खौलते पानी का भंवर - 6 - पाँच रुपये का दर्द Harish Kumar Amit द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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खौलते पानी का भंवर - 6 - पाँच रुपये का दर्द

पाँच रुपये का दर्द

शाम को दफ़्तर से छुट्टी करके तेज़-तेज़ कदमों से चलता हुआ वह केन्द्रीय भण्डार की राममनोहर लोहिया अस्पताल शाखा के सामने पहुँचा है. महीने की शुरूआत की वजह से होने वाली अन्दर की भीड़ उसे बाहर से ही दिखाई दे गई है. अन्दर जाने से पहले उसने अपने ब्रीफकेस में से प्लास्टिक का थैला निकाला है और साथ ही पैंट की पिछली जेब में पड़े पर्स से ख़रीदने वाले सामान की लिस्ट.

अन्दर पहुँचकर उसने एक तरफ से ख़रीदारी शुरू की है. सबसे पहले उसकी नजर घी के डिब्बों पर पड़ी है. अलग-अलग तरह और अलग-अलग ब्रांड के घी के अलग-अलग साइज़ों के डिब्बे उसकी नज़रों के सामने हैं. रेणु ने स्लिप में ‘‘रिफाइंड ऑयल दो किलो’’ लिखा है. ‘दो किलो रिफाइंड ऑयल लेना तो किसी तरह भी संभव नहीं. हाँ, एक किलो लिया जा सकता है.’

मगर तभी उसके दिमाग़ में आया है कि इस महीने तो खर्च कस-कस के करने की बात उन्होंने सोची हुई थी. अभी और भी तो काफी सामान इस महीने लेना है. कई ज़रूरी और कम-ज़रूरी चीजें पिछले कई महीनों से टलती आ रही हैं. उनमें से अगर कुछ इस महीने ख़रीदी जा सकें तो अच्छा रहे. रिफाइंड ऑयल इस महीने भी न ख़रीदा जा सका तो क्या है. इस महीने भी वनस्पति घी से काम चलाया जा सकता है. अगले महीने से रिफाइंड ऑयल ख़रीदना फिर से शुरू कर देंगे. इस तरह 35-40 रुपये तो बड़े आराम से बचाए जा सकते हैं. पर फिर अचानक उसके दिल में मौज आई है और उसने एक किलो रिफाइंड ऑयल की बोतल उठाकर अपने थैले में डाल ही ली है. हालांकि ऐसा करने के बाद उसके दिल में मच रही धुकधुकी ने ज़ोर पकड़ लिया है, पर किसी तरह उस पर काबू पाकर वह आगे बढ़ गया है.

अगले खानों में चाय के डिब्बे पड़े हैं - अलग-अलग ब्रांड और साइज़ के. जैसे ही उसकी नजर गोल्ड लेबल चाय के डिब्बों पर पड़ी है, उसके दिल में एक हूक-सी उठी है. हर महीने वह सोचता है कि अगले महीने तो यह चाय वह ज़रूर ख़रीदेगा, पर अगला महीना आने पर उसे अपना इरादा फिर अगले महीने के लिए टाल देना पड़ता है. उसका बजट हमेशा उसके सामने मजबूरियों के ऐसे-ऐसे पहाड़ खड़े कर देता है जिन्हें लाँघ पाना उसके बस की बात नहीं रहती. सिर्फ़ करीब एक साल पहले एक बार तनख़्वाह वाले दिन घर आते समय गोल्ड लेबल का 250 ग्राम का डिब्बा वह ख़रीदता आया था.

अब इस महीने भी गोल्ड लेबल खरीदने की बात तो ख़ैर किसी भी हालत में सोची ही नहीं जा सकती, मगर कम-से-कम रेड लेबल स्पेशल खरीदने का तो उसका जी है ही. पर हाथ में पकड़ी लिस्ट पर नज़र पड़ते ही उसे ठंडे पसीने छूटने लगे हैं और उसने 500 ग्राम का रेड लेबल साधारण चाय का डिब्बा उठाकर थैले में डाल लिया है.

कदम आगे बढ़ाने पर उसने अपने आपको जैम और अचार की बोतलों के आगे खड़ा पाया है. एक ललचाई-सी नज़र उसने उन पर डाली है और आगे बढ़ने लगा है. मगर उन बोतलों के साथ ही पड़े हुए चैरी-इन-सिरप के डिब्बों को देखते ही उसके मुंह में पानी भर आया है. रेणु भी उससे कई बार यह लाने को कह चुकी है, लेकिन हर महीने ऐसा टाइट बजट रहता है कि इसे खरीदना संभव ही नहीं हो पाता.

