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अन्‍गयारी आँधी - 5

उपन्‍यास--

भाग—5

अन्‍गयारी आँधी

--आर. एन. सुनगरया,

शक्ति द्वार पर कुछ क्षण मौन खड़ा रहा, जैसे कुछ स्‍तुति कर रहा हो, अन्‍तरमन/ अन्‍तर्मन में; सधे हुये हाथ से दरवाजे की कुण्‍डी खड़खड़ाई साथ ही टेर लगाई, ‘’सपना...।‘’ प्रतीक्षा उपरान्‍त, मधुर ध्‍वनि, ‘’सपना.....मैं शक्ति, दरवाजा खोलो।‘’

प्रति उत्तर ना पाकर शक्ति झुंझला उठा, ‘’सपना......सपना।‘’ लगातार पुकारने लगा।

‘’कौन है!’’ अन्‍दर से बहुत ही कर्कश आवाज गूँज उठी, ‘’खोलती हूँ।‘’

‘’मैं हूँ....।‘’ इससे पहले कि शक्ति अपना नाम बताता, दरवाजा स्‍वभाविक सुर लेकर खुल गया।

‘’तुम!’’ सपना के स्‍वर में तल्‍खी, जैसे उसे उम्‍मीद ही नहीं थी कि शक्ति हो सकता है।

‘’हॉं!’’ शक्ति अन्‍दर घुसते ही पूछने लगा, ‘’कैसे हैं, बन्‍टी-बबली।‘’

सपना ने कुछ उत्तर नहीं दिया। भुनभुनाती, मटकती रसोई की ओर चली गर्इ।

चाय लेकर हॉल में आई, तो शक्ति नदारद था। सपना को कुछ अटपटा सा लगा। शक्ति में परिवर्तन किस सिद्धान्‍त के तहत हुये, सपना समझ नहीं पा रही है। अचम्भित महसूस कर रही है।

.........वगैर आर्डर, वगैर हल्‍ला–गुल्‍ला, वगैर डॉंट-फटकार के अपने सारे काम निबटाने में जुटा है। पानी गर्म कर लिया, सेविंग कर लिया, अपने तौलिये वगैरह, सारे जरूरत के सामान स्‍वयं खेज-खाजकर, नहा-धोकर, तैयार होकर, शॉंत व प्रसन्‍नचित हॉल में बैठा, निश्चिन्‍त अपना सूटकेस खोल कर एक-एक सामान निकालने लगा। पहला ही एक बड़ा सा पैकेट सपना की ओर बढ़ाकर मुस्‍कुराते हुये, कहने लगा, ‘’लो देखो पसन्‍द का है कि........।‘’

‘’सपना को लगा,......कहीं स्‍वप्‍न में तो नहीं हूँ। किधर से सूरज निकला है, आज।

एक और पैकेट टी टेबल पर रखते हुये, बोला, ‘’ये बन्‍टी-बबली के

लिये।‘’ सपना की तरफ देखकर, ‘’जगाओ उन्‍हें, कब तक सोते रहेंगे।‘’

सपना समझ नहीं पा रही थी कि यह शक्ति को हो क्‍या गया है। कोई चमत्‍कार तो नहीं, इस तरह काया पलट तो पहले कभी हुआ नहीं।

अन्‍यथा घर में पॉंव रखते ही जैसे भूकम्‍प सा आ जाता था। कड़कड़ाते हुकुम पर हुकुम गरम पानी नहीं हुआ, मेरी सेविंग का सामान कहॉं-कहॉं बिखरा पड़ा है। तौलिया कहॉं पटक देती हो। कोई सामान अपनी निर्धारित जगह पर नहीं मिलता, सब कुछ तितर-बितर, करती क्‍या हो दिनभर सारा घर अस्‍त–व्‍यस्‍त कबाड़-खाना बना रखा है।

सपना चुप्‍प! जबाब देने का, सफाई देने का अवसर ही नहीं। घर में धमा-चौकड़ी मची हुई है। कभी इधर-कभी उधर चक्‍कर-घन्‍नी बन गई, सपना। बिला वजह, बैकार बकर-बकर। उफ! कितना मूँह चलता है। निरोद्धेश! हर बात में बहस, हर कार्य में मीन-मेख, कुछ सुनने को तैयार नहीं। अपने मुर्गे की एक टॉंग!

