हूं कि रनधा जो कहता है वो कर डालता है ।” – संतरी ने कहा – “मगर फाटक इसलिये नहीं खुल सकता कि इसमें लगे हुए ताले की कुंजी मेरे पास नहीं है । सेठ जी अपने हाथ से ताला बंद करके कुंजी अपने साथ ले जाते हैं और सवेरे आकर अपने हाथ से ताला खोलते हैं ।”

“हो सकता है वह ठीक कह रहा हो । खैर, अभी सच्चाई मालूम हो जाती है ।” रनधा ने कहा और जेब से एक डब्बा निकाला जिसमें किसी प्रकार का चूर्ण भरा हुआ था । उसने उसे फाटक के मध्यवर्ती भाग पर छिड़क दिया । पांच मिनट भी न बीते होंगे कि उतने स्थान के लोहे में मोम के समान नर्म पड़ गये । रनधा ने रिवोल्वर के कुंदे से तीन-चार बार हलके हलके प्रहार किया और उतना भाग टूट कर निचे गिर पड़ा । इतना स्थान हो गया था कि एक आदमी सरलता से अन्दर दाखिल हो सकता था । सबसे पहले रनधा ही अन्दर दाखिल हुआ और जब उसने अपने रिवोल्वर की नाल संतरी के सीने पर लगा दी तो उसके साथी ने रायफल की नाल हटा ली और फिर एक एक करके सब अन्दर आ गये । उसके बाद सबसे पहले संतरी के होंठों पर टेप चिपकाया ताकि वह बोल न सके – फिर उसके हाथ पैर बांधे गये और उसकी जामा तलाशी ली जाने लगी । सचमुच उसके पास कुंजी नहीं थी । रनधा ने दो आदमियों को बाहर निकाल दिया ताकि वह उस गली की निगरानी करते रहें । शेष तीनों को उसने अपने साथ चलने के लिये कहा ।

तीनों में से एक ने संतरी को कंधे पर लादा और तीनों रनधा के पीछे पीछे सीढ़ियों पर चढ़ने लगे । सीढ़ियां एक छोटे से गलियारे तक ले गईं । वे सब गलियारे में दाखिल हो कर आगे बढ़ने लगे । दाहिनी ओर एक कमरा था जिसका दरवाज़ा अन्दर से बंद नहीं था, बल्कि केवल भिड़ा हुआ था । चारों उसी कमरे में दाखिल हो गये । मसहरी पर एक सुन्दर और जवान लड़की सो रही थी ।

“यही है ना ?” - रनधा ने अपने साथियों से पूछा ।

“हां ।” – एक ने उत्तर दिया ।

“ठीक है । संतरी को यहीं डाल दो । वापसी पर इस लड़की को ले चलेंगे ।” – रनधा ने कहा ।

फिर चारों तीसरे खंड के उस कमरे में पहुंचे जिसमें खुद दुमीचंद सोया हुआ था और उसी में सेफ़ भी था । आहट पा कर दुमीचंद उठ बैठा और उन्हें घूरने लगा । मगर दूसरे ही क्षण उसका चेहरा इस प्रकार सफ़ेद पड़ गया जैसे उसके शरीर से सारा रक्त निचोड़ लिया गया हो ।

सेठ दुमीचंद आज से तीन वर्ष पहले केवल दुमीचंद था । मगर इन तीन वर्षों में उसने सरसों के तेल और वनस्पति घी के व्यवसाय से इतना कमाया था कि उसकी गणना भी नगर के प्रमुख धनवानों में होने लगी थी और वह दुमीचंद से सेठ दुमीचंद कहलाने लगा था । उसके पास कितनी दौलत थी इसका अनुमान भी कोई नहीं लगा सकता था । उसका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था । आयु पचास से अधिक थी, मगर दिखने में तीस का प्रतीत होता था । चेहरे पर हर समय लालिमा छाई रहती थी । दो जवान लड़के थे और एक लड़की थी, जिसके विवाह की बात चल रही थी । मगर कदाचित वह किसी दूसरे से प्रेम करती थी, इसलिये शादी से बराबर इन्कार किये जा रही थी ।

“चाभियाँ कहां है, सेठ ?” – रनधा ने अत्यंत कोमल स्वर में कहा – “मुझे फाटक की भी चाभी चाहिये, इसलिये कि आने में हमें काफ़ी कष्ट उठाना पड़ा था । तुम्हारा संतरी तुम्हारा वफादार है । वह हमें जागता हुआ मिला था ।”

