चक्रव्यूह
आख़िर उसने तय कर लिया है कि अपने लिए अलग कमरे काम इन्तज़ाम वह अब कर ही लेगा. अपमान और घुटनभरी ऐसी ज़िंदगी अब और नहीं जी जाती उससे. अब और बर्दाश्त करना मुश्किल है. इस घर में रहकर जलने और कुढ़ने के सिवा वह और कुछ नहीं कर सकता. यहाँ अपनेआप को वह चाहे कितना भी बेइज़्ज़त क्यों न महसूस करता रहे, अपनी बेइज़्ज़ती के जवाब में एक लफ़्ज भी अपने जीजा जी को नहीं कह सकता. कुछ भी जवाब देने से पहले दीदी की सूरत उसकी आंखों के आगे घूमने लगती है और उसे जबरदस्ती अपनेआप को काबू में कब लेना पड़ता है. कई बार तो हालत ऐसी भी बन आई है कि गुस्से में उसकी मुट्ठियाँ भिंच जाती हैं, खून दिमाग़ में तेज़ी से दौरा करने लगता है. उसे लगने लगता है कि अपनेआप को और ज़्यादा काबू में रख पाना अब उसके लिए मुमकिन नहीं हो जाएगा और कोई मुँहतोड़ जवाब वह अपने जीजा जी को दे ही देगा. लेकिन आज तक ऐसा कभी कर नहीं पाया वह. हर बार जल्दी ही वह अपने को सम्भाल लिया करता है.
मगर अब उसे लग रहा है कि और ज़्यादा सह जाने की हालत में वह नहीं है. अब तो कोई सही कदम उसे उठाना ही चाहिए. इस घर में जीजा जी द्वारा किए जाने वाले अपमान का जवाब तो वह दे नहीं सकता. बस यही तरीका है कि वह इस घर से ही चला जाए. इसी में उसकी अपनी और उसकी दीदी और जीजा जी के दाम्पत्य जीवन की भलाई है. शीतयुद्ध तो उसके और जीजा जी के दरम्यान चल रहा है, पर बेचारी दीदी बीच में यूँ ही पिस रही है. वह तो ख़ैर, अपने खराब मूड का असर दीदी पर नहीं पड़ने देता, पर उसके जीजा जी इतने समझदार कहाँ. वे तो अपने बिगड़े मूड से जब तक पाँच-सात आदमियों के मूड की मिट्टी पलीद न कर लें, उन्हें चैन ही नहीं आता.
ख़ैर, जो हो गया सो हो गया. अब कल से ही वह कहीं कमरा तलाशना शुरू कर देगा. ज़्यादा-से-ज़्यादा एक महीना लग जाएगा उसे कमरा मिलने में. आज सितम्बर की अट्ठाईस तारीख है. एक नवम्बर तक तो उसे कोई मनपसन्द कमरा मिल ही जाएगा. वह तब तक के दिन गिनने लगा है. चौंतीस! चौंतीस दिन तो वह इस घर को जेल समझकर किसी तरह काट ही लेगा. हालाँकि इस घर में अब एक दिन तो क्या एक घंटा बिताना भी उसे बोझ लग रहा है. यह भी हो सकता है कि उसके यहाँ से जाने की बात सुनकर उसके जीजा जी का बर्ताव कुछ सुधर जाए और ये चौंतीस दिन ज़रा आसान से कट जाएं. स्थिति बिल्कुल सामान्य होने की तो कोई संभावना उसे नज़र आती नहीं.
लेकिन कमरा लेने से पहले उसे भापा जी से बात कर लेनी होगी. आख़िर वे घर के मुखिया हैं - उसकी दीदी के ससुर. उनकी रजामन्दी तो लेनी ही पड़ेगी. आज शाम को ही वह उनसे इस बारे में बात करेगा. इस बात की संभावना उसे धुँधली ही लग रही है कि वे आसानी से उसे अलग रहने की इजाज़त दे देंगे, पर किसी-न-किसी तरह उन्हें मनाना ही होगा. नहीं मानेंगे तो वह जबरदस्ती पर भी उतर आएगा. आख़िर यह उसके कैरियर का सवाल है. इसके लिए अगर उसे किसी की नाराज़गी भी मोल लेनी पड़े, तो भी उसे हिचकिचाना नहीं चाहिए. वह भापा जी के बैंक से लौट आने का बेसब्री से इन्तजार करने लगा है.
घर में और किसी से इस बारे में पूछना उसे जरूरी नहीं लग रहा. दीदी ऊपर-ऊपर से चाहे लाख कहती रहे कि दिल्ली में मेरे होते हुए तुझे अलग रहने की क्या ज़रूरत है, पर वह ख़ूब समझता है कि अंदर से अब वह यही चाहने लगी हैं कि वह यहाँ से चला ही जाए.
