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खौलते पानी का भंवर - 4 - ज्वार

ज्वार

मेरे जी में आ रहा था कि उठकर विनोद का गला दबा दूँ. मैं उसे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था. वजह बिल्कुल साफ़ थी - मंजु, सिर्फ़ मंजु, दूर के रिश्ते की मेरी बुआ की लड़की.

थोड़ी देर पहले ही विनोद और मैं कैथल से आगरा आए थे - घूमने. आने से पहले मेरे घरवालों ने मुझसे कहा था कि अपनी बुआ जी के यहाँ ही ठहर जाना. तुम लोगों को आराम रहेगा. बुआ जी लोग थे भी बड़े अमीर. हम दो जनों के चार-पाँच रोज़ उनके यहाँ रूकने से उन्हें कोई फ़र्क पड़नेवाला नहीं था.

दोपहर एक बजे के करीब हमारी गाड़ी आगरा पहुँची थी. स्टेशन से हम सीधे बुआ जी के घर ही गए थे. लेकिन बुआ जी तक ने मुझे नहीं पहचाना था. पहचानतीं भी कैसे? कैथल में उनका आना कभी-कभार ही होता था और वैसे भी आठ-दस साल पहले उन्होंने मुझे तब देखा था जब मैं अभी छठी-सातवीं में पढ़ा करता था. ख़ैर, बताने पर तो वे पहचान गई थीं. मंजु और उसके छोटे भाई, टीटू, से तो मैं ज़िंदगी में मिल ही पहली बार रहा था. इससे पहले उनके बारे में सुना-भर ही था. फूफा जी उस वक़्त घर पर नहीं थे. वे दुकान पर थे. उनका कपड़े का बहुत लम्बा-चौड़ा व्यापार था.

ड्राइंगरूम में सबके साथ बैठे हुए मैं बुआ जी से तो बतिया रहा था, पर मैंने अभी तक मंजु से अपनी तरफ़ से कोई बात नहीं की थी. बस उसके दो-चार सवालों के जवाब ही दिए थे. लेकिन दूसरी तरफ विनोद था, जो बस मंजु में ही दिलचस्पी ले रहा था. उससे इधर-उधर की बातें वह लगातार किए जा रहा था. वह तो उससे बरसों पुरानी जान-पहचान की-सी आत्मीयता स्थापित करना चाह रहा था.

विनोद के मंजु की तरफ़ अत्यधिक झुकाव की वजह तो मुझे मालूम थी - उसकी अत्यधिक रसिक प्रवृति. अगर वह मंजु से सामान्य ढंग से बात करता, तब तो चलो कोई बात नहीं थी. पर उसकी बातों में लड़कियों के करीब रहने की अतृप्त चाह मैं अच्छी तरह से महसूस कर रहा था. और फिर एक बात और भी तो थी. अगर वह किसी और लड़की से इस तरह बातें करता, तब भी मुझे एतराज़ न होता. मगर अब तो वह उस लड़की से घुल-मिल जाना चाह रहा था, जो, चाहे दूर के रिश्ते से ही सही, लगती तो मेरी बहन ही थी.

यह सब देख और समझ मेरे अंदर कुछ खौलने-सा लगा था. वही विनोद जिस पर मैं जान छिड़का करता था, अब अचानक मुझे बुरा-बुरा-सा लगने लगा था. यूँ ऊपर-ऊपर से देखा जाए तो वह शायद कुछ भी ग़लत नहीं कर रहा था. लेकिन फिर भी ऐसा कुछ था जिसने मेरे दिल में उसके प्रति नाराज़गी और गुस्सा पैदा करना शुरू कर दिया था.

बुआ जी उठकर रसोई में चली गई थीं - हम दोनों के लिए खाना बनाने. वे सब तो हमारे आने से पहले ही खा चुके थे. कुछ मंगवाने के लिए बुआजी ने टीटू को बाज़ार भेज दिया था.

