अन्‍गयारी आँधी - 11 Ramnarayan Sungariya द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अन्‍गयारी आँधी - 11

-उपन्‍यास

भाग—ग्‍यारह

अन्‍गयारी आँधी—११

--आर. एन. सुनगरया,

शक्ति ध्‍यान-मग्‍न ऑंखें मीचे आराम मुद्रा में बैठा था।

‘’सहन शक्ति सिंह।‘’ पूरा नाम!

अन्‍तर्मन पर दस्‍तक, ‘’सहन शक्ति सिंह।‘’ पुन: पुकारा।

‘’कौन है?’’ शक्ति अचरज में, ‘’कौन बुलाता है।‘’ शक्ति की ऑंखें बन्‍द ही है।

ऑंखों में विशाल स्‍वप्रति छाया उतर आती है, ‘’मैं हूँ तुम्‍हारा जमीर।‘’

‘’जमीर!!’’ ताज्‍जुब।

‘’हॉं जमीर।‘’ प्रताड़ना।

शक्ति को सॉंप सूंघ गया। जश्‍मंजस में भ्रम की धुन्‍ध उत्‍पन्‍न हो गई। गुमसुम सुनने की बेला, बेल की भॉंति दिल-दिमाग पर लिपट गई, जकड़न सॉंप की तरह......आत्‍मा गवारा करेगी, परनारी से शाजिस के तहत गुप्‍त सम्‍बन्‍ध बनाना।

आत्‍म सम्‍मान, मर्यादा, संस्‍कार, रिश्‍तों की सीमा अथवा दायरा, गौरव, पवित्रता, परस्‍पर विश्‍वास, सुरक्षा सम्‍मान, सरोकार, सर्वसुखों का आधार, निर्मल आत्मियता एवं औपचारिकताऐं इत्‍यादि-इत्‍यादि सर्वसमाज के मूल तत्‍व एवं विशिष्‍टताओं को अनदेखा करके; शक्ति अपनी स्‍वार्थपरता लोलिपता, काम वासना के वशीभूत होकर, जिस तरह से जाल बुन-गुन रहा है, वह सर्वदा अबैद्ध, अनैतिक, अमानवीय, अव्‍यवहारिक तथा सांस्‍कृतिक मूल्‍यों के विरूद्ध है। इसके एक छोर पर सम्‍बन्‍धों का विघटन है बरबादी के मंजर हैं। सामाजिक-सांस्‍कृतिक स्‍वभाविक वातावरण एवं आवोहवा को प्रदूषण की भट्टी में झोंकने जैसा है। सब कुछ जलकर राख होने हेतु। पवित्र प्राकृतिक नैशर्गिक परम्‍पराओं को कलंकित करने के अपराध करने की श्रेणी में आते हैं। जो एैसी प्रवृतियों को जन्‍म देगा, जिससे समाज का नैतिक पतन एवं चारित्रिक पतन होने का अंदेशा है। जो लोभ, भोग, पशुता की प्रवृतियों को बढ़ावा देगा। दीन-ईमान, सहानुभूति परम्‍परागत भाई-चारे, सौहृादपूर्ण परिवेश को, घुन अथवा दीमग की भॉंति चाट जायेगा। शाश्‍वत तत्‍वों को नष्‍ट कर देगा। समाज में अराजकता, घृणा की कीचड़ यहॉं-वहॉं विखरा नजर आयेगा। ऐसे घृणित कीचड़ के धव्‍बों को, पीढ़ी- -दर-पीढ़ी नफरत की दृष्टि से समाज घूरता रहेगा। स्‍वभाविक मानवता का विकास बाधित होगा। यह किसी भी दृष्टि से अनुकूल या हितकर नहीं होगा। समग्र विकासशीलता एवं उन्‍नति के लिये ऐसे तत्‍वों पर अंकुश लगाना अत्‍यावश्‍यक होगा। जो समाज को आघात पहुँचाने के अपने मंसूवों को अमलीजामा पहनाने से पहले उन्‍हें रोकना ही हितकर होगा।