‘’सपना।‘’ शक्ति पास आ गया, मगर सपना सम्‍हल नहीं पाई, ‘’सपना डार्लिंग।‘’

बहुत ही प्रेम पूर्वक मृदु लहजे में, ‘’सज-धज कर रेडी हो जाओ बाहर चलेंगे।‘’ शक्ति अपने सामान सम्‍हालता हुआ, बोला, ‘’जमाना गुजर गया, पिकनिक नहीं की, बहुत नीरसता छा गई, कुछ तरोताजा हो जायेंगे। मूड फ्रेस व चेन्‍ज हो जायेगा।‘’

मन: मस्तिष्‍क में उधेड़-बुन के चलते-चलते ही, सपना रूप-श्रृंगार करके उसकी तरफ बढ़ी चली जा रही है। विश्‍वास-अविश्‍वास की हिलोरों में डोलती हुई।

शक्ति टकटकी लगाये देखता रह गया, ‘’वाह, कहॉं छुपाकर रखा था यह सौन्‍दर्य, बला की खूबसूरत हो......।‘’ शक्ति बोलता ही गया, ‘’ऑंखें चौंधिया रही है; तुम्‍हारी झिलमिलाहट देखकर, नजर स्थिर हो गई।‘’

शक्ति के लालित्‍यपूर्ण वर्णन से सपना हर्षित तो थी, मगर भयग्रस्‍त, सहमी-सहमी सी जान पड़ रही थी, मन में शंका थी, ना जाने कब शोला भड़क उठे। कब सब कुछ विद्धवन्‍स होकर चौपट हो जाये। शक्ति के मूड का कोई भरोसा नहीं......। मगर वह उसे एक सच्‍चे साथी एवं मंजे हुये आशिक की तरह निहार-निहार कर उपमाओं और अलंकारिक शब्‍दों की वारिष कर रहा है, ‘’ये लम्‍बी–लछारी, भरी-पूरी देह। नई-नवेली दुल्‍हन सी ताजगी चेहरे पर!’’

सपना के मन-मस्तिष्‍क में भय सता रहा है, ना जाने कब शक्ति भड़क उट्ठे, अपनी असलियत पर आ जाये, आकर्मक हो जाये। भरोसा नहीं।

ऑंखों में चमक के साथ नशीला सुरूर एवं चेहरे पर लावण्‍य की झिलमिलाहट लिये सपना ने, शक्ति को अपनी तरफ आकर्षित किया, ‘’तारीफों के ताजमहल गढ़ रहे हो शायराना अन्‍दाज में, मीठी-मीठी बातों से, मैं तो वही हूँ, जो पहले थी।‘’ सपना ने नाट्य मुद्रा में अभिनय किया।

‘’वाक्‍यी, तुम आज बला की सुन्‍दर लग रही हो।‘’ शक्ति ने सराहना और सौन्‍दर्य के कशीदे-पढ़ने में कोई कसर नहीं रहने दी, ‘’स्‍पर्श करने में संकोच हो रहा है।‘’ सपना के करीब आकर, शक्ति बहुत ही आतुर लगा, ‘’कहीं कोई अपराध तो नहीं कर रहा छू कर।‘’

‘’नहीं, कोई ग्‍लानि मत आने दो मन में।‘’ सपना भी होले-होले, शक्ति के अदृश्‍य प्रभाव क्षेत्र की ओर सरकती जा रही है, ‘’तुम्‍हारी आत्‍म स्‍वीकृति महसूस करके........।‘’ सपना तनिक ठिठकी, ‘’अपनी पूर्ण समर्पण भावना को नियन्त्रित नहीं कर पा रही हूँ।‘’

शब्‍द साधन की सीमा समाप्‍त, शारीरिक सम्‍प्रेषण, सासों की सरगम शुरू!