कुछ देर तो मैं नज़रें नीची किए चुपचाप बैठा विनोद और मंजु की बातचीत सुनता रहा. उस वक़्त वह मंजु से उसके बी.ए. के विषयों के बारे में पूछ रहा था. लेकिन मैं ज्यादा देर तक चुप न बैठ पाया. यहाँ आकर मेरे दिल में विनोद के प्रति अचानक पैदा होती जा रही नाराज़गी और गुस्से ने मुझे भी बोलने पर मजबूर कर दिया और मैंने मंजु से आगरा की देखने लायक जगहों के बारे में पूछताछ शुरू कर दी.

विनोद शायद मेरे दिल की बात भाँप गया था. मंजु को मुझसे बातें करते देख उसने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उससे उन दिनों आगरा में चल रही फिल्मों के बारे में पूछना शुरू कर दिया.

और फिर तो हम दोनों में इस बात की होड़ ही लग गई कि कौन मंजु का ध्यान अपनी ओर ज़्यादा आकर्षित कर पाने में सफल होता है. जिस वक़्त वह विनोद से बात कर रही होती, मुझे चिढ़न-सी होने लगती और जब वह मुझसे संबोधित होती, तो विनोद का मुँह बुरा-सा बन जाता.

खाना-वाना खाकर हम दोनों घूमने जाने के लिए तैयार होने में लग गए थे. कंघी करते वक़्त विनोद मुझसे बोला था, ‘‘यार, मैं तो दिन में जब तक दस-बारह बार कंघी न करूँ, मेरा हेयर-स्टाइल ही ठीक नहीं रहता.’’ हालाँकि यह बात उसने मुझसे मुख़ातिब होकर ही कही थी, लेकिन मैं अच्छी तरह समझ गया था कि पास बैठी मंजु को सुनाने की ग़र्ज से ही यह कहा गया था.

अब भला मैं कैसे चुप रह सकता था? मैंने भी दहला मारा था, ‘‘भई मैंने तो जिस दिन कपड़ों पर इंर्पोटेड सेंट न छिड़का हो ना, मुझे तो यूँ लगता रहता है जैसे मैं कई दिनों से नहाया ही नहीं हूँ.’’

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ताजमहल और उसके बाद फिल्म का ईवनिंग शो देखते हुए मंजु का ख़याल मेरे दिल से काफ़ी हद तक उतर चुका था. विनोद का साथ अब मुझे बुरा नहीं लग रहा था. मंजु की उपस्थिति में जो तनाव महसूस होने लगा था, वह अब ग़ायब-सा होता जा रहा था. विनोद भी ताजमहल के सौंदर्य और फिल्म की कॉमेडी में खो गया लगता था.

घर आने तक हालत ऐसी ही रही थी. लेकिन मंजु का सामना होते ही मुझे दिल पर एक भारीपन-सा फिर से महसूस होने लगा था. विनोद भी फिर से कुछ-कुछ तनावयुक्त-सा लगने लगा था.

बुआ जी से हमें पता चला था कि आठ बजे के करीब फूफा जी घर आए थे, मगर थोड़ी देर बाद ही एक बारात में शामिल होने चले गए थे. आधे-पौने घंटे तक उनके लौट आने की उम्मीद थी.

मंजु पर रंग जमाने की हमारी कोशिशें अब फिर से शुरू हो गई थीं. लेकिन यह समझ नहीं आ रहा था कि वह ज़्यादा प्रभावित किससे हो रही है - मुझसे या विनोद से. कभी लगता कि मेरे व्यक्तित्व ने उस पर जादू कर दिया है और कभी यूँ महसूस होने लगता कि मेरी छुट्टी करके वह मंजु पर अपनी धाक जमाने में कामयाब हो गया है.