शक्ति समझ नहीं पा रहा है कि उसका आत्‍माभिमान ही उसकी आत्‍मा को झिंझोड़ रहा है। योजना-दर-योजना का बुखार उसके दिमाग से उतरता सा महसूस हो रहा है। दाल में काले की तरह नीयत में खोट/ कालापन नजर आ रहा है।

शक्ति को आत्‍मग्‍लानि एवं अपराध बोध का आभास हो रहा है। एक तरफ चाहत या झुकाव ही ज्‍यादा महसूस हो रहा है। जबकि स्‍वरूपा का विचार, दृष्टिकोण अथवा मंशा का खुलासा, अभी तक नहीं हुआ है। उसका क्‍या रवैया होगा, इसका कोई संकेत अब तक प्राप्‍त नहीं हुआ है। इस काल्‍पनिक मसले पर। जिसे जानने के उपरान्‍त ही कुछ दृश्‍य स्‍पष्‍ट होगा।

फिलहाल सारे अदृश्‍य घोड़ों को उड़ने-दौड़ने से रोकना होगा। अपनी भावनाओं, इच्‍छाओं, चाहतों को नियंत्रित करना होगा। शॉंत मस्तिष्‍क से यथासम्‍भव समय की प्रतीक्षा ही करनी होगी।

‘’शक्ति......।‘’ सपना टेर लगाती हुई, इधर-उधर ढूँढ़ने लगी, ‘’कहॉं हो।‘’ ‘’हॉं बोलो।‘’ शक्ति हाजिर हो गया, ‘’क्‍यों परेशान हो।‘’ सपना को घूरने लगा।

‘’स्‍परूपा, शाम को मेल से...........।‘’ सपना शक्ति को सलाह दे रही है, ‘’कुछ पहले ही पहुँचना अच्‍छा है।‘’

शक्ति सकारात्‍मक आश्‍वासन मुण्‍डी हिला कर देते हुये चलता बना।

शक्ति निर्धारित समय से काफी पहले स्‍टेशन पर तैनात हो गया। स्थिर रहकर, घूमती नजरों से प्‍लेटफार्म की चहल-पहल पर गौर कर रहा है। सभी यात्री अपने-अपने कारणों के कारण व्‍यस्‍त और प्रतिक्षारत महसूस लग रहे हैं, लेकिन शक्ति को ना जाने क्‍यों एहसास हो रहा था कि वह इन सबसे ज्‍यादा आतुर लग रहा है। अविलम्‍ब उसके मस्तिष्‍क में भविष्‍य के सम्‍भावित नजारे कौंधने लगते हैं..................

..........धीमी गति से ट्रेन प्‍लेटफार्म पर खट्ट.....,खट्ट......खट्ट के स्‍वर के साथ रूक गई चरमराकर। लोग तितर-बितर से हो गये। कोई ट्रेन से उतरने लगा, अपने सामान हाथों व कन्‍धों में लटकाये हुये, चेहरे पर परेशानी, भय घबराहट और चिन्‍ता का पल-पल-प्रतिपल बदलता भाव-रंग। ठीक उसी समय कोई-कोई एक के बाद एक अथवा साथ-साथ सवार होने हेतु जोर-आजमाईश करने लगा; चिल्‍ला-चोंट का संयुक्‍त स्‍वर गड्डम-पड्डम सुनाई देने लगा, समझ में कुछ नहीं आ रहा कौन किससे क्‍या कह रहा है! कहॉं किसको क्‍या कठिनाई हो रही है। पैदल सिपाही जैसे जंग में भिड़ गये हों। मधुमक्खियों की भाँति भिनभिना रहे हैं।

ये कोलाहल में शक्ति को अपना मुख्‍य-मकसद ही याद नहीं रहा। कुछ क्षण पश्‍चात् होश आया कि स्‍वरूपा कहॉं है! किधर खो गई भीड़ में। सुविधा पूर्वक उतर पाई कि नहीं ट्रेन से। उतर तो गई होगी! बहादुर तो है वह। ढूँढ़ना चाहिए। भारी जन सैलाब में किधर घुसूँ सम्‍भव नहीं, यहीं खड़े रहकर चेहरे दर चेहरे में पहचानने की चेष्टा करता हूँ। कोई लाभ नहीं, बेवश खड़ा रहा। शक्ति अपने-आप पर लानत......हीन भावना के जाल में फंसा दीन-हीन-लाचार बेचारा की तरह मूर्तीवत खड़ा के खड़ा रह गया।