सपना परम नैशर्गिक सुख की सम्‍पदा से सराबोर, अद्भुत अभूतपूर्व अनुभूति अनुभव कर रही है। महकते मादक माहोल में, चरम पर शवाव के प्रभाव से कलियॉं चटक रही है, चट! चट! तथा फूल बनती जा रही हैं। मदमस्‍त खुशबू से सम्‍पूर्ण परिदृश्‍य महक उठा है।

‘’काश! ये लम्‍हे मेरे पहलू में सुरक्षित हो जायें, महफूज रह पायें।‘’ सपना ने लम्‍बी आह भरी।

‘’कुदरत का करिश्‍माई तोहफे........।‘’ शक्ति ने अपने आगोश में इतनी सावधानी से सहेज लिये, जैसे पूर्ण खिले नाजुक गुलाब को मुट्ठी में बंद कर रहा हो, समुचित सुरक्षा पूर्वक, कहीं कोई पंखुड़ी जुदा ना हो जायें डंट्ठल से, परीधि के क्रम से। हल्‍के से स्‍पर्श के सहारे, बस।

नई सुबह के नये सूरज के साथ शक्ति-सपना को सब कुछ नया-नया सा महसूस हुआ। आन्‍तरिक सारी गॉंठें सुलझ गईं। मन मस्तिष्‍क एवं आत्‍मा स्‍वच्‍छ एक निर्मल हो गई। परस्‍पर प्रीत-चाहत जाग्रत हो गई, पति-पत्नि के रिश्‍तों के महत्‍व का पूर्ण ज्ञान ज्ञात हो गया। इस सम्‍बन्‍ध को अधिक से अधिक सार्थक, समुचित सहेजे रखने की कसमें खाने लगे तथा वादे निवाहने के संकल्‍प करने लगे।

दोनों ने दाम्‍पत्ति जीवन को सर्वसुन्‍दर बनाने एवं सफल बनाने की योजनाऍं तलाशने लगे। हर हमेशा, प्रत्येक‍ पल, पति-पत्नि धर्म का पालन अपनी संस्‍कृति-संस्‍कार के सम्‍वाहक की भॉंति सुरक्षित सहेजे रहेंगें। प्रेमपूर्वक।

शक्ति अपना समय संयोजित करके, अपनी सभी जिम्‍मेदरियों का खाका तैयार करने लगा। पक्‍के परिवार प्रमुख की भॉंति।

सपना को जैसे पंख लग गये, फुदकती-फुदकती, खिली-खुली नृत्य अदाओं में घूम-फिर रही है, घर-बाहर। उसे तो जैसे मन चाहा सन्‍सार हाथ लग गया। चेहरे पर खुशी का खुमार, चाल-ढाल में मतवालापन सर्वसंतुष्‍टी हर्षोल्‍लास, अंग-प्रतंग के क्रिय-कलाप से प्रत्‍येक्ष, जग जाहिर हो रहा है। चहकती हुई परम सुख-शाँति भरपूर ग्रहण करने का गौरव पा कर फूली नहीं समा रही थी। सारे तन्‍तु खुल गये। लम्‍हे–लम्‍हे, शक्ति की सूरत उतर रही है; ऑंखों में। एक-एक पल का रसास्‍वादन इच्‍छाभर कर लेना चाहती है। कोई अभिलाषा, को भावना, कोई कमिच्‍छा शेष ना रह जाये, शीघ्र-अति-शीघ्र जवानी की रंगीनीयॉं समेट लेना चाहती है, अपने दामन में।