उसका हाथ अनायास ही डिब्बे की ओर बढ़ गया है. उसे उठाकर उसकी कीमत उसने देखी है - 191 रुपये 70 पैसे. इसे ले लिया तो पूरा बजट गड़बड़ा जाएगा - उसके दिमाग़ ने चेतावनी दी है. पहले ही वह रिफाइंड ऑयल ले चुका है. इस चेतावनी का असर उस पर हुआ है और उसने डिब्बे को वापिस रख दिया है. पर डिब्बा रखते-न-रखते उसके दिल में न जाने क्या हुआ है कि उसने फिर से डिब्बे को उठाया है और अपने थैले में डाल लिया है. ऐसा करते-करते उसके माथे पर पसीना चुहचुहा आया है. तबीयत ख़राब-ख़राब-सी लगने लगी है. मगर किसी तरह अपने पर काबू पाकर वह आगे बढ़ गया है.

जैंटील पर नज़र पड़ते ही उसे ले लेने की बात उसके दिमाग में आई है, मगर बजट यह आइटम खरीदने की इजाज़त देता लग नहीं रहा. यह तो अब अगले महीने ही खरीदा जा सकेगा. हालाँकि रेणु कह रही थी कि बहुत से गर्म कपड़े मैले पड़े हैं, सो जैंटील की काफ़ी ज़रूरत है, पर यह महीना किसी तरह चलाना ही पड़ेगा या महीने के बीच में कहीं से पैसा-वैसा आ गया तो देखा जाएगा.

कपड़े धोने के साबुन और साबुन के चूरे का एक-एक किलो का पैकेट उसने बग़ैर ज़्यादा असमंजस के उठा लिया है. नहाने के साबुनों के करीब जाने पर उसने एक लाईफब्वॉय और एक हमाम उठाकर अपने थैले में डाला है. ज्यादा मंहगे साबुनों को वह बस ललचाई-सी नज़र से देखकर ही रह गया है.

दालें पिछले महीने भी नहीं ली जा सकी थीं. तब यह तय किया गया था कि अगले महीने सब दालें ले ली जाएंगी. मगर इस महीने का बजट भी कोई कम छक्के छुड़ाने वाला नहीं है. रेणु ने चार किस्म की दालें लिस्ट में लिखी हैं. वह जानता है कि ये भी उसने बहुत सोच-समझकर लिखी होंगी लेकिन चारों दालें खरीदना उसे किसी भी तरह अक्लमंदी का काम नहीं लग रहा. उसने मूँग साबुत और चने की दाल का एक-एक पैकेट उठा लिया है. बाकी दालें बाद में देख लेगा - अगर पैसों की हालत ठीक रही तो. हालाँकि उसे पता है कि महीने के शुरू में जो सामान आ जाए, आ जाए, बाद में कभी नहीं आ पाता. तब तो घिसट-घिसट कर किसी तरह महीना पूरा करना होता है.

राजमा का एक पैकेट भी उसने बिना ज़्यादा सोचे-विचारे उठा लिया है. राजमा उसे लगते भी बड़े अच्छे हैं, चाहे हर रोज़ खिला दो. सफेद चने थोड़े-से पड़े हुए हैं - रेणु ने बताया था. दो-एक बार तो बन ही जाएंगे, सो अगले महीने ले लेंगे.

बिस्कुटों के रैक के पास जाकर उसने बड़ा सोच-समझकर चार पैकेट बिस्कुट और एक पैकेट नमकीन का उठाया है. यह सब घर आनेवाले मेहमानों के लिए है. खुद तो वे चाय के साथ डबलरोटी वगैरह खाकर काम चला लिया करते हैं. रस खरीदे हुए भी न जाने कितने महीने हो गए हैं. हर महीने उसका जी चाहता है, मगर कड़की के हाथों मजबूर होकर अपना यह इरादा उसे हर बार स्थगित करना पड़ता है.