अचानक दुमीचंद के चेहरे पर फिर लालिमा दौड़ गई । उसने बड़े तीखे स्वर में कहा – “मैं यह अच्छी तरह जानता हूं कि तुम्हारी हकीकत क्या है । तुम मुझे क़त्ल ही कर दोगे ना – तो क़त्ल कर दो, मगर इतना याद रखना कि इस नगर में कर्नल विनोद भी रहता है, जिसका असिस्टेंट कैप्टन हमीद है । हमीद मेरे बड़े लड़के का गहरा दोस्त है और मैं अपने बड़े लड़के को तुम्हारे बारे में बता चुका हूं ।”

“और अगर मैं तुम्हें क़त्ल न करूँ तो ?” – रनधा ने मुस्कुराकर पूछा ।

“तो मैं अपना मुख बंद ही रखूंगा ।” – दुमीचंद ने कहा – “और यह भी हो सकता है कि मैं तुम्हारी आशा से अधिक तुम्हें नज़राने के तौर पर रक़म दूं ।”

“अच्छी बात है ।” – रनधा ने मुस्कुराकर कहा – “मैं तुम्हारे वादे पर विश्वास करके वापस जा रहा हूं – लेकिन अपने साथ तुम्हारी लड़की लेता जाऊँगा । जब तुम नज़राने की रक़म अदा कर दोगे तो मैं तुम्हारी लड़की तुम्हें वापस कर दूंगा ।”

“यह नहीं हो सकता ।” – दुमीचंद चीख पड़ा ।

“अच्छी बात है ।” – रनधा ने शांत स्वर में कहा – “अब मैं तुम्हारे धन के साथ ही साथ तुम्हारी लड़की वीना को भी ले जाऊँगा और तुम्हें क़त्ल भी कर दूंगा ।”

“तुम ऐसा नहीं कर सकते ।” – दुमीचंद ने कहा ।

“अब तक रनधा ने जो चाहा है वही हुआ है और अब भी वही होगा जो रनधा ने कहा है ।” – रनधा ने कहा और रिवोल्वर का ट्रेगर दबा दिया ।

भयानक चीत्कार के साथ दुमीचंद मसहरी पर तड़पने लगा । रनधा ने उसकी जेब से चाभियां निकाली और अपने साथियों को लिये हुए उस कमरे में पहुंच गया जिसमें तिजोरी थी । ऐसा लग रहा था जैसे उसे हर वस्तु के बारे में मालूम हो कि वह कहां है । जब तिजोरी खोल कर नोटें थैलों में भर ली गईं तो फिर वह सब उस कमरे में आये जिसमें दुमीचंद की लड़की वीना सो रही थी । संतरी उसी प्रकार पड़ा हुआ था । रनधा ने सोती हुई वीना को बेहोशी की दवा सुंघाई, फिर एक ने वीना को उठा कर कंधे पर लादा और सब नीचे आए । रनधा ने फाटक खोला और सबको लिये हुए गली में आ गया । गली का पहरा देने वाले साथियों को संकेत किया और सब मिल जुल कर आगे बढ़े । गली में चाय की दुकानों पर बैठे हुए लोगों ने उन्हें जाते हुए देखा, मगर किसमें इतना साहस था कि उन्हें टोक कर अपनी जान गवांता ।

गली के अन्त में सड़क पर एक स्टेशन वैगन पड़ी थी । रनधा अपने साथियों तथा थैलों और वीना सहित उसमें बैठ गया और स्टेशन वैगन चल पड़ी । उसके बाद लोग शोर मचाने लगे और कुछ ही क्षण बाद पुलिस की एक जीप रनधा के स्टेशन वैगन के पीछे लग गई, मगर कुछ ही क्षण बाद स्टेशन वैगन से लगातार दो फायर हुए और दो धमाकों के साथ पुलिस की जीप लड़खड़ा कर रुक गई । ड्राइवर की चातुर्यता के कारण जीप उलटने नहीं पाई थी । और फिर जब जीप ठीक होकर आगे बढ़ी तो रनधा की स्टेशन वैगन का दूर दूर तक पता नहीं था ।