अतीत की सारी कड़वाहट, रोष, झुंझलाहट, कर्कशता, विफरना, उलाहना देना, चिल्‍ला-चौंट करके शरीर को ऐंठते हुये शक्ति पर आक्रमण करना। उसका अमन-चैन बर्बाद करके, शुकून ढूँढना, मगर स्‍वयं ही बेचैन हो जाना। गृहस्‍थी की परम्‍परागत मर्यादाऍं, चूल्‍हे में झौंक कर हाथ सेंकने में क्रोधवश कम्‍पन्‍न शॉंत करने की असफल कोशिश करना। ये सारी परेशनियॉं, पूर्णरूप से विलुप्‍त हो गई। उजाड़ चमन में बहार छा गई, बसन्‍त की। आत्‍मा एवं मन-मस्तिष्‍क तृप्‍त हो गया। जलती हुई ज्‍वाला को सावन की रिमझिम फुहारों ने शीतल-शॉंत कर दिया। मर्मस्‍पर्शीय प्रेम-प्‍यार के एहसास ने सम्‍पूर्ण गिले-शिकवे घ्‍वस्‍त कर दिये। जिन्‍दगी के उदित सूरज की लालिमा ने चित्त-चितवन को उर्जावान कर दिया। आन्‍तरिक अभिलाषाऍं प्रदीप्‍त हो उठीं, मंशा अनुरूप!

शक्ति के मन-मस्तिष्‍क पर मंडराते नफरत के काले बादल छट गये। नकारात्‍मक मनोवृत्ति क्रोध, आक्रोश, अत्रृप्ति, असन्‍तोष, चिड़चिड़ाहट, ऊलूल-जुलूल शब्‍दों में फटकार, डांट-डपट, बोखलाहट, अनावश्‍यक शब्‍दों वाक्‍यों के बेधड़क हमेशा प्रयोग से सारे माहौल को दूषित करना, घृणा फैलाना रोज की बात हो गया था। आसुरी संस्‍कार पूरे व्‍यक्तित्‍व पर हावी रहते थे। हमेशा दिमाग पर दुर्विचारों का कचरा जमा रहता था। लोग शक्ति से किनारा करने लगे थे। बदतमीजी व झगड़ालू वहस में कौन उलझे। अपशब्‍दों और आपत्तिजनक वाद-विवाद में क्‍यों शामिल हो। सम्‍पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्‍योवहार, टपोरीगिरी स्‍वयं के प्रयास से अपना काया कल्‍प के प्रयासों के तहत सपना के सानिध्‍य में रहकर। समाज द्वारा, परिवार द्वारा त्‍याज व्‍यक्तित्‍व में सामान्‍य सुधार कराके सभी को शक्ति ने अपने प्रति, उनके दृष्टिकोण को परिवर्तित करने के लिये स्‍वयत: बाध्‍य कर दिया। अब सबके सब शक्ति के आशाजनक बदलाव के चर्चे सुनकर बहुत प्रभावित हुये और उसे सम्‍मानपूर्वक स्‍वीकार करने में किसी को गुरेज नहीं है।

शक्ति भी अपने-आपको जिम्‍मेदार महसूस करने लगा। उसने तय किया कि पहली प्राथमिकता अपने परिवार को सर्वसुख सम्‍पन्‍न, प्रसन्‍नचित, उनकी आवश्‍यकताओं की पूर्ती तथा उनके स्‍तरीय पालन-पोषण शिक्षा, इत्‍यादि के विकास हेतु हमेशा प्रयेत्‍नशील रहना। बच्‍चों को विद्याअध्‍ययन में भरसक प्रयास करना ताकि समाज में उन्‍हें अच्‍छा नागरिक बनाना एवं शुशिक्षित करके सामाजिक मान-सम्‍मान का पात्र बनाना, ताकि समाज की मुख्‍य धारा में स्‍वविकसित हो सकें। इन सबके क्रियाम्वन के लिये कठोर परिश्रम, वह भी योजनाबद्ध आवश्‍यक है। हालातों से सामन्‍यजस्‍य, तालमेल बैठा कर निरन्‍तर कार्यरत रहना होगा।

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍

क्रमश:---6

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