खौलते पानी का भंवर - 13 - मौत Harish Kumar Amit द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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खौलते पानी का भंवर - 13 - मौत

मौत

शाम को दफ़्तर से लौटकर घर आया तो ड्राइंगरूम से आ रही आवाज़ों को सुनकर ही समझ गया कि मंजु आ चुकी है. मंजु यानी मेरी पत्नी वीना की छोटी बहन. मंजु के साथ उसके पति सतीश जी भी आए थे. मंजु से लगभग दो साल बाद मुलाक़ात हो रही थी. दो साल पहले शादी के बाद वह अमरीका चली गई थी, जहाँ सतीश जी का हीरे-जवाहरात का व्यापार है.

ड्राइंगरूम में पहुँचकर जैसे ही मैंने मंजु को देखा, मेरी हैरानगी की कोई सीमा न रही. सतीश जी तो अब भी पहले जैसे दीख रहे थे, मगर मंजु को तो आसानी से पहचानना भी मुश्किल था. कहाँ वह सीधी-साधी, घरेलू-सी दीखने वाली मंजु और कहाँ यह कटे बालों वाली और ढेर-सा मेकअप किए मंजु. उसका पहनावा भी तो बिल्कुल बदला हुआ था. आमतौर पर सलवार-कमीज़ या कभी-कभार साड़ी-ब्लाउज़ पहनने वाली मंजु अब टाइट जीन्स और स्लीवलेस टॉप पहने हुई थी.

उन लोगों के साथ बातें करते और चाय-वाय पीते समय यही ख़याल मन में आता रहा कि मंजु के हुलिए में इस परिवर्तन का मुख्य कारण उसका अमरीका जाकर बस जाना ही है.

तभी मुझे ध्यान आया कि मंजु ने इस दौरान छपी मेरी रचनाओं के बारे में तो कुछ पूछा ही नहीं. नहीं तो अमरीका जाने से पहले तक तो वह मेरी छपी हुई हर नई रचना के प्रति बड़ा उत्सुक रहती थी. कोई नई रचना लिखने के बाद उसे छपने के लिए भेजने से पहले ही वह उसे पढ़ लिया करती थी. हालाँकि वह खुद नहीं लिखती थी, पर फिर भी साहित्य से उसका बड़ा लगाव था. ख़ाली समय में वह अक्सर गंभीर साहित्य पढ़ती नज़र आती.

इसलिए मैंने बातों का मुँह साहित्य की ओर मोड़ना चाहा, पर मंजु ने उसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, और इधर-उधर की बातें करने लगीं. मैं महसूस कर रहा था कि साहित्य-कला के बदले फिल्मों, फैशन और खाने-पीने जैसे विषयों में वह अधिक रूचि दिखा रही थी. शायद विदेश में दो साल रहने का असर होगा. मेरे दिमाग़ में रह-रहकर यही बात आ रही थी.

थोड़ी देर बाद सतीश जी सिगरेट लेने के लिए बाज़ार तक गए, तो मैंने उचित मौका देखकर पिछले दो सालों में छपी अपनी रचनाओं की फाइल मंजु को दिखानी चाही. मंजु अनमने भाव से उस फाइल को देखने लगी, लेकिन यह साफ था कि उसे उन रचनाओं में न के बराबर रूचि थी. वह सिर्फ रचनाओं के शीर्षक पढ़कर ही पन्ना पलट देती थी, जबकि पहले वह मेरी रचनाओं को एक नहीं बल्कि कई-कई बार पढ़ा करती थी. मंजु ने अभी लगभग आधी रचनाएँ ही देखी थीं कि सतीश जी वापिस आ गए. वे बाज़ार से व्हिस्की और चिकन भी ले आए थे. मैं तो चूंकि न शराब पीता था और न माँस खाता था इसलिए इन चीजों का प्रबन्ध भी मैं कभी किसी मेहमान के लिए नहीं किया करता था. सतीश जी पहले भी जब कभी आते थे, खुद अपने लिए इन चीज़ों का बन्दोबस्त किया करते थे.

सतीश जी जैसे ही आए, मंजु ने मेरी रचनाओं वाली फाइल झट से एक तरफ रख दी ओर खुद सतीश जी की ओर लपक पड़ी यह देखने के लिए कि वे क्या-क्या लेकर आए हैं. मुझे बहुत बुरा-सा लगा. मैंने भारी मन से फाइल उठाई और उसे अलमारी में रखने दूसरे कमरे की ओर चल दिया.

फाइल को अलमारी में रखते वक़्त मेरी नज़र अलमारी में रखे दो पैकेटों पर पड़ी. मुझे याद आया कि मंजु के पिछले दो जन्मदिनों पर उपहार में देने के लए जो साहित्यिक पुस्तकें मैंने ख़रीदी थीं, वे उसी के पैकेट हैं. जबसे मेरी शादी वीना से हुई थी, मैं मंजु को उसके हर जन्मदिन पर उपहार में पुस्तकें ही देता आ रहा था. मेरा मन चाहा कि मैं ड्राइंगरूम में जाकर मंजु को किताबों के ये पैकेट दे दूँ, पर मंजु की साहित्य के प्रति पैदा हो चुकी अरूचि को देखते हुए मैंने अपना विचार छोड़ दिया.

मंजु के बदले-बदले से व्यवहार से मैं बड़ा आहत-सा महसूस कर रहा था. मुझे बड़ी हैरानगी हो रही थी कि मंजु इतनी बदल क्यों गई है. मेरा मन इतना खिन्न था कि मैं ड्राइंगरूम में गया ही नहीं, जहाँ बाकी सब लोग मौजूद थे. मैं उसी कमरे में पलंग पर आँखें बन्द करके लेट गया. सतीश जी की चिन्ता फिलहाल कुछ देर नहीं थी क्योंकि उन्होंने आधे-पौने घंटे तक पीने-पिलाने का कार्यक्रम चलाना था. वे जानते थे कि ऐसे समय मैं उनके पास नहीं बैठा करता था.