***

टेली फोन की घन्टी लगातार बजने के कारण कैप्टन हमीद की आंख खुल गई और वह रिसीवर उठा माउथ पीस मे दहाड़ा ।

“हलो.....कैप्टन हमीद मर चुका है ।”

“कप्तान साहब !” - दूसरी ओर से किसी औरत की कपकपाती हुई आवाज़ आई “मैं चौदह जार्ज रोड से सीमा बोल रही हूँ । आपने मुझे वीणा के साथ देखा था । रनधा मेरी कोठी में दाखिल हो चुका है । हम सब खतरे में है और अब मैं कोतवाली फोन करने जा रही हूँ ।”

टेलीफोन की घंटी लगातार बजने के कारण कैप्टन हमीद की आंख खुल गई और वह रिसीवर उठा कर माउथपीस में दहाड़ा – “हलो... कैप्टन हमीद मर चुका है ।”

“कप्तान साहब !” - दूसरी और से किसी औरत की कंपकंपाती हुई आवाज़ आई – “मैं चौदह जार्ज रोड़ से सीमा बोल रही हूं । आपने मुझे वीना के साथ देखा था । रनधा मेरी कोठी में दाखिल हो चुका है । हम सब खतरे में हैं और अब मैं कोतवाली फोन करने जा रही हूं ।”

हमीद ने कुछ कहना चाहा मगर संबंध कट चुका था । उसने तकिये के नीचे से रिवोल्वर निकाल कर पतलून की जेब में रखा और हैंगर से कोट खींच कर पहनता हुआ बाहर निकला । आज पतलून पहनकर सोना काम आ गया था । वर्ना पतलून पहनने में काफ़ी समय लगता । बाहर आकर उसने चौकीदार को कुछ आदेश दिये और गैराज से आस्टेन निकाल कर जार्ज रोड की ओर चल पड़ा ।

पिछले कई महीनों से रनधा का नाम आतंक, विनाश और हत्या का सिम्बल बन चुका था । उसके द्वारा डाले जाने वाले डाकों के कारण कोई भी अपना जीवन सुरक्षित नहीं समझता था । अभी कुछ ही दिनों पहले सेठ दुमीचंद की हत्या और उसकी लड़की वीना के अपहरण ने पूरे नगर में सनसनी फैला रखी थी ही कि पुलिस की जीप पर रनधा द्वारा किये गये फायरों ने और आतंक फैला दिया ।

रनधा दो बार गिरफ्तार हुआ था, मगर दोनों बार भाग निकला था । पहली बार तो उस समय भाग निकला था, जब उस पर मुक़दमा चल रहा था । और दूसरी बार उस दिन भागा था, जिस दिन उसे फांसी की सजा मिली थी । अभी तक यह भी पता नहीं चल सका था कि रनधा की टोली में कितने आदमी थे और रनधा का शरण स्थल कहां था ।

इस समय हमीद यह सोच रहा था कि कुछ अवसर ऐसे भी आते हैं जब कानून का सहारा लेना ही कानून के विरुद्ध काम करना होता है – जैसे यही रनधा का केस । सेशन में चलने के बाद हाई कोर्ट में चला, मगर नतीजा क्या निकला ? समय नष्ट हुआ और दोनों बार रनधा भाग भी निकला । होना तो यह चाहिये था कि जब वह गिरफ्तार हुआ था उसी वक्त उसे गोली मार दी जाती । यही बात उसने विनोद से भी कही थी और विनोद ने बड़ी गंभीरता के साथ उसे समझाया था ।

“बात तो तुमने ठीक कही है, मगर प्रश्न यह है कि गोली मारने वाला कौन होगा ? यह अधिकार किसे दिया जायेगा – मुझे या तुमको ? और फिर इसकी क्या ज़मानत होगी कि कल हमारे हाथ किसी निर्दोष पर नहीं उठेंगे ?”

हमीद ने तर्क तो नहीं किया था, मगर संतुष्ट भी नहीं हुआ था । बराबर यही सोचता रहता था कि जब भी उसे रनधा मिलेगा वह रनधा को गोली मार देगा । चाहे परिणाम जो भी हो – और इस समय संयोगवश उसे इसका अवसर मिल गया था । उसने जार्ज रोड पहुंचकर गाड़ी रोक दी और उतर कर पैदल चौदह नंबर की कोठी के पिछले भाग की ओर चल पड़ा ।

***