मंजु को प्रभावित करने की हमारी कोशिशें अगली सुबह हमारे घूमने जाने तक भी बरक़रार थी. आगरा का किला और बुलन्द दरवाज़ा देखने हम दोनों ही गए थे. मंजु से साथ चलने के लिए हमने कहा भी नहीं था. कहते भी तो फूफा जी कोई बहाना बनाकर उसे हमारे साथ नहीं जाने देते - ऐसा हमें लग रहा था. टीटू को साथ ले जाने के लिए हमने कहा था. लेकिन बुआजी ने यह कहकर उसे हमारे साथ जाने से रोक दिया कि इसे तो स्कूल जाना है. वह छठी में पढ़ता था.

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रात को घर आने के बाद हम सब डाइनिंग टेबल पर बैठे खाना खा रहे थे. खाते वक़्त विनोद से थोड़ी-सी सब्ज़ी उसकी पैंट पर गिर गयी. मैं उसके बिल्कुल करीब बैठा हुआ था, इसलिए सिर्फ़ मुझे ही इस बात का पता चला. और किसी को बाद में भी यह बात मालूम होती क्योंकि सब्ज़ी गिरी ही बिल्कुल मामूली-सी थी और फिर विनोद की पैंट का रंग भी गाढ़ा काला था. मगर विनोद को नीचा दिखाने का मुझे यह बिल्कुल सही मौका जान पड़ा और मैं झट से बोल उठा, ‘‘भई विनोद, कागज पर ड्राइंग करना तो तेरे बस की बात नहीं, लेकिन पैंटों पर तो सब्ज़ी से तू काफ़ी अच्छी ड्राइंग बना लेता है. तुझे तो इनाम मिलना चाहिए.’’

यह सुनकर जबकि और सब आहिस्ता से मुस्कुरा उठे थे, विनोद का मुँह गुस्से से लाल हो आया था. उफनता हुआ वह बोला था, ‘‘अबे, इनाम तो तुझे मिलना चाहिए जिसे ड्राइंग करने के लिए पैंटों की भी जरूरत नहीं पड़ती. जरा शीशे में अपना थोबड़ा तो देखकर आ! तूने तो मुँह पर ही ड्राइंग कर ली है सब्जी से!’’

फूफा जी, बुआ जी, मंजु और टीटू मंद-मंद मुस्काते हुए हमारी इस नोंक-झोंक का आनन्द ले रहे थे.

विनोद की यह बात सुनकर मुझे ग़ुस्सा तो बहुत आया, पर साथ ही अचरज भी हुआ. अचरज मुझे इसलिए हो रहा था क्योंकि मुझे पूरा विश्वास था कि खाना खाना मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ. खाते वक़्त मुँह या कपड़ों को मैंने शायद ही कभी खराब किया हो. फिर इस विनोद के बच्चे ने यह कैसे कह दिया कि मैंने अपने मुँह पर सब्जी से चित्रकारी कर ली है. और फिर वहाँ बैठे किसी भी जने की प्रतिक्रिया मुझ पर कसे गए इस ताने का समर्थन करती नज़र नहीं आ रही थी.

इसी विश्वास और आश्वासन के सहारे मैं झटके से उठा और वाषवेसिन के ऊपर लगे शीशे के सामने जाकर अपना चेहरा देखने लगा. ध्यान से देखने पर पता चला कि मुँह पर सब्ज़ी का एक छोटा, बिल्कुल छोटा-सा क़तरा लगा जरूर हुआ था. उस क़तरे को साफ़ कर मैं वापिस आया था और चुपचाप खाना खाने लगा था. विनोद की आँखों में एक विजय का-सा एहसास था उस वक़्त, जिसने मेरे मन में उसके प्रति पैदा हो चुकी नाराज़गी, गुस्से और ईश्या की भावना को और भी भड़का दिया था.

अपनी बढ़ाई कर-करके तो हम मंजु पर एक-दूसरे से ज़्यादा प्रभाव डालने में सफल हो नहीं पा रहे थे, इसलिए अनायास ही हमने एक-दूसरे की नुक्ताचीनी करने का तरीका आज़माना शुरू कर दिया था.