कुछ देर बाद मैं कमरे से बाहर आया तो डाइनिंग टेबल पर सतीश जी के साथ मंजु भी बैठी हुई थी. यह देखकर मेरे अचरज की कोई सीमा न रही कि वह न केवल चिकन खा रही थी, बल्कि उसने हाथ में व्हिस्की से भरा गिलास भी पकड़ रखा था. यह सब देख मेरा दिमाग चकरा गया. कहाँ दो साल पहले वाली मंजु जिसे माँसाहारी भोजन की गंध से भी नफरत थी और जो शराब को ज़हर समान समझती थी, अब बड़े मज़े से चिकन खा रही थी और व्हिस्की के घूँट भर रही थी.

यह सब देख मुझसे रहा नहीं गया. मैं सतीश जी से पूछ ही बैठा, ‘‘भई सतीश जी, आपने तो मंजु का कायाकल्प ही कर दिया है. कैसे किया यह सब?’’

सतीश जी मेरी बात समझ गए और मुस्कुराते हुए कहने लगे, ‘‘भई वक़्त के हिसाब से बदलना पड़ता है सभी को.’’

‘‘कहाँ तो यह मीट की शक्ल तक नहीं देखती थी और अब...’’ मैंने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

मेरी बात सुनकर सतीश जी हँसने लगे. मंजु भी मुस्कुराने लगी. फिर सतीश जी बोले, ‘‘अब तो यह माँस-मछली सब कुछ खा लेती है. इसने तरह-तरह की शराब भी चख रखी है. अब तो शराब के दो पैग लिए बिना इससे रात का खाना ही नहीं खाया जाता.’’

सतीश जी के मुँह से यह सब सुनकर मुझे दुःख भी हुआ और ग़ुस्सा भी आया. दुःख इस बात का था कि वह मंजु जिसका स्थान मेरी नज़रों में इतना ऊँचा था, इतना नीचे गिर गई थी. गुस्सा मंजु पर ही था, उसके इस पतन पर. मैं कुछ नहीं बोला और चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ गया.

सतीश जी और मंजु का खाने-पीने का कार्यक्रम चलता रहा. मैंने देखा कि मंजु ने तो दो ही पैग लिए लेकिन सतीश जी चार-पाँच पैग पी गए. सतीश जी पहले भी हमारे घर में बैठकर शराब पिया करते थे, पर इतनी नहीं. न जाने क्यों आज उन्होंने कुछ ज़्यादा ही पी ली थी.

कुछ देर बाद हम लोगों ने खाना खाया. खाना खाते समय मुझे लगा कि सतीश जी को शायद कुछ ज़्यादा चढ़ गई है.

खाना खाने के बाद सतीश जी और मंजु को वापिस जाना था. वे लोग सतीश जी के बड़े भाई साहब के यहाँ ठहरे हुए थे. हम लोगों ने उनसे बहुत इसरार किया कि वे रात को हमारे यहाँ ही रूक जाएं और अगले दिन चले जाएं, मगर वे लोग नहीं माने. उन लोगों को रात को यहाँ रोक लेने के पीछे मेरी मंशा यह भी थी कि अगले दिन सुबह तक सतीश जी पर चढ़ी शराब का असर कम हो जाएगा और वे ठीक तरह से कार चला पाएंगे.

मगर हमारे काफी कहने के बावजूद वे लोग नहीं रुके और चले गए. हमें काफी चिन्ता हो रही थी कि वे लोग सही-सलामत पहुँच जाएं. उन लोगों को सतीश जी के भाई साहब के घर पहुँचने में लगभग आधा घंटा लगना था. यही तय हुआ था कि वे लोग पहुँचते ही हमें फोन कर देंगे.

मगर आधे घंटे क्या जब पौने घंटे तक उन लोगों का कोई फोन नहीं आया तो मुझे चिंता होने लगी. मैंने सतीश जी का मोबाइल फोन मिलाया, पर घंटी बजती रही. फोन किसी ने नहीं उठाया. मंजु के पास अलग से मोबाइल फोन था. उसका नम्बर लगाने पर भी बात नहीं हो पाई. उसके फोन पर भी घंटी ही बजती रही.

आख़िर हमने सतीश जी के भाई साहब के घर फोन किया. पता चला कि सतीश जी और मंजु अभी तक वहाँ पहुँचे ही नहीं थे. मैंने सतीश जी के भाई साहब से कहा कि वे लोग जैसे ही वहाँ पहुँचे, वे हमें फोन पर सूचित कर दें.

उसके बाद हम लोग अधीरता से फोन की घंटी बजने का इन्तज़ार करने लगे. एक-एक पल बड़ा भारी महसूस हो रहा था. हम यही मना रहे थे कि वे दोनों रास्ते में किसी काम से कहीं रूक गए हों या किसी और के यहाँ चले गए हों.

तभी फोन की घंटी बजी. मैंने लपककर फोन उठाया. उधर से सतीश जी के भाईसाहब की दुःख भरी और घबराई हुई आवाज़ सुनाई दी, ‘‘सतीश की कार का एक्सीडेंट हो गया है. सतीश बहुत ज़ख्मी और बेहोश है, पर मंजु नहीं रही.’’ सुनते ही मैं सन्न रह गया. भारी मन से यह ख़बर मैंने वीना को बताई. मगर मेरे दिमाग़ में तभी यह बात उभरी कि मंजु अब नहीं मरी, असली मंजु तो पहले ही मर चुकी थी.

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