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लोटन का शौचालय ( व्यंग्य )


लोटन का शौचालय


एक गाँव में एक बुजुर्ग रहते थे, नाम था लोटनलाल। पहले उनका भरा-पूरा परिवार था। फिर धीरे-धीरे सब साथ छोड़ते गए, कुछ मौत के कारण और कुछ लोग शहर की ओर दौड़ के कारण। आज लोटन छोटी-सी झोपड़ी में अकेले रहते हैं। दिन में एक पंप के सहारे हवा भरते तथा पंचर बना कर अपने पेट का जुगाड़ कर लेते हैं। अब लोटन खाते हैं तो जाना भी होता है। वे हमेशा ही लोटा लेकर निकल जाते हैं। सुबह शाम की सैर की सैर और काम का काम। एक दिन सुबह सूरज निकलने से पहले वे नित्यक्रिया हेतु लोटा लेकर सड़क के किनारे बैठे थे। अचानक किसी ने टार्च की रोशनी उन पर डाली। वे हड़बड़ा कर खड़े हो गये। टार्च के उस ओर गाँव के गुरूजी थे। वे बोले ‘‘क्या गुरूजी.....मजाक करते हो।’’ गुरूजी बोले ‘‘मजाक तो हमारे साथ हो रहा है हमें तो यह देखने की ड्यूटी मिली है कि कौन-कौन गाँव को गंदा करता है।’’ लोटन बोले ‘‘गुरूजी अब आप ही बताओ खायें यहाँ और गंदा करने दूसरे गाँव जायें क्या ?’’

लोटन को बातों-बातों में यह मालूम हुआ कि उनक गाँव अब स्वच्छ गाँव हो गया है। ऐसे गाँव में सबके घरों में संडास याने शौचालय बन गये होते हैं, ऐसा माना जाता है। लोटन उसी दोपहर में पंचायत गया और पता किया तो मालुम हुआ कि गाँव में सभी घरों में शौचालय बन चुके हैं। लोटन सोचने लगा ‘‘ये भूल गये होंगे मेरे घर में बनाना।’’ उसने प्रधान से पूछा ‘‘मेरे घर में शौचालय कब बनाओगे ?’’ प्रधान बोले ‘‘दादा सठिया गया है क्या....... तुम्हारे घर में तो बन भी गया है।’’ लोटन को लगा शायद प्रधान ही सही होगा। उसने घर आकर झोपड़ी के आस-पास शौचालय खोजने का बहुत प्रयास किया परन्तु होता तो मिलता ना। वो फिर प्रधान के पास गया ‘‘प्रधान जी शौचालय तो नहीं है वहाँ..........आप लोगों ने कहाँ बनवाया है बता देते तो........।’’ प्रधान बोला ‘‘क्या दादा अब हमारे ये दिन आ गये कि हम तुम्हें शौचालय दिखायें, जाओ और ढूंढ लो।’’ लोटन का अब लगने लगा कि दाल में जरूर कुछ काला है।

लोटन ने गाँव में पता किया तो और बहुत से घर थे जहाँ शौचालय नहीं बने थे। प्रधान के कागज पर बने थे। अब गाँव स्वच्छ होता तो कैसे ? लोटन पुरानी सातवीं तक पढ़े थे सो अपने शौचालय का आवेदन लेकर तहसील पहुँच गये। दो-तीन दफ्तरों में धक्के खाने के बाद पता लगा कि कौन अफसर इसके लिए जिम्मेदार है। लोटन ने अफसर को अपनी समस्या बताई। अफसर मुस्कुराये, फिर एक बाबू से गाँव की फाईल बुलवाई। अफसर बोले ‘‘लोटन पिता महेतलाल तुम्हारे यहाँ तो बन गया है ना।’’ लोटन ने न में मुंडी हिलाई और बोले ‘‘नहीं साहब नहीं बना है।’’ अफसर और बाबू धीरे-धीरे बात करने लगे। लोटन के कुछ शब्द सुनाई दिये जैसे ठेका, ठेकेदार और मंत्री का साला। अफसर ने कहा ‘‘अच्छा हम देखते हैं क्या हो सकता है।’’ कई महिने बीत गये कुछ नहीं हुआ। अब लोटन ने जिले की ओर रूख किया, दृश्य वैसा ही था वही बाबू, वही फाईल, वही फूसफूसाहट और वही जवाब।

लोटन अब तक अनेकों दफ्तरों में अपने घर का शौचालय मांगने जा चुका है। जहाँ वो जाता है उसे फर्स और दिवारें तो साफ-सुथरी दिखाई देती है परन्तु वो फुसफुसाहटों की गंदगी को महसूस करता है। उसे लगता है कि कुछ लोगाें को यह अच्छा नहीं लगता कि आम आदमी सड़क के किनारे बैठकर गंदा करे। भले ही वे कुर्सी पर बैठकर वह सब करते रहें। लोटन को अब अपने घर के अलावा सभी कुर्सीयों अपना शौचालय दिखाई देता है।

आलोक मिश्रा "मनमौजी"
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