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रात को घूमकर वापिस घर आ जाने के बाद का वक़्त ही ज़्यादा तनावपूर्ण होता. सुबह उठने के बाद तो हम दोनों घूमने जाने के लिए तैयार होने में ही लगे रहते थे. मंजु की उपस्थिति के कारण तनाव तो तब भी महसूस होता था, पर रात के मुकाबले काफ़ी कम. सारा दिन विभिन्न दर्शनीय स्थानों पर घूमते, पिक्चरें देखते हुए भी उस तनाव का एक टुकड़ा हमारे साथ लगा ही रहता.

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हमारे आगरा आने के तीसरे दिन की बात है. रात का खाना खाने के बाद अभी सब डाइनिंग टेबल पर ही थे. इधर-उधर की बातें चल रही थीं. बातों-बातों में नाटकों का ज़िक्र आ निकला. नाटकों की तरफ़ विनोद का काफ़ी रूझान था. वह फूफा जी से पूछने लगा, ‘‘यहाँ आसपास भी कोई थिएटर है जहाँ नाटक होते हैं?’’

‘‘हाँ, ये सामनेवाली मेन सड़क के मोड़ पर ही रोक्सी थिएटर है जहाँ अंग्रेजी, पंजाबी, हिन्दी सब तरह के नाटक अक्सर होते रहते हैं.’’

तभी मुझे न जाने क्या सूझी कि मैं बीच में बोल उठा, ‘‘बात दरअसल यह है जी कि कैथल में यह नाटकों में पर्दा उठाने और गिराने का काम किया करता है. इसलिए जितने दिन यह यहाँ है, उतने दिन यह वही धंधा यहाँ भी करना चाहता है. कैथल जाकर तो इसने यह सब करना ही है.’’

सुनकर सब खिलखिला पड़े थे. मुस्कुराया तक नहीं था तो सिर्फ़ विनोद, बल्कि वह तो गुस्से से जल-भुन गया लगता था. झटके से वह कुर्सी से उठा था और दूसरे कमरे में चला गया था.

उसके जाने के बाद मुझे यही लगता रहा कि उसके बारे में ऐसा कहकर मैंने अच्छा नहीं किया. पर विनोद का मज़ाक उड़ाकर मैंने मंजु पर अपना रंग कुछ जमा लिया है, इस विचार ने पछतावे के मेरे उस भाव को परे धकेल दिया था.

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अब हम मंजु के सामने एक-दूसरे के मीन-मेख ही निकाला करते. अगर विनोद के बाल ज़रा बिखर गए होते तो मैं उसे टोक देता और अगर मेरे कपड़ों पर ज़रा-सी सलवटें पड़ गई होतीं तो वह मुझे. उस वक़्त हम दोनों में से यह किसी को याद नहीं था कि मंजु के पास तो हम बस चार-पाँच रोज़ के लिए ही आए हुए हैं. उसके बाद तो वह हम दोनों के बीच नहीं होगी. पर यह सब सोचने का होश किसे था उस वक़्त? उस वक़्त तो हम दोनों पर बस यही धुन सवार थी कि किसी-न-किसी तरह एक-दूसरे को नीचा दिखाकर मंजु के आगे अपना लोहा मनवा लिया जाए.

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आगरा से हमारे चलने से एक दिन पहले की बात है. बातों-बातों में मंजु ने मुझसे पूछ लिया, ‘‘पिछले साल कितने-कितने परसेंट नम्बर आए थे आप लोगों के?’’

‘‘जी, मेरे तो बासठ परसेंट थे, पर........’’ मैं था.

‘‘पर क्या?’’ मंजु के चेहरे पर उत्सुकता उग आई थी.