कुछ समय बाद ट्रेन अपनी अगली मंजिल की ओर बढ़ चली। लोग हाय, हेलो वॉय, टा टा के द्वारा विदाई की ओपचारिकता, अपनत्‍व व चाहत को प्रदर्शित करते-करते शॉंती पूर्वक टकटकी लगाये ट्रेन जाते हुये, नजरों से ओझल होती गई। तब कहीं प्‍लेटफार्म खाली होना प्रारम्‍भ हुआ। आहिस्‍ता–आहिस्‍ता लगभग सन्‍नाटा पसर गया। मगर स्‍वरूपा नहीं दिखी। शक्ति निराश, हतास, उदास, बे-मन से स्‍टेशन के बाहर निकलने की सोचने लगा। सपना को क्‍या बतायेगा, कदाचित स्‍वरूपा किसी दूसरी ट्रेन से.......या किसी अन्‍य स्‍टेशन पर.........उतर गई हो। सपना को ठीक से याद नहीं रहा हो। उसकी सूचना, संदेश आने का। या फिर आने का कार्यक्रम स्‍थगित-परिवर्तित हो गया होगा। जैसी भी स्थिति हुई हो समय पर स्‍पष्‍ट तो कर देना चाहिए था। यह परेशानी तो नहीं झेलनी पड़ती।

शक्ति को एैसा क्‍यों लग रहा है कि एक और ट्रेन को देखा जाये, शायद उसमें आ रही हो............मगर इस विचार में कोई विश्‍वास करना मूर्खता होगी। मोबाईल भी घर में भूलकर आ गया। ताकि मोबाईल से वस्‍तु स्थिति ज्ञात कर लेता। घर लौटने के सिवा कोई विकल्‍प शक्ति के पास बचा नहीं है। खाली-खाली वापस जाना बहुत बुरा महसूस कर रहा है, शक्ति, मगर विवश है...........शक्ति टहलता- टहलता, डोलता कब स्‍टेशन परिसर से बाहर आ गया पता ही नहीं चला, जैसे नीलकमल की भॉंति नींद में पहुँच गया हो। पत्‍थर बनकर खड़ा है, निरूद्धेश, निर्जीव, निष्क्रिय, सा खड़ा हो गया। दिग्‍भ्रमित! शक्ति शून्‍य में ताकते हुये, कुछ निर्णय लेना चाहता है, परन्‍तु कुछ सूझ नहीं रहा है, जैसे उसे सदमा समान उदासीन.............

‘’जीजाजी! जीजाजी!’’ स्‍वरूपा पुकारती हुयी शक्ति के करीब आ गई, मगर वह निर्विकार खड़ा ही है.......।

‘’हेलो......!’’ ध्‍वनी धीमी।

शक्ति की ऑंखें, चौंधिया गईं, ऑंखें मिचमिचाते स्‍वरूपा को घूरता रहा। तब तक स्‍वरूपा ने चिंतित व गम्‍भीरता पूर्वक उसे जोर से झिंझोड़ा, तब कहीं जा कर वह जागृत हुआ।

‘’मैं तो अन्‍दर, प्‍लेटफार्म पर ढूँढ़ रहा था। तुम किधर से बाहर आई। मैं वहीं तो खड़ा था। डब्‍बे के पास। तलाशते-तलाशते निराश होकर लौट रहा था। भीड़ बहुत थी।

स्‍वरूपा मन्‍द-मन्‍द मुस्‍कुराते उसकी परेशानी महसूस कर रही थी, ‘’मिल तो गये, चलें घर.........कैसे आये तुम.......।‘’

‘’मैं.....मैं.....।‘’ मिनमिनाते हुये शक्ति, ‘’टेक्‍सी से......।‘’ शक्ति का चित्त अब भी पूर्ववत्त सामान्‍य नहीं हुआ था, ‘’वह तो खड़ी है।‘’ ईशारा किया.....और चल पड़ा, ‘’चलो।‘’