भापा जी, उनकी धर्मपत्नी और उनके बच्चे (उसके जीजा जी को छोड़कर) ऊपर दूसरी मंजिल पर रहते हैं और उसके जीजा जी, उसकी दीदी, उनका पाँच साल का लड़का, बिन्नी, और वह नीचे पहली पर. पहली मंजिल पर एक किराएदार भी है - नया-नया ब्याहा एक जोड़ा.
शाम को उसने भापा जी को अलग से जाकर बात की है. सुनते ही वे उस पर फट पड़े हैं, ‘‘काका, तू अकेला रहेगा कैसे? इस घर में तुझे पचास किसम के आराम हैं जो तुझे अलग कमरे में नहीं मिलेंगे. यहाँ अगर शाम को दफ़्तर से तू दस मिनट भी लेट आता है तो हमें फिकर लग जाती है कि कहाँ चला गया. लेकिन वहाँ तुझे पूछने वाला कौन होगा? यहाँ तुझे सुबह से लेकर रात तक का खाना बना-बनाया मिल जाता है. वहाँ पर या तो तुझे होटलों-ढाबों से खाना पड़ेगा या फिर सारा झंझट खुद ही करना पड़ेगा. बाहर का खाना तो तुझे पता ही है कैसा होता है. आगे ही तेरी सेहत कुछ नहीं है. होटलों का खाना खाकर तो दूसरे महीने ही तेरा इतना-सा मुँह निकल आएगा और अगर तू घर पे खाना बनाएगा तो उसके लिए तुझे जितने झंझट करने पड़ेंगे, उनके बारे में सोचा है कभी? आटा, चावल, दाल, सब्जी, घी, नमक, सबका परबन्ध करना पड़ेगा. कपड़े धोने और घर की सफाई का झंझट अलग होगा. तू पढ़ाई-लिखाई करने वाला आदमी है. ऐसे में तू पढ़ाई की तरफ ध्यान लगाएगा कि बर्तन-चौका किया करेगा? मुझे तो समझ नहीं आ रहा कि इस घर में तुझे ऐसी क्या मुश्किल है जो यह घर छोड़कर तू अलग जाने की सोच रहा है.....’’
उनका बोलना रूका नहीं, जारी है. बार-बार वे उससे यही पूछ रहे हैं कि इस घर में उसे ऐसी क्या दिक्कत है जो वह किराए के कमरे में जाकर जान-बूझकर मुसीबत मोल लेना चाह रहा है. उसके और उसके जीजा जी के बीच कुछ खटपट है और कई महीनों से वे आपस में बात नहीं करते - इतना तो वे जानते हैं, पर पूरी बात का पता शायद उन्हें नहीं है. बिल्कुल पूरी बात तो शायद उसकी दीदी को भी मालूम नहीं.
अब वह भापाजी को अपनी दिक्कतें बताएं भी तो कैसे? उन्हें असलियत से वाक़िफ करवाकर वह उनके और अपने जीजा जी के संबंधों में दरार नहीं पड़ने देना चाहता. बात को गोल-मोल घुमाकर वह कह देता है, ‘‘जी, बात यूँ है कि अब आप लोगों के पास रहते हुए मुझे डेढ़ साल से ज़्यादा तो हो ही गया है. बहन के घर में ज़्यादा देर रहना अच्छा नहीं लगता, और वैसे भी अब मैं दिल्ली में कोई नया तो रहा नहीं, आखिर मुझे अकेले रहने का एक्सपीरिएन्स भी........’’
‘‘क्यों, बहन के घर में रहना क्यों अच्छा नहीं लगता?’’ भापा जी बीच में ही बोलने लगे हैं, ‘‘मेरे लिए तो जैसे मेरे दूसरे बच्चे हैं, वैसे ही तू भी है. इसमें ऐसी क्या बात है? और काका सुन, आजकल का जमाना बहुत खराब चल रहा है. आजकल दिल्ली जैसे शहर में अकेले रहने का कोई हाल नहीं है.
लेकिन वह तो पक्का सोचकर आया हुआ है कि उसे उनकी ‘हाँ’ लेकर ही जानी है. अपनी दलीलें देनी उसने जारी रखी हैं कि मैं पढ़ाई के लिए एकान्त चाहता हूँ, बहन के घर में ज़्यादा देर रहना अच्छा नहीं लगता, वगैरह-वगैरह. हालाँकि उसकी हर समस्या का हल भापाजी उसे सुझा रहे हैं, पर अपनी बात पर अड़ा वह फिर भी हुआ है और उन्हें राजी करने की हर संभव कोशिश कर रहा है. आखिर वे तंग आ गए हैं और उससे कह बैठे हैं, ‘‘ठीक है काका. तू जैसा ठीक समझता है कर. लेकिन देख बेटा, ऐसा करके तुझे पछताना पड़ेगा और वह भी बहुत जल्दी.’’