‘‘पर विनोद के भी बासठ परसेंट ही थे.’’ सुनकर मंजु तो खिलखिला पड़ी थी, पर विनोद बिल्कुल चुपचाप बैठा रहा था.

दरअसल कहना तो मैं यह चाहता था कि विनोद के तो अड़तालीस परसेंट ही थे, लेकिन यह सोचकर कि मेरे ऐसे कहे का वह बुरा मान जाएगा, मैंने बात का इस तरह मोड़कर मज़ाक का रूप दे दिया था.

‘‘क्यों झूठ बोल रहा है बे!’’ तभी विनोद जैसे झपट पड़ा था मुझ पर. फिर वह मंजु से कहने लगा था, बासठ-वासठ परसेंट बिल्कुल नहीं आए थे मेरे. सिर्फ़ अड़तालीस परसेंट ही आए थे. एग्ज़ाम्स के नजदीक मुझे टाइफाइड हो गया था न.’’

इस तरह मुझे झूठा साबित करके विनोद तो मंजु पर अपनी सत्यवादिता का सिक्का जमाने में सफल हो गया था. पर उसके ऐसा करने से मुझ पर जो बीती थी वह मैं ही जानता था. शर्म से पानी-पानी हो गया था मैं तो.

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मंजु की ही वजह से आख़िर बढ़ते-बढ़ते मुझ पर इतना अधिक तनाव छा गया था कि टूर का सारा मज़ा ही किरकिरा हो गया लगता था. आगरा के दर्शनीय स्थल भी बुझे-बुझे से लगते. उनके सौंदर्य में भी एक कड़वाहट-सी धुली नज़र आती. विनोद भी ख़ुश नज़र नहीं आता था. उसके अंदर का तनाव उसके चेहरे से ही झलकता रहता. इतने अधिक तनाव का कारण शायद यह भी था कि हम दोनों बहुत ही भावुक किस्म के आदमी थे और छोटी-छोटी बातें भी हमारे दिलों पर गहरे तक खुद जाया करती थीं.

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और आख़िर वह दिन भी आ गया जिस दिन हमें आगरा से चलना था. बुआ जी के घर से मंजु से विदा लेते वक़्त मेरी नज़रें डबडबा आई थीं. विनोद और मंजु भी भीगी पलकें लिए खड़े थे. स्टेशन पर हम दोनों ही आए थे. हमें विदा करने कोई नहीं आया था.

आगरा से हम दिल्ली गए थे. तीन-चार दिन दिल्ली घूमने का भी हमारा प्रोग्राम था. वहाँ हम एक धर्मशाला में ठहरे थे.

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दिल्ली में तीन-चार दिन घूमने के बाद हम वापिस कैथल जाने के लिए गाड़ी में बैठे हुए थे. दोपहर का वक़्त था. गाड़ी अभी प्लेटफार्म पर ही खड़ी थी. उसके चलने में अभी पंद्रह-बीस मिनट की कसर थी. मैं और विनोद डिब्बे में बैठे हुए केले खा रहे थे.

केले का एक छिलका खिड़की से बाहर फेंकते वक़्त मेरा ध्यान कहीं और रहा और वह छिलका प्लेटफॉर्म पर खड़ी एक आधुनिक महिला को जा लगा. उस महिला के साथ दो सरदार जी भी थे.

छिलका जैसे ही उस औरत को लगा, उसने और उसके साथ खडे दोनों सरदारों ने एकदम हमारी तरफ़ घूरकर देखा. तभी उनमें से एक सरदार जी हम पर फट पड़े, ‘‘ये क्या बदमाशी है ओए?’’

हालाँकि मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया था. बेध्यानी में ही छिलका उस औरत की ओर फेंक दिया गया था. पर फेंका तो मैंने ही था न. मेरा रंग फक्क होने लगा. उन लोगों को मैं कोई जवाब देने ही वाला था कि विनोद झट से बोल उठा, ‘‘सरदार साहब, गलती से मैंने छिलका फेंक दिया है. वेरी सॉरी.’’