उसने थैले का वज़न लिया है. काफी ज़्यादा सामान हो गया है. इससे ज़्यादा उठाकर ले जाने में तो दिक्कत होगी. परन्तु अभी कुछ और चीजें लिस्ट में हैं. लिस्ट के हिसाब से उसने जीरा, लाल मिर्च और काली मिर्च का एक-एक पैकेट भी अपने थैले में डाल लिया है. फिर उसकी नजर लिस्ट में लिखे कॉलगेट पर गई है. रेणु को कॉलगेट के अलावा और कोई टूथपेस्ट सूट नहीं करता. इसके विपरीत ख़ुद उसे बदल-बदलकर टूथपेस्ट इस्तेमाल करना अच्छा लगता है. इसलिए उनके घर में हमेशा दो किस्म के टूथपेस्ट रहते हैं. कॉलगेट एकाध हफ़्ते में खत्म हो जाना है, सो अभी ख़रीद लिया जाना चाहिए. पर उसके थैले का भार उसे इस बात की चेतावनी दे रहा है कि सामान काफ़ी हो गया है.

एक उड़ती-सी नज़र उसने केन्द्रीय भण्डार में रखे सारे सामान पर डाली है और बुझे मन से लाइन में लग गया है. इस बार भी मनपसंद सारा सामान नहीं ख़रीदा जा सका, इस तनाव से उसके सिर में पीड़ा होने लगी है. लाइन आगे खिसक रही है. तभी अचानक उसके दिमाग़ में न जाने क्या आया है कि अपने से पीछे खड़े आदमी को ‘एक मिनट में आ रहा हूं’ कहकर वह टूथपेस्टों वाले खाने की तरफ गया है और कॉलगेट का सबसे बड़ा पैक उठाकर वापस लाइन में लग गया है.

‘चौदह सौ बयासी रुपए सत्तर पैसे’ मशीन से बिल निकालते काउंटर क्लर्क के मुँह से ये शब्द सुनते ही उसका दिमाग झनझना गया है. क्या? नौ सौ बयासी रुपए. उसने तो सोचा हुआ था कि इस बार कुल मिलाकर छह-सात सौ रुपए से ज़्यादा का सामान केन्द्रीय भण्डार से नहीं लेना, पर ये तो अभी से नौ सौ बयासी रुपए बन गए. और अभी तो कितना सारा सामान उसने लिया ही नहीं है. पर्स से पैसे निकालते वक़्त उसके माथे पर पसीना चुहचुहा आया है. और जब काउंटर क्लर्क ने पैसे लौटाते वक़्त चेंज न होने की वजह से तीस पैसे कम लौटाए हैं तो उसे लगा है कि उसे ठगा जा रहा है. उसके जी में आया कि तीस पैसे वह माँग ले, पर उसे संकोच हो आया है और वह चुपचाप सामान समेटने लगा है.

कुछ सामान को ब्रीफकेस में और बाकी को प्लास्टिक के थैले में डाले वह थका-थका-सा बस स्टॉप पर पहुंचा है. भीड़ से लदी बसें आ रही हैं, जिसमें सामान की वजह से वह चढ़ नहीं पा रहा. थकावट के कारण उससे खड़ा ही नहीं हुआ जा रहा. उसका जी चाह रहा है कि वह झट-से घर पहुंच जाए और कपड़े बदलकर टी.वी. देखते हुए बिस्तर में अधलेटा होकर आराम से गर्म-गर्म चाय पिए.

अचानक एक कम भीड़ वाली बस आती दिखाई दी है. पास आने पर पता चला है कि वह शादीपुर डिपो तक जा रही है. इस बस में वह आराम से जा सकता है, पर शादीपुर डिपो पर उतरकर उसे एक और बस लेनी पड़ेगी. इस तरह बारह रुपए किराया खर्चना पड़ेगा. सात रुपए शादीपुर डिपो तक और पाँच रुपए उसके आगे. अगर उसे घर तक ले जाने वाली सीधी बस मिल जाए तो दस रुपए में ही काम बन जाएगा. दो रुपए ज़्यादा खर्च करने की बात उसके गले नहीं उतर रही. घर तक पहुँचानेवाली बस के इन्तज़ार में वह चुपचाप खड़ा रहा है.

बसें आ तो रही हैं पर उनमें भीड़ उतनी ही है. उन बसों में वह ब्रीफकेस के साथ भले ही चढ़ जाए, पर इतने सारे सामान के साथ चढ़ना उसे अक्लमंदी का काम नहीं लग रहा. भीड़ की वजह से सामान को नुकसान पहुँचने की बात भी उसके दिमाग़ में है. खड़े-खड़े उसे काफी देर हो गई है. उसे लग रहा है कि इस तरह तो वह न जाने कब तक खड़ा रहेगा. सामान साथ में न होता तो वह कब का किसी-न-किसी बस में चढ़ गया होता, पर मुश्किल सामान की ही थी.