‘‘आपकी सब बातें ठीक हैं, हो सकता है कल को मुझे पछतावा हो. अगर ऐसा वक़्त आया तो मैं फिर यहीं वापिस आ जाऊँगा.’’ उसने बात को ख़त्म करने की गर्ज़ से कहा है. उसे डर है कि भापा जी कहीं और कोई दलील देकर बनी-बनाई बात बिगाड़ न दें.
इस तरह भापाजी की रज़ामन्दी तो उसने ले ली है. अब बाबूजी से भी फोन पर पूछ लेना चाहिए. उसके घरवाले सब हिसार में रहते हैं. वैसे कुछ दिन पहले जब वह वहाँ गया था तो उसने बीजी और बाऊजी से इस बारे में बात की थी. उन्हें उसके अलग कमरा लेकर रहने पर कोई एतराज नहीं था. लेकिन अब एक बार फोन पर पूछ लेना भी ठीक रहेगा.
खैर, बाबूजी ने तो यही जवाब दिया है कि ठीक है, जैसा तुम ठीक समझते हो, करो. बस अब कल से ही कहीं कमरे का बन्दोबस्त करने की कोशिश शुरू कर देनी है. कमरा भी तो उसे कोई ऐसा चाहिए जहाँ शोरगुल न हो और वह आराम से आई.ए.एस. की तैयारी कर सके. कमरे के लिए भापा जी को कहना तो ठीक नहीं रहेगा, क्योंकि एक तो वे उसके अलग रहने के पक्ष में ही नहीं हैं, इसलिए हो सकता है कि वे जानबूझकर ही कोई कमरा न मिलने की बात कहकर उसे टालते रहें. दूसरे, आमतौर पर बीमार से रहने से वे खुद तो इस मामले में उसकी कोई मदद कर नहीं पाएंगे. मकान ढूंढने के लिए तो न जाने कहाँ-कहाँ के धक्के खाने पड़ते हैं. इस बारे में कुछ करने के लिए वे अपने सबसे बड़े लड़के यानी कि उसके जीजा जी को ही कहेंगे, जिनकी मदद वह हरग़िज नहीं लेना चाहता. वैसे उसे यह भी लगता है कि भापाजी के कहने पर अगर जीजा जी उसके लिए कोई कमरा तलाश करके देंगे भी तो वह कुछ-न-कुछ गड़बड़वाला ही होगा. इसके अलावा अगर भापाजी ख़ुद कोई इन्तज़ाम करवा पाएंगे तो शायद अपने घर के आसपास ही कहीं. लेकिन कीर्ति नगर में दीदी के घर रहते हुए वह इतना परेशान, दुःखी और अपमानित हो चुका है कि अब उसी कॉलोनी में रहने की बात सोचते ही उसका मन कड़वाहट से भरने लगता है. वह वहाँ से दूर चला जाना चाहता है - बहुत दूर. इस घर का किरायेदार, चोपड़ा, भी लखनऊ से नया-नया ट्रांस्फर होकर यहाँ आया है. नहीं तो वह उसकी कुछ मदद जरूर करता. अच्छा आदमी है वह.
इस तरह कमरे का इन्तज़ाम करने की सारी ज़िम्मेदारी अब उसके सिर पर ही है, हालाँकि दिल्ली में उसकी जान-पहचान कोई ख़ास ज़्यादा नहीं. ख़ैर, इस बारे में वह कल दफ़्तर में अपने दोस्तों, सुधीर और खन्ना, से बात करेगा. वे दोनों तो जन्म से ही दिल्ली में रह रहे हैं. इस मामले में वे जरूरी उसकी मदद कर सकेंगे.
रात को बिस्तर पर लेट जाने के बाद भी यही ख़याल उसके दिलो-दिमाग़ पर छाए हुए हैं. अब तो बस चौंतीस रातें ही उसे इस दीवान पर काटनी हैं. उसके बाद तो वह अपने कमरे में सोया करेगा. हाँ, अपने कमरे में. बहुत सो लिए यहाँ. बहुत देख ली यहाँ की हालत. जितनी देर घर में रहो, अपमान और पीड़ा के घूँट पीते रहो. यह जीना भी कोई जीना है. ठीक है अलग रहने पर उसे बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. अपनी 5,453 रुपये की तनख्वाह में से कमरे का करीब सत्तर-अट्ठारह सौ रुपये किराया भी निकालना पड़ेगा. पर इन सबका मतलब यह तो नहीं कि वह अपना स्वाभिमान बेचकर यहाँ कुत्तों की-सी ज़िंदगी जीता रहे. उसकी सारी सोच इसी बात के चारों ओर घूम रही है.