‘‘ओए वेरी सॉरी देया पुत्तरा! ठहर जा जरा, अब मैं तुझे गड्डी से नीचे फेंकता हूं छिलके की तरह!’’ लाल-लाल आँखों से विनोद को घूरते हुए यह कहा तो दूसरे सरदार जी ने, पर डिब्बे में घुस आए दोनों.

हमारे डिब्बे के बाहर भीड़ लगनी शुरू हो गयी थी. जिज्ञासावश कुछ लोग डिब्बे में भी चढ़ने लगे थे. ‘‘क्या हो गया? क्या हो गया?’’ की आवाज़ें आने लगी थीं.

हमारे पास आते ही पहले वाले सरदार जी ने विनोद का गिरेबान पकड़ लिया.

‘‘अरे... अरे... ये क्या करते हो सरदार साहब!’’ कहते हुए मैंने सरदार जी की गिरफ्त से विनोद को छुड़ाना चाहा.

‘‘ओए, तुम बीच में टाँग मत अड़ाओ जी! हमें इस उल्लू के पट्ठे से सुलझ लेने दो.’’ दूसरे सरदार जी मुझे एक तरफ धक्का-सा देते हुए बोले.

‘‘क्यों बे, तेरे अपने घर में माँ-बहनें नही हैं जो दूसरी औरतों को छेड़ता फिर रहा है?’’ कहते-कहते पहले वाले सरदार जी ने विनोद के गाल पर एक ज़ोरदार थप्पड़ जड़ दिया.

विनोद थप्पड़ लगे अपने गाल पर हाथ रखे हुए भीगी बिल्ली बना खड़ा था. बड़ी हैरानी की बात थी कि अपनी सफाई में वह कुछ कह भी नहीं रहा था.

इतनी देर में दूसरे सरदार जी ने विनोद की बाँह पकड़कर मरोड़नी शुरू कर दी. दर्द से तड़प उठने के बावजूद वह अब भी चुप था.

लेकिन इससे पहले कि वे दोनों अपने कुछ और जौहर दिखाते और आसपास खड़े लोग भी विनोद पर पिल पड़ते, किसी तरह बीच-बचाव करके मैंने मामला रफा-दफा करवा दिया था.

थोड़ी देर बाद जब स्थिति सामान्य हुई तो मैंने विनोद से पूछा, ‘‘तुझे यह इल्ज़ाम अपने सिर पर लेने की क्या ज़रूरत थी?’’

‘‘लेकिन अगर मैं ऐसा ना करता, तो क्या तेरी शामत ना आती?’’

‘‘वो तो ठीक है, पर......’’

‘‘पर-वर कुछ नहीं यार! मैंने वही किया, जो ऐसे में मुझे करना चाहिए था.’’

‘‘मेरे लिए तूने अपनी कितनी बेइज्जती करवाई यार!’’ मैं भाव-विह्वल होता जा रहा था.

‘‘अरे कैसी बातें कर रहा है तू! इसमें बेइज्जती की क्या बात थी? मैंने तो बस अपना फर्ज निभाया है.’’

‘‘.................’’ मैं गद्गद्-सा होता जा रहा था.

‘‘और अगर मैं ऐसा ना करता तो क्या फिर तेरे साथ भी ऐसा ही सलूक ना होता? सोच जरा, क्या तेरी बेइज्जती मेरी बेइज़्ज़ती नहीं?’’

सुनकर मेरी आँखों के आगे अचानक वह विनोद घूम गया जो हम दोनों के मंजु से मिलने से पहले वाला विनोद था - मेरा सबसे प्यारा दोस्त विनोद, मुझ पर जान छिड़कने वाला विनोद. मंजु रूपी वह ज्वार जिसने हम दोनों को अपनी चपेट में ले लिया था, अब झटके से उतर गया लगता था.

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