अब वह यही मनाने लगा कि उसके घर से थोड़ी पहले तक जाने वाली बस ही मिल जाए. वह थोड़ा चलकर घर पहुँच लेगा. लेकिन जितनी भी बसें आ रही हैं, सब भीड़-भरी ही हैं. किसी बस में चढ़ पाना उसे संभव नहीं लगा रहा.

आख़िर काफ़ी देर बाद ‘जो होगा देखा जाएगा’ सोचते हुए वह एक अपेक्षाकृत कम भीड़वाली बस में चढ़ ही गया है. पर चढ़ने के बाद टिकट लेते वक़्त उसे पता चला है कि यह तो पन्द्रह रुपए किराएवाली अर्न्तराज्जीय बस है. वह धक्क से रह गया है. दस के बदले बारह रुपए खर्च न करना चाहने की वजह से ही तो वह आधे घंटे तक बस स्टॉप पर खड़ा रहा था. अगर दस रुपए से ज्यादा किराया खर्चना था तो वह बारह रुपए खर्च करके कब का आराम से घर पहुँच गया होता. उसका जी चाहा है कि अगले स्टॉप पर बस से उतर जाए. ऐसी स्थिति में कई लोग ऐसा किया भी करते हैं. पर चूंकि वह बीस का नोट कंडक्टर की तरफ बढ़ा चुका है, इसलिए रुपए वापस माँगते हुए उसे संकोच हो आया है. उसने टिकट ले लिया है. संयोग से उसे सीट भी मिल गई है, मगर सीट मिल जाने की भी कोई ख़ुशी उसे हो नहीं रही.

पाँच रुपए का ज़्यादा खर्च उसके मन को मथ रहा है. रह-रहकर उसे पछतावा हो रहा है कि उसने क्यों नहीं बस का बोर्ड ध्यान से देखा. अगर उसे पता चल जाता कि यह पन्द्रह रुपए किराए वाली बस है तो कोई बहाना बनाकर उसे अगले स्टॉप पर उतर जाना चाहिए था.

रिक्शा भाड़े पर होने वाले दस-बारह रुपए के खर्च को बचाने के चक्कर में ही तो वह इतनी मुश्किलें झेलता हुआ इतनी दूर से केन्द्रीय भण्डार का सामान उठाकर लाता है. वरना घर से तीन-चार किलोमीटर दूर स्थित केन्द्रीय भण्डार की शाखा से बड़े आराम से रिक्शे पर सामान लाया जा सकता है.

इन्हीं ख़यालों में डूबे-डूबे वह घर पहुँच गया है. उसके दिल और दिमाग़ में चल रहा अंधड़ उसी रफ़्तार पर है. उसका जी चाह रहा है कि पाँच रुपए ज़्यादा खर्च होने की बात वह रेणु को बता दे, पर तभी उसके दिमाग़ में आया है कि पैसों की दिक्कत की वजह से वह पहले ही बड़ी परेशान रहती है. बेकार में उसकी परेशानी बढ़ाने की क्या तुक है.

लेकिन पाँच रुपए के ज़्यादा खर्च को भूल पाना उसे अपने बस में नहीं लग रहा. अपने सीने में बड़ी हलचल-सी मचती उसे महसूस हो रही है. उसे लग रहा है कि रेणु को यह सब बता देने से ही उसे कुछ तसल्ली हासिल हो सकेगी. इसी अन्र्तद्वन्द में उसने चाय-वाय पी है और पलंग पर अधलेटा होकर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगा है, मगर पत्रिका पढ़ने में उसका मन नहीं लग रहा.

रेणु रसोई में खाना बना रही है. तभी उसकी आवाज़ सुनाई दी है, ‘‘हाथ-वाथ धो लो. मैं खाना लेकर आ रही हूं.’’ वह अशान्त मन से उठा है. धुले हाथ तौलिए से पोंछते वक़्त अपना मन उसे बड़ा भरा-भरा-सा लग रहा है. उसे लग रहा है कि इस तरह न तो वह ढंग से खाना खा सकेगा और न ठीक तरह से सो ही पाएगा. तभी उसे लगा है कि अपने-आप पर से उसका नियंत्रण हट गया है. वह कमरे में जाने के बजाय रसोई की ओर हो लिया है और सामने से खाना लेकर आ रही रेणु से रूआँसी आवाज़ में कहने लगा है, ‘‘आज पता है क्या हुआ.........’’

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