दस महीने पहले जब वह हिसार से यहाँ आया था तब तो उसके जीजा जी उससे काफी अच्छी तरह पेश आया करते थे. तब तो बहुत ख़याल रखा करते थे वे उसका - ज़रूरत से भी ज्यादा. उनके बर्ताव से हालाँकि काफी बचकानापन झलका करता था, लेकिन इसके बावजूद उन दिनों अगर वह उन्हें पसंद नहीं करता था तो नापसंद भी नहीं किया करता था. उन्हीं दिनों जब उसने अपने लिये अलग किराए का कमरा लेने की बात उठाई थी तो सबसे ज़्यादा विरोध उसके जीजा जी ने ही किया था कि उसे अलग नहीं रहने देना.
पर अब तो बात ही और हो गई थी. अब तो वह उनकी शक्ल देखने से भी कतराने लगा था. पिछले कई महीनों से उनसे बात करना तो दूर, वह उनके मुँह की तरफ भी नहीं देखा करता था. उनसे नफरत-सी हो गयी थी उसे.
उनके प्रति इस नाराज़गी, ग़ुस्से और नफरत की शुरूआत किसी विशेष घटना से नहीं हुई थी. बस यूँ ही धीरे-धीरे उनके बचकाने बर्ताव की वजह से यह सब होता चला गया था.
वह गम्भीर प्रकृति का लड़का था. मगर उम्र में उससे आठ-दस साल बड़े होने के बावजूद उसके जीजा जी अभी तक बचकानी और फूहड़ हरकतें किया करते थे. घड़ी में गुस्से से लाल हो जाना और घड़ी में बिल्कुल ठंडा पड़ जाना उनकी आदत थी. ऐसी-ऐसी ऊटपटाँग बातें वे किया करते कि क्या कहा जाए.
शाम को दफ़्तर से वापिस आने पर उसके घर में कदम रखते ही वे कहने लगते, ‘‘लो फाइनेंस मिनिस्टर साहब आ गए हैं.’’ - (वह वित्त मंत्रालय में क्लर्क था.)
शनिवार और इतवार की दो छुट्टियों के साथ दो-तीन छुट्टियाँ और लेकर वह हर महीने हिसार जाया करता था. इन छुट्टियों के अलावा महीने में जब भी किसी दिन दफ़्तर में उसकी छुट्टी होती, उससे पहली शाम को उसके घर वापिस आते ही वे कहने लगते, ‘‘अब देखते जाओ, अब फाइनेंस मिनिस्टर साहब अटैची तैयार करके आठ बजे की फ्लाइट से हिसार जा रहे हैं.’’ उनकी ऐसी बातों पर शुरू-शुरू में जहाँ वह ख़ुश हुआ करता था, धीरे-धीरे इनसे वितृष्णा-सी होने लगी थी उसे. उनकी बेमतलब की बेकार बातों पर हँसी उसे आती नहीं थी, पर सामनेवाले का दिल रखने के लिये उसे मुस्कुराना पड़ता.
उसकी हर व्यक्तिगत बात की तह तक जाने की कोशिश वे किया करते. यहाँ तक कि अपनी अटैची की तलाशी लिए जाने का शक भी उसे अक्सर होता था.
शायद उसकी वितृष्णा की भनक उसके जीजा जी को पड़ गयी थी, क्योंकि उन्होंने उसके छोटे-बड़े सभी कामों में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए थे.
सुबह उठकर जो पत्र-पत्रिका वह पढ़ रहा होता, उसके ब्रश करके वापिस आने पर वह उनके हाथों में पहुँच चुकी मिलती.
दफ़्तर के लिए उसे साढ़े आठ बजे घर से निकलना होता था. वे पौने दस बजे निकलकर भी आराम से अपने बैंक पहुँच सकते थे, क्योंकि वह घर के पास ही था. सुबह आठ बजे के करीब वह शेव किया करता था. मगर आठ बजे के आसपास जब वह अपने काग़ज़-पत्र समेट रहा होता, तो उसके जीजा जी, जो अब तक आराम से सोफे पर पसरे हुए होते थे, अपनी तहमद सम्भालते हुए उछलकर खड़े हो जाते और बेडरूम में रखे ड्रेसिंग टेबल के सामने जाकर शेव की तैयारी शुरू कर देते. उनसे यह कहने की हिम्मत उसमें होती नहीं थी कि वे पहले उसे शेव करने दें. उनके गुस्से से वह वाकिफ था. उसे मालूम होता था कि उसके ऐसा कह देने भर से ही उन्होंने ग़ुस्से से लाल-पीला हो जाना है और दो-तीन दिन तक घर से खाना नहीं खाना, न किसी से बोलना है और न किसी से बात करनी है.
और कोई शीशा था नहीं जिसके सामने वह शेव कर सकता. शेव करने के लिए दूसरी मंजिल पर जाना उसे ठीक नहीं लगता था, क्योंकि ऐसा करने से ऊपरवालों को उन दोनों के बीच की खटपट की भनक पड़ जाने का डर होता था. वह बस जलभुन कर रह जाता.