ड्राइवर पहले ही बैठा था। इनके बैठने के बाद, पूछा, ‘’चलें साहब।‘’

‘’हॉं हाँ, चलो....।‘’ शक्ति ने अनुमती दी। हल्‍का सा हिचकोला लेकर टेक्‍सी आगे बढ़ने लगी, धीरे-धीरे गति पकड़ते हुये, फर्राटे भरने लगी। पीछे की शीट पर बैठे शक्ति स्‍वरूपा, के दिमाग में अपनी-अपनी प्राथमिकता के मुताबिक विचारों, बातों, घटनाओं, भविष्‍य के अनजाने-अनसुल्‍झे प्रश्‍नों तथा पहलुओं के जाल-जन्‍जाल अपना अस्‍पष्‍ट असर का आभास करा रहे थे।

शक्ति, स्‍वरूपा को सरसरी नजरों से औपचारिकतावश ही निहार पाना। उसकी सम्‍भावित मंशा थी कि वह मन भरकर भरपूर स्थिर दृष्टि से घूरकर अपनी ऑंखों में उसका सौन्‍दर्य स्थिर-स्‍थाई कर ले। अमिट सदैव के लिये, जो कभी विसराया ना जा सके। अब्‍बल तो शक्ति सोच रहा था,...........जैसे ही स्‍वरूपा से ऑंखें चार होगी, तुरन्‍त लिपटकर एक-दूसरे का अभिवादन, जोशीला स्‍वागतम करेंगे। लेकिन सार्वजनिक स्‍थान व सामाजिक मर्यादाओं की बाध्‍यता को ध्‍यान में रखकर शिष्‍टा‍चारिक परम्‍परा-प्रचलन से ही सन्‍तुष्‍ट होना पड़ा। अन्‍यथा कोमल भावनाओं का गुबार तो वायुवेग सा तीव्र था कि सम्‍पूर्ण लोक लाज-परम्‍पराओं को अनदेखा करके, आपस में नि:संकोच उमंगों के उबाल को शॉंत होने तक गुन्‍थे ही रहते, परन्‍तु ऐसा हो ना सका। धृष्‍टता! हिम्‍मत जवाब दे गई या स्थिति ही निर्मित नहीं हुई। मन की भड़ास मन में ही कैद होकर रह गई।

स्‍वरूपा ने तिरछी नजरों से शक्ति को निहारा, वह धीर-गम्‍भीर विचार सागर में गोता लगाता, प्रतीत हुआ। दायें-वायें दौड़ते दृश्‍यों को पल-पल गुजरते विलुप्‍त होते, देखते-देखते विचारों के भंवर में फंसकर क्षण-प्रति-क्षण डुबकियों के गिरफ्त से मुक्‍त होने की चेष्‍टा करने लगी। सोच का सिलसिला चल निकला..........

........आते समय तो ना जाने कौन-कौन सुहाने, सुन्‍दर सपनों ने, कोमल कामनाओं ने, कुछ अधूरापन, छूटा हुआ संतोष, भड़की हुयी अगर तपिस, अधखुले शवाब के चरमोत्‍कर्ष पहुँचने की चाहत, ललक, प्रीत, बिखरे-बहते मादकता से चटकते पुष्‍पों के पराग के ना चूस लेने का मलाल..............

.........एैसी ना जाने कितनी नैशर्गिक भावात्‍मक क्रियाओं के आधे-अधूरे छूट जाने के कारण पलायन हेतु विवश होना मुख्‍य वजह तो नहीं!नहीं भटकाव के पीछे असन्‍तुष्‍टी, असंत्रृप्ति असंतुलन तो नहीं..........कुछ तो है, जो सारे शरीर को झंकृत करता है, मधुर मिलन के द्वार खोल कर आशान्वित करके अपेक्षा आश्‍वासन देता है। परिपूर्णता वादा करता है अथवा एहसास दिलाता है। अविरल...............!

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

क्रमश: --१२

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