चार्टेड बस निकल जाने का डर उसे अलग से सताने लगता, क्योंकि शेव करने के बाद उसके जीजा जी ने फटाफट गुसलखाने में घुसकर नहाना शुरू कर देना होता था. आमतौर पर वे चाहे बाहर हैंडपंप पर ही नहा लिया करते हों या चार-पाँच मिनट में ही नहाकर गुसलखाने से बाहर आ जाते हों, मगर ऐसे मौकों पर वे गुसलखाने में ही नहाने के लिए जाया करते और पन्द्रह-बीस मिनट से पहले न निकलते. उसकी हालत खराब होने लगती.
उनके शेव करने के दौरान वह नहाने के लिए भी नहीं जा पाता था, क्योंकि उसके ऐसा करने पर उन्होंने झटपट शेव खत्म करके, गुसलखाने का दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर देना होता था और उसके एक-डेढ़ मिनट के अन्दर-अन्दर बाहर निकल आने के बावजूद किसी काम के लिए लेट कर दिए जाने की शिकायत करने लग जाना होता था.
जब उसके जीजा जी ‘नहाने’ के लिए गुसलखाने में घुसे होते तो वक़्त पर तैयार हो जाने के लिए शेव के बाद वह अपने वे छोटे-मोटे काम करना शुरू कर देता जो उसे नहाने के बाद करने होते थे, जैसे कि बूट साफ करना, बैग में पैन, पास वगैरह डालना, उस दिन पहन जाने वाले कपड़े निकालना, वग़ैरह-वग़ैरह.
यूँ शेव करने के लिए एक छोटा शीशा वह बाजार से ला सकता था, पर यही सोचकर टाल जाता कि इससे दीदी का दिल और भी दुःखी होगा, क्योंकि दीदी को उन दोनों के बीच की खटपट का पता और ज़्यादा साफ तरीके से लग जाएगा. साथ ही अपने जीजा जी के ग़ुस्से का डर भी उसे था.
धीरे-धीरे उसके जीजा जी का बर्ताव उसके प्रति और खराब होता चला गया था. उसके प्रति उनके दुराव का एक कारण शायद यह भी था कि पैंतीस-छत्तीस साल की उम्र हो जाने पर भी वे बैंक में क्लर्क ही थे. क्लर्क तो वह भी था, पर वह पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज़ था और जल्दी ही उसके किसी ऊँची जगह पर पहुँच जाने की काफी संभावनाएं थीं.
कोई बड़ी नौकरी हासिल करने के लिए प्रतियोगिताओं की तैयारी वह जी-तोड़ मेहनत के साथ किया करता. पर अब तो वह भी सही तरीके से होनी मुश्किल होती जा रही थी, क्योंकि जैसे ही वह कोई किताब लेकर बैठता, उसके जीजा जी के हाथ ट्रांजिस्टर की ओर बढ़ जाते और वे काफी ऊँची आवाज़ में गाने या कोई और प्रोग्राम लगा देते. उसके तन-बदन में आग लग जाती. मगर ट्रांजिस्टर को बन्द कर पाना उसके बस में नहीं होता था. कुछ देर पढ़ते रहने का नाटक करने के बाद वह स्टूल लेकर घर के पिछवाड़े आ जाता और पढ़ना शुरू कर देता. ट्रांजिस्टर की धीमी-धीमी आवाज़ यहाँ भी आ रही होती, पर इसका इलाज उसके पास नहीं होता था. सबसे ऊपर वाली छत पर जाकर भी पढ़ाई नहीं की जा सकती थी, क्योंकि वहाँ तक पहुँच रहा दूसरी मंजिल पर रहने वालों का शोर भी कुछ कम नहीं होता था.
अब जब वह बाहर आकर पढ़ने लगता तो उसके जीजा जी के दिमाग़ में फिर से कोई कीड़ा कुलबुलाने लगता. वे भी पिछवाड़े आ जाते और उससे कुछ दूर खड़े होकर अपने स्कूटर को बेवजह जाँच-पड़ताल करने लगते. जान-बूझकर शोर पैदा करना शुरू कर देते. कभी हथौड़ी से कुछ ठोकने लगते और कभी दूसरी मंज़िल की तरफ मुँह करके ज़ोर-ज़ोर से अपने भाई, पप्पू, को आवाज़ें देने लगते, कि फलां औजार कहाँ रखा है, फलाँ चीज कहाँ रखी है. उसका मन गुस्से से जलने लगता.
शुरू-शुरू में अपने जीजा जी की ऐसी हरकतों की शिकायत उसने दीदी से की थी. लेकिन ऐसा करने पर उसके हाथ पछतावे के सिवा और कुछ नहीं आया था. क्योंकि जब-जब ऐसी कोई शिकायत वह किया करता, वह देखता कि वे उसकी दीदी से भी नाराज़ हो जाते. कई-कई दिनों तक आपस में उनकी बातचीत तक होनी बन्द हो जाती. साथ ही उसके जीजा जी की उसे तंग करने की कोशिशें भी और बढ़ जातीं. इसलिए हारकर उनसे दीदी को इस बारे में कुछ भी कहना बिल्कुल बन्द कर दिया था. यही सब सोचते-सोचते वह नींद के सागर में डुबकियाँ लगाने लगा है.
अगले दिन उसने सुधीर और खन्ना से कमरे के बारे में बात की है. उसे काफी उम्मीद थी कि उसके उनसे इस बारे में बात करते ही वे उसे दो-चार मकान सुझा देंगे और वह बाद में उनमें से अपनी पसंद का कमरा चुन लेगा. लेकिन उसकी बात सुनकर उसके दोनों पक्के दोस्तों ने एक-दूसरे से मिलता-जुलता कुछ यूँ-सा जवाब दिया है कि यार, आजकल किराए पर मकान मिलना कोई आसान बात नहीं. और फिर छड़े आदमी को तो कमरा देने को कोई वैसे ही तैयार नहीं होता. हाँ, फिर भी इस बारे में पता करूंगा, शायद तेरा काम बन जाये.
किराये के बारे में पूछने पर उसे पता चला कि ठीक-ठाक-सा कमरा लेने पर करीब दो हज़ार रुपये महीना तो देने ही पड़ेंगे. बिजली-पानी का खर्च अलग से होगा. कमाल है. उसके हिसार में तो हजार-बारह सौ में आराम से अच्छा-खासा कमरा मिल जाता है और यहाँ दो हज़ार रुपये. लगभग दुगने. उसने तो सोच रखा था कि दिल्ली चूँकि बहुत बड़ा शहर है इसलिए वहाँ पन्द्रह-सोलह सौ रुपये तक किराया लग जायेगा. लेकिन दो हजार रुपये. इतना दे पाना तो बहुत मुश्किल होगा उस जैसे 5,453 रुपये महीना पाने वाले क्लर्क के लिए.
दीदी के घर में तो वह खाने-पीने के खर्च के कुल 1,750 रुपये ही दिया करता है. बाकी सारी तनख्वाह उसके पास ही रहती है. मगर इसके बावजूद महीने के आख़िर में बचत के नाम पर उसक पास कुछ भी नहीं होता.
हर महीने हिसार आने-जाने पर लगने वाले किराए, वहाँ अपने परिवार वालों के लिए कुछ-न-कुछ ले जाने, अपने लिए कपड़े-लत्ते बनवाने, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए किताबें वग़ैरह खरीदने में ही उसकी बाकी सारी तनख़्वाह उड़ जाया करती है.
मगर अलग रहने पर एक तो खाने-पीने और दूसरी ज़रूरतों पर उसका खर्च काफी ज़्यादा हो जायेगा. दूसरे, मकान का किराया भी देना पड़ेगा सो अलग. ऐसे में उसका खर्च चलेगा कैसे? वह सोच में पड़ गया है. किराये का कमरा ले या नहीं. दो हज़ार रुपए महीना तो काफी तगड़ी रकम है. लेकिन अब इस घर में उसका गुज़ारा भी तो नहीं चल सकता न. बहुत देख लिया. हर जतन करके आज़मा लिया. हालात में किसी तरह का सुधार होता नज़र नहीं आता. और अब तो उसने अलग रहने के लिए भापाजी की रज़ामंदी भी ले ली है. अब तो अपनी बात से वापिस हटना थूककर चाटने जैसी बात होगी. ठीक है, अगर उसे अपने स्वाभिमान और कैरियर का ख़याल है तो उसे किराये का कमरा ले ही लेना चाहिए. अपने दूसरे ख़र्चे वह घटाने की कोशिश करेगा, और क्या.
अगले दिन दफ़्तर पहुँचते ही उसने सुधीर और खन्ना के सैक्शनों में जाकर कमरे के बारे में पूछा है. सुधीर तो उसकी बात सुनते ही सिर पर हाथ मारकर बोला है, ‘‘ओ यार, वैरी सॉरी! ये बात तो मैं बिल्कुल भूल ही गया था. यार, कल शाम को अचानक चाँदनी चौक वाला मेरा कज़न आ गया, बस उसके साथ बातों में ऐसा मस्त हुआ कि तेरी वाली बात दिमाग़ से बिल्कुल निकल गई. वैरी सॉरी यार! आज इस बारे में जरूर पता करूंगा.’’
खन्ना ने उसकी बात का जवाब यूँ दिया है, ‘‘भई, मैंने घर में इस बारे में बात की थी, फिलहाल मेरे घरवालों की नज़र में तेरे लिए कोई कमरा है नहीं. अगर कोई पता चला तो पाँच-छह दिनों तक तुझे बता दूँगा.’’
आसार अच्छे नहीं - उसे लग रहा है. इस तरह तो बात बनेगी नहीं. पर अभी सुधीर के जवाब का इन्तजार उसे है. लेकिन अगले दिन उसे सुधीर से भी खन्ना जैसा जवाब ही मिला है. सुनकर अपने हौंसले पस्त-से होते दिखायी देने लगे हैं उसे. जब उसके पक्के दोस्त ही इस बारे में उसकी मदद करने में कामयाब नहीं हो पा रहे, तो औरों से क्या उम्मीद की जा सकती है? पर कमरे का बन्दोबस्त तो किसी-न-किसी तरह करना ही है. इसके लिए अब उसे सरगर्मी से दौड़-धूप करनी होगी.
दफ़्तर में अपने कुछ और जानकार लोगों को भी कमरेवाली बात उसने कही है. कुछ ने तो उसे उसी वक़्त टका-सा जवाब दे दिया है, जबकि कुछ लोगों से उसे गोल-मोल-सा जवाब मिला है.
कुल मिलाकर दो-चार दिन बाद ही उसकी आँखों के आगे की धुँध साफ होनी शुरू हो गई है. यह उसे अच्छी तरह से पता चल गया है कि यूँ आसानी से उसे ढंग का कमरा मिलने वाला नहीं. ऐसी बात भी नहीं कि उसे कहीं से आशाजनक उत्तर मिला ही न हो, मगर ऐसी कुछ जगहों पर कहीं किराया बहुत ज़्यादा था और कहीं लोकेलिटी बहुत घटिया थी. दो-चार जगह मनपसन्द कमरा मिलने की उम्मीद लेकर वह गया भी था, लेकिन कमरा देखने पर उसे लगा था कि वह जगह उसके रहने लायक नहीं. एक-दो जगह तो कमरा घर के बीच में ही था. ज़ाहिर है वहाँ शांति और एकांत की उम्मीद करना ही फिजूल था - वह भी तब जब घर में सात-आठ जने हों. इसी तरह एक-दो जगह अलग कमरा था तो छत पर, लेकिन मकान के आसपास का माहौल इतना शोर भरा था कि उस कमरे में सिर्फ़ रहा जा सकता था, पढ़ा नहीं.
इस तरह पन्द्रह-बीस दिनों की उसकी दौड़धूप का कोई नतीजा सामने नहीं आया. अक्टूबर की 17 तारीख हो गई है और उसे लगने लगा है कि इस तरह तो उसे एक नवम्बर तक क्या, एक दिसम्बर तक भी कमरा नहीं मिल पाएगा.
उसे काफी उम्मीद थी कि कुछ दिनों बाद उसके इस घर से चले जाने की बात जानकर उसके जीजा जी का सुलूक उसके साथ कुछ सुधर जाएगा, पर इन दिनों तो उनका बर्ताव उल्टे और खराब हो गया है. शायद आख़िरी कुछ दिनों में वे सारी कसर निकाल लेना चाहते हैं.
वह ड्राइंगरूम में दीवान पर सोया करता है और उसकी दीदी, जीजा जी और बिन्नी साथ के बेडरूम में. सर्दियाँ होने के कारण रात को सोते वक़्त वह खिड़कियाँ बंद कर लिया करता है. सुबह उठकर ऐनक पहनने के बाद सबसे पहला काम वह खिड़कियाँ खोलने का ही करता है. खिड़कियाँ खुलने की आवाज आते ही उसके जीजा जी उछलकर बिस्तर से खड़े हो जाते हैं और बाथरूम में घुस जाते हैं. फिर पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही वे बाहर निकलते हैं. यह बात वह पिछले कई दिनों से नोट कर रहा है. इस बात से वह अच्छी तरह वाकिफ है कि ऐसा सिर्फ़ उसे तंग करने के लिए ही किया जाता है. चाहे उन्हें बाथरूम जाने की ज़रूरत हो या नहीं, पर उसकी नींद खुली देख कर ऐसा करना उन्हें याद आ जाता है.
उसे लगने लगा है कि दिल्ली में अपनेआप किराये का कमरा ढूँढ पाना उसके बस की बात नहीं. वे दिन उसे अक्सर याद आते हैं जब वह नौकरी नहीं किया करता था और हिसार में कॉलेज में पढ़ता था. वे दिन कितने ख़ुशनुमा, कितने प्यारे थे. उन दिनों तो इस तरह की चिंताएँ उसे कभी हुई भी नहीं थीं. मगर अब तो उन सुहाने दिनों की बस याद ही बाकी रह गई है.
अखबारों के ‘टू लेट’ के विज्ञापनों को भी वह आज़माकर देख चुका है. दो-चार ऐसे मकान उसने जाकर देखे थे. उसे पसन्द भी आये थे. लेकिन बात जैसे ही किराए पर आती, उसकी हालत ख़स्ता होने लगती. कहीं भी कमरे का किराया उसे तीन-साढ़े तीन हज़ार से कम नहीं बताया जाता था. अब 7,600 रुपए की तनख़्वाह में से इतना किराया तो वह किसी भी हालत में नहीं दे सकता था. अभी तो उस पर अपने दफ़्तर के साथियों की तरह हर महीने घरवालों को कुछ भेजने का दायित्व नहीं था.
प्रॉपर्टी डीलरों के पास जाने पर भी यही हालत हुई थी उसकी. यह बात नहीं कि मर्ज़ी का मकान मिल नहीं सकता था. मिल सकता था, पर सबसे बड़ी बात किराए की होती, जो इतना ज़्यादा होता जिसे देने से उसकी जेब इन्कार करने लगती. कम किराए वाले मकान ऐसी असुविधाजनक जगहों में होते जहाँ रहना उसे गंवारा नहीं था.
उसकी दीदी के ससुरालवालों में से अभी तक किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसके लिए कमरे का बन्दोबस्त हो पा रहा है कि नहीं और न ही कमरा ढूंढने में उसकी मदद करने की कोई पेशकश उन्होंने की है. वजह इसकी शायद यही हो सकती है कि वे लोग नहीं चाहते हैं कि वह यहाँ से जाए. उसने भी उनसे इस बारे में अभी तक कोई बात नहीं की. उसकी दीदी ने भी इस बारे में उससे कभी कुछ नहीं पूछा. शायद उसे लगता हो कि उसके ऐसा करने पर वह समझेगा कि वह चाहती है कि वह यहाँ से चला जाए. बस ख़ुद उसने ही एक-दो बार उससे कहा है कि कमरा वह पूरी सरगर्मी से ढूंढ रहा है और उम्मीद है कि जल्दी ही वह उसे मिल भी जाएगा. यह भी उसने इसलिए कहा है कि यह बात उसके जीजा जी के कानों से निकल जाए.
उसकी कोशिशें जारी हैं. कमरे के लिए पूरी सरगर्मी से भागदौड़ वह कर रहा है. दफ़्तर में उसी के सैक्शन में काम करने वाले हरजीत की मदद से आज वह एक कमरा देखने गया था. कमरा उसे बहुत पसन्द तो नहीं आया, पर फिलहाल इसमें गुजारा चलाया जा सकता है. किराया उसे 3,100 रुपये बताया गया है, जिसे कम करवाने के लिए उसने बहुत ज़ोर मारा है, लेकिन मकान मालिक नीचे खिसकने को कतई तैयार नहीं. वह तो उल्टे उस पर एहसान झाड़ने लगा है कि हरजीत का दोस्त होने की वजह से यह कमरा मिल रहा है, वरना अकेले लड़के को आजकल कमरा देता कौन है. मकान मालिक का बर्ताव उसे अखर रहा है, मगर इसके बावजूद 2,050 रुपयों पर ही कमरा ले लेने की हामी उसने भर दी है. एडवांस के तौर पर डेढ़ हज़ार रुपये भी उसने मकान मालिक को दे दिए हैं और पाँच दिनों बाद एक दिसम्बर को अपना सामान ले आने की बात भी उसने कह दी है.
वह बहुत ख़ुश-ख़ुश घर पहुँचा है कि चलो आख़िर ख़ुद ही किराए का कमरा ढूँढ लिया. कमरा मिल जाने की बात उसने घर में सबको बता दी है, लेकिन मकान नम्बर उसने जानबूझकर गलत बताया है ताकि उसके जीजा जी कहीं कुछ गड़बड़ न कर दें. हिसार में अपने घरवालों को भी इस बारे में उसने फोन पर बता दिया है. वह रोज़ दिन गिना करता है कि अपने कमरे में जाने में आज चार दिन रह गए हैं, आज तीन दिन रह गए हैं.
लेकिन इकत्तीस अक्टूबर की सुबह दफ़्तर पहुँचने पर हरजीत ने उसे जो ख़बर सुनाई है, उसे सुनकर वह भौंचक्का रह गया है. हरजीत ने उसे बताया है कि वही कमरा 3,200 रुपये पर लेने को कोई तैयार हो गया है और मकान मालिक ने अब उसी को अपना किरायेदार बनाने का फैसला किया है. ज़्यादा किराया मिलने के साथ-साथ एक ख़ास बात यह भी है कि वह आदमी छड़ा नहीं, बीवी-बच्चों-वाला है. आज सुबह वह किराएदार अपना परिवार और सामान लेकर आ भी गया है. मकान मालिक ने हरजीत के हाथों एडवांस के डेढ़ हजार रुपये उसे वापिस भिजवा दिए हैं.
हे भगवान, यह क्या हो गया! वह तो अपने ख़ुद के कमरे में जाने की खुशी और जोश में आज सुबह ही अपना सारा सामान बाँध भी आया था.
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